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________________ पर-व्यंजन साधु १०. और मनोज्ञ लोकाप्रिय मुनि इनकी बीमारी के समय मोह के तीव्र उदय से मिथ्यात्व की ओर उनकी प्रवृत्ति होने पर, मिथ्यादृष्टि जीवों के द्वारा कोई उपद्रव-उपसर्ग किया जाने पर और परोषहों के समय में सद्भाव पूर्वक यथायोग्य सेवा करना वैयावृत्य तप है। मपु० २०.१९४, पपु० १४.११६-११७, हपु. ६४.२९, ४५-५५, १८.१३७, वीवच० ६.४१-४४ (२) षोडशकारण भावनाओं में नौवीं भावना । गुणवान् साधुजनों के क्षुधा, तृषा, व्याधि आदि से उत्पन्न दुःख को प्रासुक द्रव्यों के द्वारा दूर करने की भावना करना वैयावृत्य-भावना कहलाती है। मपु० ६३.३२६, हपु० ३४.१४० वर-वृषभदेव के उनहत्तरवें गणधर । हपु० १२.६७ वैराग्यभावना-वैराग्य की कारणभूत भावनाएँ। इनसे पुरुष मोह को प्राप्त नहीं होता । वह ध्यान में स्थिर बना रहता है। जगत और शरीर के स्वरूप का बार-बार चिन्तन करने तथा विषयों में अनासक्त रहने से वैराग्य में स्थिरता आती है । मपु० २१.९५, ९९ वैरोचन-(१) नौ अनुदिश विमानों में एक विमान । हपु० ६.६३ (२) एक अस्त्र । जरासन्ध द्वारा छोड़े इस अस्त्र का कृष्ण ने माहेन्द्र-अस्त्र से विच्छेद किया था। हपु० ५२.५३ (३) भवनवासी देवों के बीस इन्द्र और प्रतीन्द्रों में दूसरा इन्द्र और प्रतीन्द्र । यह जिनाभिषेक के समय चमर ढोरता है । मपु० ७१. ४२, वीवच० १४.५४ वैशाखस्थान-बाण चलाते समय प्रयुज्य एक आसन । इसमें दायें पर का घुटना-पृथिवी में टेककर बायें पैर को घुटने से मोड़कर रखा जाता है । मपु० ३२.८७, हपु० ४.८ बैशाली-भरतक्षेत्र को नगरी । यहाँ के राजा गणतंत्र-नायक चेटक थे। मपु०७५.३ वैश्य-चार वर्षों में एक वर्ण । ये न्यायपूर्वक अर्थोपार्जन करते हैं। वृषभदेव ने यात्रा करना सिखाकर इस वर्ण की रचना की थी। जल, स्थल आदि प्रदेशों में व्यापार और पशुपालन करना इस वर्ण को आजीविका के साधन है। मपु० १६.१०४, २४४, ३८.४६, हपु० ९.३९, १७.८४, पापु २.१६१ | बेचवण-(१) पूर्वविदेह का सीता नदी और निषध-कुलाचल का एक वक्षारगिरि । मपु० ६३.२०२, हपु० ५.२२९ । (२) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में विजया पर्वत के नौ कूटों में नौवाँ कूट । हपु० ५.२८ (३) हिमवत्-कुलाचल के ग्यारह कूटों में ग्यारहवाँ कूट । हपु० बैन पुराणकोश : ३८९ (७) तीर्थकर मल्लिनाथ के दूसरे पूर्वभव का जीव-कच्छकावती देश के वोतशोक नगर का नृप। यह वचपात से वटवृक्ष के समूल विनाश को देखकर संसार से भयभीत हुआ । फलस्वरूप पुत्र को राज्य देकर मुनि नाग के पास यह दीक्षित हो गया। तप करके तीर्थकरप्रकृति का बन्ध करने के पश्चात् मरकर यह अपराजित विमान में अहमिन्द्र हुआ। मपु० ६६.२-३, ११-१६ (८) भरतक्षेत्र के मलय देश में रत्नपुर नगर का सेठ । इसकी पली गोतमा और पुत्र श्रीदत्त था। मपु० ६७.९०-९४ (९) जम्बदीप के भरतक्षेत्र में कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर का एक सेठ । इसने मुनिराज समुद्रसेन को आहार देने के बाद मुनिराज के पीछे-पीछे आये हुए गौतम ब्राह्मण को भोजन कराया था। फलस्वरूप गौतम ने इससे प्रभावित होकर मुनि सागरसेन से दीक्षा ले ली थी। मपु० ७०.१६०-१७६ । (१०) यक्षपुर के धनिक विश्रवस और कौतुक मंगल नगर के राजा व्योमबिन्दु विद्याधर की बड़ी पुत्री कौशिकी का पुत्र । इन्द्र विद्याधर ने इसे पाँचवाँ लोकपाल तथा लंका का राजा बनाया था। दशानन का यह मौसेरा भाई था । युद्ध में यह रावण से पराजित हुआ । अन्त में दिगम्बर दीक्षा लेकर इसने तप किया और तपश्चरण करते हुए मरकर परमगति पायी । पपु० ७.१२७-१३२, २३६, ८.२३९-२४०, २५०-२५१ वैश्रवणकूट-विजयार्घ पर्वत की दक्षिण श्रेणो का तियालोसा नगर । मपु० १९.५१ वैश्रवणदत्त-(१) विदेहक्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी के निवासी सेठ 'सागरसेन की छोटी बहिन सागरसेना का पुत्र । इसकी एक बहिन थी जिसका नाम वैश्रवणदता था। इसे इसो नगर के सेठ सागरसेन और देवश्री की पुत्री सागरदत्ता विवाही गयी थी। मपु० ४७.१८९१९९ (२) राजपुर नगर का एक सेठ। इसकी पत्नी आम्रमंजरी और पुत्री सुरमंजरी थी। मपु० ७५.३१४, ३४८ (३) भरतक्षेत्र के अंग देश की चम्पा नगरी का सेठ । इसकी स्त्री का नाम विनयवती तथा पुत्री का नाम विनयश्री थी। जम्बूस्वामी इसके जामाता थे । मपु ७६.८, ४७-४८ वैभवणवत्ता-विदेहक्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी के सेठ सागरसेन की भानजी । मपु० ४७.१८९-१९८ दे० वैश्रवणदत्त वैश्वानर-(१) कुरुवंशी एक राजा। इसे राज्य राजा विश्व से मिला था। इसके पश्चात् विश्वकेतु राजा हुआ । हपु० ४५.१७ (२) विद्याधरों की एक जाति । इस जाति के विद्याधर विद्याबल वाले होते हैं तथा देवों के समान क्रीड़ाएं करते हैं । पपु० ७.११९ व्यंजन-(१) स्वप्न, अन्तरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण और छिन्न इन अष्टांग निमित्तों में छठा निमित्त । शिर, मुख आदि में रहने वाले तिल आदि व्यंजन कहलाते हैं। इनसे स्थान, मान, ऐश्वर्य, लाभ-अलाभ आदि के संकेत मिलते हैं। मपु० ६२.१८१, १८७, हपु० १०.११७ (४) ऐरावत क्षेत्र में विजयाध पर्वत के नौ कूटों में नौवां कूट। हपु० ५.११२ (५) कुबेर का एक नाम । हपु० ६१.१८ (६) जम्बूद्वीप के विजयाध पर्वत की दक्षिण श्रेणी का तैंतालीसा -नगर । मपु० १९.५१, ५३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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