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________________ वारवधू-वासवन्त ३५८ : : जैन पुराणकोश देवों का राजा और श्रेयस्करपुर का स्वामी था। यह रसातल में रहता था। स्वच्छन्दता से अपनी क्रियाएँ करता था । इसने अवधिज्ञान से अपने पूर्वभव को जान लिया था। अयोध्या के लोगों ने उसकी तनिक भी चिन्ता न की थी यह भी उसे याद हो आया था। अतः वैर-वश अयोध्या में इसने अनेक रोग उत्पन्न करनेवाली वायु चलाई थी। इसका विशल्या के स्नान-जल से क्षणभर में नाश हा गया था । पपु० ६४.१०१-१११ मारवध विवाह के समय मंगलगीत गानेवाली वारांगनाए। मपु० ७.२४३-२४४ वाराणसी-काशी-देश की प्रसिद्ध नगरी। तीर्थकर सुपार्श्वनाथ, पार्श्व नाथ और बलभद्र पद्म की यह जन्मभूमि है । मपु० ४३.१२१-१२४, ५३.२४, ६६.७६-७७, ७३.७४-९२, पपु० २०.५९, ९८.५०, हपु० १८.११८, २१.१३१, ३३.५८ वाराहग्रोव-विद्याधर अमितगति की दूसरी रानी मनोरमा का छोटा पुत्र । यह सिंहयश का अनुज था। इसका पिता इसे युवराज पद देकर दीक्षित हो गया था । हपु० २१.११८-१२२ वाराही–एक विद्या । यह दशानन को प्राप्त थी । पपु० ७.३३०, ३३२ वारिषेण-श्रेणिक का एक पुत्र । पपु० २.१४५-१४६, हपु० २.१३९, पापु० २.११ वारिषेणा-(१) एक दिक्कुमारी देवी । हपु० ५.२२७ (२) सेठ कुबेरप्रिय की पुत्री । राजा गुणपाल ने अपने पुत्र वसुपाल का इससे विवाह किया था। मपु० ४६.३३१-३३२ वारुण-एक अस्त्र। राम और लक्ष्मण को यह एक देव से प्राप्त हुआ था । पपु० ६०.१३८, हपु० २५.४७, ५२.५२ वारुणी-(१) विजयाध पर्वत सम्बन्धी उत्तरश्रेणी की दूसरी नगरी । मपु० १९.७८,८७ (२) भरतक्षेत्र के कौशल देश में वर्षकि अपर नाम वृद्ध ग्राम के मृगायण ब्राह्मण और उसकी स्त्री मधुरा की पुत्री। इसका पिता मरकर साकेत नगर का दिव्यबल अपर नाम अति बल राजा हुआ था। सुमति उसकी रानी थी। यह मरकर उसकी हिरण्यवती पुत्री हुई जिसका विवाह पोदनपुर के राजा पूर्णचन्द्र से हुआ। पूर्वभव की इसकी मां मथुरा इस पर्याय में इसकी रामदत्ता नाम की पुत्री हुई। मपु० ५९.२०७-२११, हपु० २७.६१-६४ (३) एक विद्या । यह रावण को प्राप्त थी। पपु० ७.३२९-३३२ (४) काम्पिल्य नगर के धनद वैश्य की स्त्री। भूषण की यह जननी थी । पपु० ८५.८५-८६ वारुणीवर-(१) मध्यलोक के आरम्भिक सोलह द्वीपों में चौथा द्वीप । इसे इसी नाम का समुद्र घेरे हुए है । हपु० ५.६१४ (२) इस नाम के द्वीप को घेरे हुए वलयाकार एक समुद्र । हपु० ५.६१४ बासमूलिक-विद्याधरों की एक जाति । इस जाति के विद्याधरों के आभूषण सों के चिह्नों से युक्त होते हैं। ये वृक्षमूल नामक महा स्तम्भों का आश्रय लेकर बैठते हैं । हपु० २६.२२ वार्ता-भरतेश द्वारा ब्रतियों के लिए बताये गये छः कर्मों में दूसरा कर्म । विशद्ध आचरणपूर्वक खेती आदि करके आजीविका चलाना वार्ता कहलाती है । मपु० ३८.२४-४० वार्ष्णेय-जरासन्ध का सेनापति हिरण्यनाभ । यह कृष्ण के सेनापति ___ अनावृष्टि के द्वारा मारा गया था। हपु० ५१.४१ बाललीक-(१) यादवों का पक्षधर एक अर्धरथ नप । हपु० ५०.८४ (२) राजा वसुदेव और रानी जरा का पुत्र । हपु० ४८.६३ (३) वृषभदेव के समय में इन्द्र द्वारा निर्मित एक देश । यहाँ के राजा ने दिग्विजय के समय चक्रवर्ती भरतेश को घोड़े भेंट में देते हुए उनकी अधीनता स्वीकार की थी। मपु० १६.१५६, ३०.१०७ वासव-(१) राजा जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३८ (२) राजा वसु का तीसरा पुत्र । हपु० १७.५८ (३) जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश के अरिष्टपुर नगर का राजा । यह सुषेण का जनक था । मपु० ७१.४००-४०१ (४) जम्बूद्वीप का सीता नदी के उत्तरतट पर स्थित कच्छकावती देश में अरिष्टपुर नगर का नृप। इसको रानी सुमित्रा और उससे उत्पन्न वसुसेन पुत्र था । हपु० ६०.७५-७७ (५) कुरुवंशी एक नृप । यह वासुकि का पुत्र और वसु का पिता था । हपु० ४५.२६ (६) विद्याधर नमि का पुत्र । हपु० २२.१०८ (७) जम्बूद्वीप के पूर्वविदेहक्षेत्र में स्थित मंगलावती देश के विजयार्ध पर्वत का उत्तरथणी में गन्धर्वपुर का एक विद्याधर राजा। इसकी रानी प्रभावती तथा पुत्र महीधर था। जीवन के अन्त में यह अरिंजय मुनि के निकट मुक्तावली-तप करके मोक्ष गया। मपु० ७.२८-३१ (८) झूठ-बोलने में चतुर एक व्यक्ति । इसने श्रीमती द्वारा चित्रपट पर अंकित राजपुत्री को देखकर उसे स्वयं की स्त्री होना बताया था किन्तु पूछे गये प्रश्नों के उत्तर न दे सकने से इसे लज्जित होना पड़ा था। मपु० ७.११२-११५ (९) श्वेतविका नगरी का राजा। वसुन्धरा इसकी रानी तथा नन्दयशा पुत्री थी । मपु० ७१.२८३, हपु० ३३.१६१ (१०) विदर्भ देश के कुण्डलपुर नगर का राजा । श्रीमती इसकी रानी और रुक्मिणी पुत्री थी। मपु० ७१.३४१ (११) स्त्री वेषधारी एक नट । कुमार श्रीपाल ने देखते ही इसे पुरुष समझ लिया था। नट और नटी के इस भेद ज्ञान से निमित्तज्ञानियों के कथनानुसार श्रीपाल को चक्रवर्ती के रूप में पहिचाना गया था । मपु० ४७.९-१८ बासबकेतु-मिथिला नगरी का हरिवंशी राजा। विपुला इसकी रानी ___ और जनक इन्हीं दोनों के पुत्र थे । पपु० २१.५२-५४ वासवन्त-भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड का एक पर्वत । दिग्विजय के समय Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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