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________________ 4 ३९० जैन पुराणको (२) मसालों के साथ पकाये गये स्वादिष्ट खाद्य पदार्थं । मपु० ३.२०२ व्यंतर - देवों का एक भेद । ये आठ प्रकार के होते हैं। उनके नाम हैंकिन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच । बाल तप करनेवाने साधु मरकर ऐसे ही देव होते हैं । इन देवों की उत्कृष्ट स्थिति एक पल्य प्रमाण तथा जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष होती है । ये मध्यलोक में रहते हैं। तीर्थंकरों के जन्म की देने सूचना के लिए इन देवों के भवनों में स्वयमेव भरियों की ध्वनि होने लगती पर छोटे-छोटे गड्ढों में पहाड़ के शिखरों पर वृक्षों के कोटरों, पत्तों की झोपड़ियों में रहते है। इनका 1 देव 1 सर्वत्र गमनागमन रहता है । द्वीप और समुद्रों की आभ्यन्तरिक स्थिति का इन्हें ज्ञान होता है। इन देवों के सोलह इन्द्र और सोलह प्रतीन्द्र होते हैं । उनके नाम ये हैं - १. किन्नर २. किंपुरुष ३. सत्पुरुष ४. महापुरुष ५. अतिकाय ६. महाकाय ७. गीतरति ८. रतिकीर्ति ९. मणिभद्र १०. पूर्णभद्र ११. भीम १२. महाभीम १२. सुरूप १४. प्रतिरूप १५. काल और १६. महाकाल । मपु० ३१.१०९-११३, पपु० ३.१५९-१६२, ५.१५३, १०५.१६५, हपु० २.८३, ३.१३४१३५, १३९, ५.३९७ - ४२०, वीवच० १४.५९-६२, १७.९०-९१ व्यन्तरी - श्री ही, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी व्यन्तर देवियाँ । छहों क्रमशः पद्म, महापद्म, तिगच्छ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक हृदों में निवास करती हैं । मपु० ६३.१९७-१९८, २०० व्यक्त - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४७ व्यक्तवासौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम मपु० , - २५. १४७ व्यवतशासन - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५. १४७ व्यतीतशोक- तेबीसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के पूर्वभव के पिता । पपु० २०. २९-३० व्यय-नयी पर्याय की प्राप्ति । मपु० २४.११०, हपु० १.१ व्यवहार काल -- समय, आवलि, उच्छ्वास, प्राण, स्तोक और लव आदि काल । हपु० ७.१६ व्यवहारनय - संग्रह नय के विषयभूत सत्ता आदि पदार्थों का विशेष रूप से भेद करनेवाला एक नय । हपु० ५८.४५ व्यवहारपल्य-व्यवहारपल्योपम काल का परिणाम बताने के लिए बनाया गया एक योजन प्रमाण लम्बा और इतना ही चौड़ा तथा गहरा चारों ओर दीवाल से युक्त गर्त। इसमें एक से सात दिन तक के के ऐसे बाल जिनका दूसरा टुकड़ा न हो सके, कूट-कूट कर भर दिये जाते हैं। हपु० ७.४७-४८ व्यवहारपस्योपगम-व्यवहारकाय गर्त में भरे गये अविभाज्य के बालों में से सौ-सौ वर्ष में एक-एक बाल को निकालते हुए उन समस्त बालों को निकालने में जितना समय लगे वह व्यवहार पल्योपगम काल कहलाता है । हपु० ७.४७-४९, दे० व्यवहारपल्य Jain Education International व्यंतर-व्यास उपवहारचारित्र - हिंसा आदि पाँचों पापों का कृत कारित और अनु मोदना से तीनों योगों की शुद्धिपूर्वक तीन गुप्ति और पंच समिति के परिपालन के साथ सदा के लिए त्याग करना व्यवहार चारित्र कहलाता है । वोवच० १८.१८-१९ व्यवहारवानायं का शंका आदि दोषों से रहित तथा नियकादि गुणों से सहित अज्ञान व्यवहार-सम्यग्दर्शन कहलाता है। बीच १८.३ O व्यवहारसम्यग्ज्ञान-तत्त्वार्थं का यथार्थ रूप से ज्ञान होना । वीवच० - १८.१४ व्यवहारेशिता – उपासकाध्ययन सूत्र में द्विज के कहे गये दस अधिकारों में छठा अधिकार । परमागम का आश्रय लेने वाले द्विज को प्राय-चित्त आदि कार्यों में स्वतन्त्रता की प्राप्ति उसका व्यवहारेशिताअधिकार कहलाता है । मपु० ४०.१७४-१७७, १९२ उपसन -असत्प्रवृत्तियों में रति । ये सात होते हैं उनके नाम हैंजुआ, मांस, मद्य, वेश्यागमन, शिकार चोरी और परस्वीरमण । इनमें मद्य, मांस और शिकार क्रोधज तथा जुआ, चोरी, वेश्यागमन और परस्त्रीरमण कामज व्यसन हैं। मपु० ५९.७५, ६२.४४१ व्यस्त्र - महास्तम्भक द्विव्यास्त्र । दिग्विजय के समय भरतेश के सैनिक इससे युक्त थे । मपु० ३१.७२ व्याख्याप्रज्ञप्ति - (१) द्वादशांग श्रुत का पाँचवाँ अंग । इसमें दो लाख अट्ठाईस हजार पदों में मुनियों के द्वारा विनयपूर्वक पूछे गये प्रश्न और केवली द्वारा दिये गए उनके उत्तरों का विस्तृत वर्णन है । मपु० ३४.१३९, हपु० १०.३४-३५ (२) दृष्टिवाद अंग के परिकर्म भेद के पाँच भेदों में यह पाँचव भेद है। इसमें चौरासी लाख उन्तीस हजार पद हैं जिनमें रूपीअरूपी द्रव्य तथा भव्य अभव्य जोवों का वर्णन किया गया है। हपु● १०.६१-६२, ६७-६८ व्याघ्रपुर – एक नगर । यहाँ का राजा सुकान्त था । पपु० ८०.१७३ व्याघ्रविलम्बी - राजा बाली का एक योद्धा । दशानन के दूत से बाली की निन्दा सुनकर इसने दूत को मारना चाहा था किन्तु बाली ने दूत का वध नहीं करने दिया था । पपु० ९.६४-६९ व्यामहस्त लोहाचार्य के पश्चात् हुए आचायों में एक आचार्य बे आचार्य पदमसेन के शिष्य और नागस्ति के गुरु थे ० ६६.२७ व्याघ्री - भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की एक नदी । दिग्विजय के समय भरनेश की सेना यहाँ आयी थी । मपु० २९.६४ व्यानन्द —— पोदनपुर नगर का राजा। अम्भोजमाला इसकी रानी और विजया पुत्री थी। विजया का विवाह अयोध्या नगरी के राजा त्रिदशंजय और रानी इन्दुरेखा के पुत्र जितशत्रु के साथ हुआ था । पपु० ५.६०-६२ - व्यायामिक - नृत्य के तीन भेदों में तं सरा भैद । केकया इस नृत्य को जानतो थो। पपु० २४.६, दे० अंगहाराश्रय व्यास - भीष्म का सौतेला भाई। यह हस्तिनापुर के कौरववंशी राजा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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