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________________ ३५६ : जैन पुराणको वाक्यालंकार-वानरवंश का व्यवहार किया जाता है । इसका अपर नाम भाषा-समिति है। पपु० १४.१०८, हपु० २.१२३ दे० भाषा-समिति वाक्यालंकार-कौतुकमंगल नगर के राजा वैश्रवण का एक दूत । कुंभकर्ण द्वारा इसके राज्य से रल, वस्त्र और कन्याएँ आदि अपने नगर ले जाने पर इसने कुम्भकर्ण की इस प्रवृत्ति पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए सुमाली के पास इसी दूत के द्वारा समाचार भिजवाया था। पपु० ८.१६१-१७७ वागलि-आगामी उन्नीसवें तीर्थंकर का जीव । मपु० ७६.४७४ वागीश्वर-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. २०९ वाग्देवी-सरस्वती देवी । मपु० २.८६, ८८ वाग्मी-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७९ वाग्वलि-माता-पिता-सेवायज्ञ का संचालक । यह पिप्पलाद का शिष्य था। बकरे की पर्याय में मरते समय इसे चारुदत्त ने पंच नमस्कार मंत्र दिया था जिसके प्रभाव से मरकर यह सौधर्म स्वर्ग में उत्तम देव हुआ। हपु० २१.१४६-१५१ वाग्विाड्-एक ऋद्धि । इसके प्रभाव से वाणी के साथ बाहर निकल वायु भी सर्वरोगहरा हो जाती है । मपु० २.७१ वाचस्पति-भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३९, २५.१७९ विजिष्णु-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३५ वाटवान-भरतेश के भाइयों द्वारा त्यक्त भरतक्षेत्र के उत्तर आर्यखण्ड में स्थित देशों में एक देश । तीर्थकर महावीर विहार करते हुए यहाँ आये थे । इसका अपर नाम वाडवान था। हपु० ३.६, ११. परस्पर मिले हुए अनेक वर्णोवाला है । ये तीनों दण्डाकार लंबे, घनीभूत, ऊपर नीचे तथा चारों ओर लोक में स्थित है। अधोलोक में ये बीस-बीस हजार योजन और ऊर्वलोक में कुछ कम एक योजन विस्तारवाले है। ऊवलोक में जब ये दण्डाकार नहीं रह जाते तब क्रमशः सात, पांच और चार योजन विस्तारवाले रह जाते हैं। मध्यलोक के पास इनका विस्तार पाँच, चार और तीन योजन रह जाता है और पांचवें स्वर्ग के अन्त में ये क्रमशः सात, पाँच और चार योजन विस्तृत हो जाते हैं। मोक्षस्थल के समीप तो ये क्रमशः पांच, चार और तीन योजन विस्तृत रह जाते हैं । लोक के ऊपर घनोदधि वातवलय इससे आधा (एक कोस) और तनुवातवलय इससे कुछ कम पन्द्रह से पचहत्तर धनुष प्रमाण विस्तृत है। हपु० ४.३३ ४१ वातवल्कल-दिगम्बर मुनि । मपु० २.१८, २१.२१२ वातवेग-राजा धृतराष्ट्र तथा रानी गान्धारी का सड़सठवां पुत्र । पापु०८.२०१ वातायन-राम का पक्षधर एक विद्याधर । यह रावण की बहुरूपिणो विद्या-सिद्धि को भंग करने के लिए लंका गया था। मपु० ७०.१६ वातसल्य-साधर्मी जनों के प्रति प्रेम-भाव । यह सम्यग्दर्शन का एक अंग तथा सोलहकारण भावनाओं में एक भावना है । मपु० ६३.३२०, ३३०, वीवच० ६.६९ वावित्रांग-वाद्य-यन्त्रों को प्रदान करनेवाले कल्पवृक्ष । ये भोगभूमि में होते हैं । मपु० ९.३६, ४० वादिसिंह-एक आचार्य । आचार्य जिनसेन ने इनका नामस्मरण आचार्य पात्रकेसरी के बाद किया है। ये कवि और टीकाकार थे। मपु० १.५४ वादी-(१) सिद्धान्तों के प्रतिष्ठापक मुनि । वृषभदेव की सभा में ऐसे मुनियों का एक संघ था । हपु० १२.७१, ७७, ५९.१३० (२) स्वर-प्रयोग के चार भेदों में प्रथम भेद । वसुदेव इसे जानते थे। हपु० १९.१५४ वाधगोष्ठी-मनोरंजन के विविध साधनों में एक साधन-वादकों को सभा । इसमें वादक वाद्य-संगीत के द्वारा श्रोताओं का मनोरंजन करते है । वृषभदेव के समय से ही ऐसी गोष्ठियाँ होती रही है। मपु० १२.१८८, १४.१९२ वानर-विद्याधर । ये वानर की आकृति से चित्रित छत्र धारण करने से वानर कहलाते थे । पपु० ६.२१४ वानरवंश-वानर-चिह्नांकित ध्वजाओं को धारण करनेवाले विद्याधर राजाओं का वंश । इसका आरम्भ किष्कुपुर के विद्याधर राजा अमरप्रभ से हुआ । इस वंश में निन्नलिखित विद्याधर राजा प्रसिद्ध हुएराजा अतीन्द्र, श्रोकंठ, वज्रकंठ, वज्रप्रभ, इन्द्रमत, मेरु, मन्दर, समीरणगति, रविप्रभ, अमरप्रभ, कपिकेतु, प्रतिबल, गगनानन्द, खेचरानन्द और गिरिनन्दन । तीर्थङ्कर मुनिसुव्रत के तीर्थ में इस वंश में महोदधि राजा हुआ। इसके पश्चात् प्रतिचन्द्र, वाण-भरतक्षेत्र का एक देश । यहाँ के घोड़े प्रसिद्ध थे । दिग्विजय के समय भरतेश को यहाँ के घोड़े भेंट में दिये गये थे। मपु० ३०.१०७ वाणिज्य-तीर्थकर वृषभदेव द्वारा बताये गये आजीविका के षटकर्मों में पाँचवाँ कर्म । व्यापार द्वारा आजीविका करना वाणिज्य कर्म कहलाता है । मपु० १६.१७९-१८१, हपु० ९.३५ वाणीकोडा-क्रीडा का एकभेद । इसमें नाना प्रकार के सुभाषित आदि कहकर मनोविनोद किया जाता है । पपु० २४.६७-६८ वातकुमार-वायुकुमार जाति के देव । ये तीर्थङ्करों के दीक्षा-कल्याणक में शीतल और सुगन्धित वायु का प्रसार करते हैं । वीवच० १२.४९ वातपृष्ठ-भरतक्षेत्र का एक पर्वत । दिग्विजय के समय भरतेश यहाँ ससैन्य आये थे । मपु० २९.६९ वातरशन-(१) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०४ (२) दिगम्बर मुनि । मपु० २.६४ वातवलय-लोक को सब ओर से घेरकर । स्थत वायु के वलय । ये तीन होते है-घनोदधि, घनवात और तनुवात । इनमें घनोदधि गोमूत्र के वर्ण समान, धनवात मूगवर्ण के समान और तनुवात Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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