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________________ विद्युत्मा विद्यदुष्ट्र अल्पायु जानकर इसे अपनी पुत्री अंजना को देने योग्य नहीं समझा था । पपु० १५.८५ (६) चक्रवर्ती भरतेश के कुण्डल । मपु० ३७.१५७ (७) जम्बूद्वीप के प्रसिद्ध सोलह सरोवरों में ग्यारहवाँ सरोवर । मपु० ६३.१९९ (८) चार गजदन्त पर्वतों में तीसरा पर्वत । यह अनादिनिधन है । मपु० ६३.२०५ (९) पोदनपुर नगर के राजा विद्यद्राज का पुत्र । इसका अपर नाम विश्वोर था। म० ७६.५२०५५ २० वर (१०) विजया पर्वत की उत्तरश्रेणी में सुरेन्द्रकान्तार नगर के राजा मेघवाहन और रानी मेघमालिनी का पुत्र । यह ज्योतिर्माला का भाई था। दूसरे पूर्वभव में यह वत्तकावती देश में प्रभाकरी नगरी के राजा नन्दन का पुत्र विजयभद्र और प्रथम पूर्वभव में माहेन्द्र स्वर्ग के चक्रक विमान में देव था । मपु० ६२.७१-७२, ७५ ७८, पापु० ४. २९-३५ (११) विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी में रथनूपुर नगर का नृप एक विद्याधर । इसके दो थेपुत्र - इन्द्र और विद्युन्माली । इन पुत्रों में इन्द्र को राज्य सौंपकर तथा विद्युन्माली को युवराज बनाकर यह दीक्षित हो गया था । पापु० १७.४३-४५ विद्युत्प्रभा - (१) विद्याधर वज्रदंष्ट्र की रानी और विद्युदंष्ट्र की जननी । हपु० २७.१२१ (२) जयकुमार के शील की परीक्षा करनेवाली देवी । मपु० ४७. २५९-२७० दे० जयकुमार (३) सौधर्म स्वर्ग के श्रीनिलय विमानं की देवी । मपु० ६२. ३७५ (४) राजा कनक और रानी संख्या की पुत्री । रावण ने इसे गन्धर्वविधि से विवाहा था । पपु० ८.१०५, १०८ (५) दधिमुख नगर के राजा गन्धवं तथा रानी अमरा की दूसरी पुत्री । यह चन्द्रलेखा की छोटी और तरंगमाला की बड़ी बहिन थी । ये तीनों बहिनें राम के साथ विवाही गयी थीं । पपु० ५१.२५२६, २८ विद्यत्वान् — विद्याधरवंशी राजा विद्य दृदंष्ट्र का पुत्र और विद्युद्दाभ का पिता । पपु० ५ १६-२१, हपु० १३.२४ 1 विरंग - कुन्दनगर के प्रधान वैश्य समुद्रसंगम का पुत्र यमुना इसकी जननी थी । इसका जन्म बिजली की चमक से प्रकाशित हुए समय में होने से इसके भाई बन्धुओं ने इसे यह नाम दिया था। धन कमाने के लिए यह उज्जयिनी गया था । वहाँ कामलता वेश्या पर यह आसक्त हो गया था । इसने इस व्यसन में पड़कर अपने पिता का संचित धन छः मास में ही समाप्त कर दिया। एक दिन कामलता से रानी के कुम्लों को प्रशंसा सुनकर यह रानी के कुण्डल चुराने राजा सिहोदर के राजमहल में गया । वहाँ इसने राजा को अपनी रानी से यह कहते हुए सुना कि दशांगपुर का राजा वस्त्रकर्ण उसका वैरी है। वह उसे ४७ Jain Education International मैनपुराणको ३६९ नमस्कार नहीं करता । अतः जब तक वह उसे मार नहीं डालता उसे चैन नहीं । राजा से ऐसा सुनकर अपना परिचय देते हुए इसने कुण्डल नहीं चुराये । चुपचाप बाहर निकल कर इसने राजा वज्रकर्ण को सम्पूर्ण घटना निवेदित की। वज्रकर्ण नहीं माना। उसने सिंहोदर को नमस्कार नहीं किया । फलस्वरूप सिहोदर ने आग लगाकर इस नगर को उजाड़ दिया । राम ने इससे दशांगनगर के निर्जन हो जाने की कथा ज्ञात करने के पश्चात् इसे दुःखी देखकर अपने रत्नजटित स्वर्णसूत्र दिये थे। पपु० ३३.७३-१८१ ३० बखकर्ण विद्युद्गति — जम्बूद्वीप में पूर्व विदेहक्षेत्र के विजयार्ध पर्वत पर स्थित त्रिलोकोत्तम नगर का राजा। इसकी रानी विद्युन्माला तथा पुत्र रश्मिवेग था । मपु० ७३.२५-२७ विद्युधन विभीषण का एक शूरवीर सामन्त विभीषण के साथ यह भी राम के पास गया था । पपु० ५५.४० विद्युदुदंष्ट्र - ( १ ) एक विद्याधर । यह विजयार्धं पर्वत के गगनवल्लभ नगर के राजा वज्रदंष्ट्र और रानी विद्युत्प्रभा का पुत्र था। इसके पिता मुनि संजयन्त इसके पूर्वभव के वैरी थे । वे किसी समय वीतशोका नगरी के भीमदर्शन - श्मशान में प्रतिमायोग से विराजमान थे। यह इसी मार्ग से कहीं जा रहा था। इन्हें तप में लीन देखकर पूर्व वैर के कारण यह भरतक्षेत्र सम्बन्धी विजयार्ध पर्वत के दक्षिणभाग के समीप वरुण पर्वत पर उठा ले गया था । यहाँ से इसने उन्हें इला पर्वत के दक्षिण में हरिद्वती, चण्डवेगा, गजवती, कुसुमवती और स्वर्णवती नदियों के संगम पर अगाध जल में छोड़ा था। इसने विद्याधरों को राक्षस बताकर इन्हें मार डालने के लिए प्रेरित किया था। फलस्वरूप विद्याधरों ने उन्हें शस्त्र मार-मार कर सताया । संजयन्त मुनि तो केवलज्ञान प्राप्तकर निर्वाण को प्राप्त हुए किन्तु मुनि के भाई जयन्त के जीव धरणेन्द्र को जैसे ही उपसर्ग वृतान्त ज्ञात हुआ कि उसने आकर उसकी समस्त विद्याएँ हर ली थीं। वह इसे मारने को तैयार हुआ ही था कि आदित्याभ लान्तवेन्द्र ने आकर धरणेन्द्र को ऐसा करने से रोककर इसे मरण से बचा लिया था। इसका अपर नाम विद्युदृढ़ था। विद्याओं से रहित होने पर पुनः विद्या प्राप्ति के लिए धरणेन्द्र ने इसे संजयन्त मुनि के चरणों में तपश्चरण करना एक उपाय बताया था । जिनप्रतिमा मन्दिर तथा मुनियों के ऊपर गमन करने से विद्याएँ नष्ट हो जाती हैं ऐसा ज्ञातकर इसने संजयन्त मुनि के पादमूल में तपश्चरण किया और पुनः विद्याएँ प्राप्त कर थीं । अन्त में दृढ़रथ पुत्र को राज्य सौंपकर तपश्चरण करते हुए मरकर यह स्वर्ग गया। मपु० ५९.११६-११२, १९०-१९१, पु० १. २५- ३३, ४७, हपु० २७.५-१८, १२१ (२) विद्याधरों के राजा नमि का वंशज । यह राजा सुवक्त्र का पुत्र और विद्य त्वान् का पिता था। पपु० ५.२० हपु० १३.२४ (३) यादवों का पक्षधर एक विद्याधर । हपु० ५१.३ (४) चक्रवर्ती वज्रायुध का पूर्वभव का वैरी । इसने वज्रायुध को नागपाश में बाँधकर ऊपर से शिला रख दी थी किन्तु वज्रायुध ने - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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