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________________ चाललीप-बायबावर्त किष्किन्ध, अन्ध्र करूढ़ि, सूर्यरज, ऋक्षरज, बालो, सुग्रीव, नल, नोल, अंग और अंगद राजा हुए। पपु० ६.३-१०, १९-५५, ८३-८४, ११७-१२२, १५२-१६२, १८९-१९१, १९८-२०६, २१८, ३४९, ३५२, ५२३, ९.१, १०, १३, १०.१२ वानरद्वीप-लंका का अति रमणीय एवं सुरक्षित द्वीप । लंका के राजा कीर्तिघवल ने यह द्वीप अपने साले श्रीकंठ विद्याधर को दिया था और श्रीकंठ ने इसी द्वीप के किष्कु पर्वत पर किष्कुपुर नगर बसाया था । पपु० ६.८२-८४, १२२ वानरविद्या-एक विद्या । अणुमान ने राम-रावण युद्ध में इसी विद्या से वानरसेना की रचना की थो । मपु० ६८,५०८-५०९ वानायुज-भरतक्षेत्र का एक देश । यहाँ के घोड़े प्रसिद्ध थे। दिग्विजय के समय भरतेश को यहाँ के घोड़े भेंट में प्राप्त हुए थे। मपु० ३०.१०७ वापि-भरतक्षेत्र का एक देश । यहाँ के घोड़े प्रसिद्ध थे। दिग्विजय के समय चक्रवर्ती भरतेश को इस देश के घोड़े भेंट में प्राप्त हुए थे । मपु० ३०.१०७ वामदेव-(१) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५ ७८ (२) भार्गवाचार्य की वंश परम्परा में हुए राजा सित का पुत्र और का पिष्ठल का पिता। हपु० ४५.४५-४६ (३) समुद्रविजय के भाई अक्षोभ्य का पुत्र । हपु० ४८.४५ वायु-जयन्तगिरि के दुर्जय वन का एक विद्याधर । सरस्वती इसकी स्त्री और रति पुत्री थी । हपु० ४७.४३ (२) वायव्य दिशा का एक रक्षक देव । मपु० ५४.१०७ (३) लोक का आवर्तक वातवलय । हपु० ४.३३, ४२, दे० वातवलय वायुकायिक-स्थावर जीवोंका एक भेद । इस जाति के जीवों की सात लाख कुयोनियाँ तथा इतनी ही कुलकौटियाँ होती हैं। इनकी उत्कृष्ट आयु तीन हजार वर्ष की होती है। ये जीव अनेक घात-प्रतिधात सहते हुए संसार में भ्रमते हैं। मपु० १७.२२-२३, हपु० १८.५७. ५९.६५ वायुकुमार-दस प्रकार के भवनवासी देवों में एक प्रकार के देव । ये पाताल लोक में रहते हैं । हपु० ३.२२, ४.६४-५५ वायुगति-आदित्यपुर नगर के राजा प्रह्लाद तथा रानी केतुमतो का पुत्र । इसका अपर नाम पवनंजय था। पपु० १५.७-८, ४७-४९, दे० पवनंजय-३ वायुभूति-(१) शम्ब के छठे पूर्वभव का जीव-मगधदेश में शालिग्राम के सोमदेव ब्राह्मण और उसकी पत्नी अग्निला का पुत्र। यह मिथ्यात्वी और मुनिनिन्दक था । मुनि सत्यक से पराजित होकर इसने मुनि को मारना चाहा था, किन्तु मुनि का घात करने में उद्यत देखकर सुवर्णयक्ष ने इसे कील दिया था। जैनधर्म स्वीकर करने पर ही यक्ष द्वारा यह अकीलित हुआ था। इस घटना के पश्चात् इसने जैन पुराणकोश : ३५७ व्रत सहित जीवन पूर्ण किया। आयु के अन्त में मरकर यह सौधर्म स्वर्ग का देव हुआ। मपु० ७२.१५-२४, पपु० १०९.९२-१३०, हपु० ४३.९९-१४८ (२) तीर्थकर महावीर के दूसरे गणधर । हरिवंशपुराण के अनुसार ये तीसरे गणधर थे। मपु० ७४.३७३, हपु० ३.४१, वीवच. १९२०६-२०७ वायुमूर्ति-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२६ वायुरथ-(१) विद्याधरों का स्वामी । यह विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी में गौरी देश के भोगपुर नगर का राजा था। स्वयंप्रभा इसकी रानी थी। रतिषणा कबूतरी मरकर इन्हीं दोनों को प्रभावती नाम की पुत्री हुई थी। मपु० ४६.१४७-१४८, पापु० ३.२१२-२१३ (२) बलभद्र अचलस्तोक के दूसरे पूर्वभव का जीव-भरतक्षेत्र के महापुर नगर का राजा । यह अर्हत् सुव्रत से धर्म का उपदेश सुनकर विरक्त हो गया था । फलस्वरूप पुत्र घनरथ को राज्य देकर यह तपस्वी हो गया तथा सुमरण करके प्राणत स्वर्ग के अनुत्तर विमान में इन्द्र हुआ। मपु० ५८.८०-८३ वायुवेग-(१) राजा वसुदेव और रानी गन्धर्वसेना का ज्येष्ठ पुत्र । अमितगति और महेन्द्रगिरि का यह अग्रज था । हपु० ४८.५५ (२) राजा वसुदेव तथा रानी वेगवती का कनिष्ठ पुत्र । वेगवान् का यह अनुज था । हपु० ४८.६० (३) एक विद्याधर । इसने अचिमाली विद्याधर के साथ हस्तिक्रीडा में लीन वसुदेव का अपहरण किया था और ले जाकर उसे विजया पर्वत पर कुंजरावर्त नगर के सर्वकामिक उद्यान में छोड़ा था। हपु० १९.६७-७१ (४) विजया पर्वत की उत्तरश्रेणी पर स्थित शुक्रप्रभ नगर के राजा इन्द्रदत्त और रानी यशोधरा का पुत्र । किन्नरगीत नगर के राजा चित्रचल को पुत्री सुकान्ता इसकी पत्नी तथा शान्तिमती पुत्री थी । मपु० ६३.९१-९४ (५) विजयाध पर्वत की दक्षिण दिशा में स्थित रत्नपुर नगर के विद्याधरों के स्वामी रत्नरथ और रानी चन्द्रानना का तीसरा पुत्र । हरिवेग और मनोवेग का यह छोटा भाई और मनोरमा बहिन थी। युद्ध में पराजित होने पर अपनी बहिन मनोरमा इसे लक्ष्मण के साथ विवाहनी पड़ी थी । पपु० ९३.१-५६ वायुवेगा-विजयाध पर्वत पर द्यु तिलक नगर के राजा विद्याधर चन्द्राभ और रानी सुभद्रा की पुत्री। इसका विवाह रथनपुर के राजा विद्याघर ज्वलनजटी से हुआ था । अर्ककीर्ति इसका पुत्र और स्वयंप्रभा पुत्री थी। मपु० ६२.३६-३७, ४१, पापु० ४.११-१३, वीवच. ३.७१-७५ वायुशर्मा-वृषभदेव के दसवें गणधर । हपु० १२.५७ वायवावर्त-वायुकुमार जाति का एक भवनवासी देव । पूर्वभव में यह अयोध्या में विंध्य धनवान का भैसा था। यह तीव्र रोग हो जाने से नगर के बीच मरा। अकाम-निर्जरा पूर्वक मरण होने से वह देव हुआ। इस पर्याय में वह अश्व चिह्न से चिह्नित था। वायुकुमार Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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