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________________ ३५० : जेन पुराणकोश वरुणप्रभ-वरुणलाभक्रिया पर्वत । विद्यु दंष्ट्र पूर्व वरवश संजयन्त मुनि को भद्रशाल वन से उठाकर यहाँ छोड़ गया था। हपु० २७,११-१४ (८) एक लोकपाल । यह नन्दन वन के गान्धर्व भवन में साढ़े तीन करोड़ देवांगनाओं के साथ क्रीडारत रहता है । हपु० ५.३१७३१८ (९) जिनेन्द्र का अभिषेक करनेवाला एक देव । पपु० ३.१८५ (१०) मेघरथ-विद्याधर और उसकी स्त्री वरुणा का पुत्र । इन्द्र ने इसे मेघपुर नगर की पश्चिम दिशा का लोकपाल बनाया था। पाश इसका शस्त्र था। रावण से विरोध हो जाने पर युद्ध में खरदूषण को इसी के सौ पुत्रों ने पकड़ा था । अन्त में यह युद्ध में रावण के द्वारा पकड़े जाने पर अपनी पुत्री सत्यवती रावण को देकर लौट आया था । पपु० ७.११०-१११, १६.३४-५४, पापु० १९.६१, ९८ (११) एक अस्त्र । इससे आग्नेय अस्त्र का निवारण किया जाता है। रावण ने इन्द्र लोकपाल के साथ हए युद्ध में इसका उपयोग किया था। पपु० १२.३२५, ७४.१०३ वरुणप्रभ-वारुणीवर द्वीप का रक्षक एक देव । हपु० ५.६४० वरुणा-(१) विद्याधर मेघरथ की स्त्री। लोकपाल वरुण इसका पुत्र था । पपु० ७.११० (२) पोदनपुर के निवासी विश्वभूति के पुत्र कमठ की स्त्री। यह मरकर मलय देश के सल्लकी वन में वज्रघोष हाथी की प्रिया हुई थी। मपु० ७३.६-१३ वरुणाभिख्य-राजा जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३८ वरेण्य-भरतेश एवं सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३७, २५.१३६ वर्चक-प्रथम नरक के खरभाग का पन्द्र हवाँ पटल । हपु० ४.५४ दे० खरभाग पर्चस्क-चौथी पृथिवी के चौथे प्रस्तार का चौथा इन्द्रक क बिल । इस __का विस्तार बारह लाख योजन है । हपु० ४.८२, २०६ वर्ण-(१) शारीर-स्वर का एक भेद । हपु० १९.१४८ (२) पदगत-गान्धर्व की एक विधि । हपु० १९.१४९ (३) वीणा का एक स्वर । हपु० १९.१४७ (४) कौशिक नगरी का राजा । इसकी रानी प्रभावती और पुत्री कुसुमकोमला थी । पाण्डवपुराण में इस राजा की रानी प्रभाकरी तथा पुत्री कमला बतायी गयी है। हपु० ४५.६१-६२, पापु० १३. ४-७ (५) एक जाति भेद । आरम्भ में मात्र एक मनुष्य जाति ही थी। कालान्तर में आजीविका भेद से वह चार भार भागों में विभाजित हुई-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । इनमें व्रतों से सुसंस्कृत मनुष्य ब्राह्मण, शस्त्र से आजीविका करनेवाले क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धनार्जन करनेवाले वैश्य और निम्नवृत्ति से आजीविका करनेवाले शूद्र कहे गये । चारों वर्गों में क्षत्रिय, वैश्य और शद्र इन तीन वर्णों को आदि तीर्थकर वृषभदेव ने सृजा था। उन्होंने शूद्र वर्ण को दो भागों में विभाजित किया था । जो वर्ण स्पृश्य माना गया था उसे इन्होंने "कारू" संज्ञा दी और जिस वर्ण के लोग अस्पृश्य माने गये उन्होंने "अकारू" कहा है तथा इनका प्रजा से दूर गांव के बाहर रहना बताया है । ब्राह्मण वर्ण इनके बाद सृजित हुआ। चक्रवर्ती भरतेश ने राजाओं को साक्षीपूर्वक अच्छे व्रत धारण करनेवाले उत्तम मनुष्यों को अच्छी शिक्षा देकर ब्राह्मण बनाया था। भरतेश ने दिग्विजय के पश्चात् परोपकार में अपना धन खर्च करने की बुद्धि से महामह पूजोत्सव किया था । सबतियों की परीक्षा के लिए उन्होंने इस उत्सव में सभी को निमन्त्रित किया। इधर अपने प्रांगण में अंकुर, फल और पुष्प बिछवा दिये । जो बिना सोचे-समझे अंकुरों को कुच. लते हुए राजमन्दिर में आये, भरतेश ने उन्हें पृथक कर दिया और जो अंकुरों पर पैर रखने के भय से लौटने लगे थे उन्हें दूसरे मार्ग से लाकर उन्होंने उनका सम्मान किया। उन्होंने उन्हें प्रतिमाओं के अनुसार यज्ञोपवीत से चिह्नित किया तथा पूजा, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप इन छः प्रकार की विशुद्धि-वृत्ति के कारण उन्हें द्विज संज्ञा दी । भरतेश का सम्मान पाकर इस वर्ण में अभिमान जागा। वे अपने को महान् समझकर पृथिवीतले पर याचना करते हुए विचरण करने लगे। अपने मंत्री से इनके भविष्य में भ्रष्टाचारी होने की संभावना सुनकर चक्रवर्ती भरतेश इन्हें मारने के लिए उद्यत हुए, किन्तु ये सब वृषभदेव की शरण में जाकर प्रार्थना करने लगे, जिससे वृषभदेव द्वारा रोके जाने पर भरतेश इनका वध नहीं कर सके। ऊपर जिन चार वर्णों का उल्लेख किया गया है उनमें जिनकी जाति और गोत्र आदि कर्म शुक्लध्यान के कारण हैं वे तीन वर्ण है-ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य । विदेहक्षेत्र में मोक्ष जाने के योग्य जाति का विच्छेद नहीं होता परन्तु भरतक्षेत्र तथा ऐरावतक्षेत्र में चतुर्थं काल में ही इन वर्गों की परम्परा चलती है अन्य कालों में नहीं । भोगभूमि में ऐसा कोई वर्ण भेद नहीं होता। वहाँ पुरुष स्त्री को आर्या तथा स्त्री पुरुष को आर्य कहती है । असि-मसि आदि छः कर्म भी वहाँ नहीं होते और न वहाँ सेव्य सेवक का सम्बन्ध होता है। अपने वर्ण अथवा नीचे के वर्णों की कन्या का ग्रहण करना वर्ण व्यवस्था में उचित माना गया है। मपु० १६.१८३-१८६, २४७, ३८.५-५०, ४०.२२१, ४२.३-४, १२-१३, ७४.४९१-४९५, पपु० ४.१११-११२, हपु० ७.१०२-१०३, ९.३९ वर्णलाभक्रिया-(१) गर्भान्वय की वेपन क्रियाओं में अठारहवीं क्रिया । इसमें विवाह के पश्चात् पिता को आज्ञा से धन-धान्य आदि सम्पदाएँ प्राप्त करके पृथक् मकान में रहने की व्यवस्था करनी होती है। पिता उपासकों के समक्ष अपने पुत्र को धन देकर कहता है कि "यह धन लेकर पृथक् मकान में रहो और जैसे मैंने धन और यज्ञ का अर्जन किया है वैसे ही धन और यश का अर्जन करो । इस प्रकार कहकर पिता पुत्र को इस क्रिया में नियुक्त करता है । इस क्रिया से पुत्र समर्थ और सदाचारी बना रहता है । मपु० ३८.५७, १३८-१४१ (२) एक दीक्षान्वय-क्रिया । भव्य पुरुष इसमें अपने सम्यक्त्वी होने का श्रावकों को विश्वास कराता है तथा भव्य श्रावक सम्यक्त्वो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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