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________________ ३७० : जेन पुराणकोश विच बढ़-विधु द्विलसित शिला के सौ टुकड़े कर दिये तथा नागपाश को निकाल कर फेंक दिया था । पापु० ५.३२-३६ (५) विजयाध पर्वत की अलका नगरी का राजा। इसकी रानी अनिलवेगा तथा पुत्र सिंहरथ था। मपु० ६३.२४१, पापु० ५.६५ ६६ (६) एक विद्याधर । यह विजयाध को दक्षिणश्रेणी में मेधकूट नगर के स्वामी विद्याधर कालसंवर और रानी कांचनमाला का पुत्र था। यह पाँच सौ भाइयों में ज्येष्ठ था। मपु० ७२.५४-५५,८५ दे० प्रद्युम्न विद्य दृढ़-विद्य दंष्ट्र का अपर नाम । पपु० ५.२५ दे० विद्य दंष्ट--१ विधु दम्बुक-रावण का सामन्त । इसने गजरथ पर बैठकर राम की सेना से युद्ध किया था । पपु० ५७.५७ विद्य वक्त्रा-(१) एक गदा । चिन्तागति देव ने यह गदा लक्ष्मण को दी थी । पपु० ६०.१४० (२) महेन्द्रोदय उद्यान की एक राक्षसी । इसने सर्वभूषण मुनिराज पर अनेक उपसर्ग किये थे। यह पूर्वभव में इन्हीं मुनिराज की आठ सौ स्त्रियों में किरणमण्डला नाम की प्रधान स्त्री थी। इसने अपने मामा के पुत्र हेमशिख का सोते समय बार-बार नाम उच्चारण किया था। इसकी इस घटना से इसका पति और यह साध्वी हो गयी थी। आयु के अन्त में किसी कलुषित भावना से मरकर यह राक्षसी हुई । पपु० १०४.९९-११७ विद्यु दाभ-एक विद्याधर । यह नमि विद्याधर के वंश में हुए विद्याधर विद्यु त्वान् का पुत्र और विद्य द्वेग का पिता था। पपु० ५.२०, हपु० १३.२४ विद्य द्वाह-राम का सामन्त । पपु० ५८.१८ विद्यु वेगकृष्ण की पटरानी गान्धारी के पूर्वभव का पिता एक विद्याधर । यह जम्बूद्वीप के विजयाध पर्वत की दक्षिणश्रेणी पर गगनवल्लभ नगर का राजा था। विधु द्वेगा इसकी रानी और सुरूपा इसकी पुत्री थी । हरिवंशपुराण में इसकी रानी का नाम विद्युन्मती तथा पुत्री का नाम विनयश्री बताया है। विद्याधर नमि की वंश परम्परा में यह विधु दाभ विद्याधर का पुत्र और विद्याधर वैद्युत का पिता था । मपु० ७१.४१६-४२८, पपु० ५.२०, हपु० १३.२४, ६०.८९-९३ (२) बलि के सहस्रग्रीव आदि अनेक राजाओं के पश्चात् हुआ एक विद्याधर । यह वसुदेव का ससुर तथा दधिमुख और चण्डवेग विद्याधरों का पिता था । मदनवेगा इसकी पुत्री थी। इसे किसी निमित्तज्ञानी मुनि ने गंगा में विद्या सिद्ध करनेवाले चण्डवेग के कन्धे पर आकाश से गिरने वाले पुरुष को इसकी पुत्री का होनेवाला पति बताया था । नभस्तिलक नगर का राजा त्रिशिखर अपने पुत्र सूर्यक को इसकी पुत्री मदनवेगा नहीं दिला सका । इस कारण वह विद्यु वेग से रुष्ट हुआ और उसने उसे बन्दी बना लिया। दैवयोग से वसुदेव चण्डवेग के कंधे पर गिरे। चण्डवेग ने इसे मुक्त कराने के लिए वसुदेव को अनेक विद्यास्त्र दिये । वसुदेव ने विद्यास्त्र लेकर माहेन्द्रास्त्र से त्रिखर का शिर काट डाला और इसे बन्धनों से मुक्त करा दिया । इसने भी मदनवेगा वसुदेव को विवाह दी थी। हपु० २५.३६-७०, ४८.६१ दे० चण्डवेग (३) पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी का एक चोर । चोरी में पकड़े जाने पर दण्ड देनेवालों ने इसे तीन प्रकार के दण्ड निश्चित किये थे। इनमें प्रथम दण्ड था मिट्टी को तीन थाली शकृतभक्षण । दूसरा दण्ड था-मल्लों के तीस मुक्कों की मार और तीसरा दण्ड था-अपने सर्व धन का समर्पण । इसने जीवित रहने की इच्छा से तीनों दण्ड सहे थे । अन्त में यह मरकर नरक गया । मपु० ४६.२८९-२९४ विधु वेगा-(१) विद्याधर विद्युद्वेग की रानी। मपु० ७१.४१९-४२० दे० विद्य दवेग--१ (२) एक विद्याधरी । विद्याधर अशनिवेग ने इसे कुमार श्रीपाल को मारने भेजा था । यह श्रीपाल को देखकर कामासक्त हो गयी थी। श्रीपाल को अपने घर ले जाने का भी इसने प्रयत्न किया किन्तु सफल नहीं हुई । इसकी सखी अनंगपताका ने इसका अभिप्राय कुमार के समक्ष प्रकट किया । कुमार ने माता-पिता द्वारा दी गयी कन्या के ग्रहण करने को अपनी प्रतिज्ञा बताकर अपनी असमर्थता प्रकट की। कुमार के इस उत्तर से यह कुमार को अपने मकान की छत पर छोड़कर और बन्द करके माता-पिता को लेने गयी थी, इधर लाल कम्बल ओढ़ कर सोये हुए श्रीपाल को मांस का पिण्ड समझकर भेरुण्ड पक्षी उठा ले गया और यह विवश होकर निराश हो गयी। मपु० ४७.२७-४४, दे० अशनिवेग (३) ब्रह्म स्वर्ग के इन्द्र विद्युन्माली की चार देवियों में तीसरी देवी। मपु० ७५.३२-३३ विद्यु बाज-सुरम्य देश के पोदनपुर नगर का राजा। विमलवती इसकी रानी और विद्युत्प्रभ इसका पुत्र था। यही पुत्र विद्य च्चोर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मपु० ७६.५३-५५ दे० विद्यु च्चोर विधवाहन-एक विद्याधर । यह विद्याधर अशनिवेग का पुत्र था । इसन राजा किष्किन्ध के साथ युद्ध किया था। किष्किन्ध ने इसके वक्षस्थल पर एक शिला फेंकी थी जिससे यह मुच्छित हो गया था। कुछ ही समय में सचेत होकर इसने वही शिला किष्किन्ध के वक्षस्थल पर फेंकी थी जिससे किष्किन्ध भी मूच्छित हो गया था । पपु० ६.४६२ विधद्विलसित-एक विद्याधर । इसने विभीषण के आदेश से राजा दशरथ और जनक के सिर काटकर विभीषण को दिखाये थे। विभीषण उन्हें समुद्र में फिकवा कर लंका चला गया था। ये दोनों सिर कृत्रिम प्रतिमाओं के थे। यह रहस्य सिर काटते समय न इसे विदित था और न विभीषण को ही। इसने और विभीषण ने दशरथ और जनक को मरा हुआ जानकर संतोष प्राप्त किया था। पपु० २३.५४-५८ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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