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________________ वर्णाश्रम-बशिष्ठ जानकर उसे अपने समान मानकर सम्मान देते हैं। मपु० ३०.६१ ७१ वर्णाश्रम-वर्णों और आश्रमों की संस्था। वर्ण चार है-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । आश्रम भी चार है-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास । वर्ण का सम्बन्ध मानवों की जाति से और आश्रमों का सम्बन्ध व्यक्तियों के जीवन से है । हपु० ५४.३ वर्णोत्तमत्व-द्विजों के दस अधिकारों में तीसरा अधिकार-समस्त वर्णों में श्रेष्ठ होने की मान्यता । मपु० ४०.१७५, १८२ वर्तना-निश्चय काल का लक्षण । यह द्रव्यों को पर्यायों के बदलते ___ रहने में सहायक होती है । मपु० ३.२, ११, हपु० ७.१-२ बर्दल-छठी पृथिवी के द्वितीय प्रस्तार का इन्द्रक बिल । इसको चारों महादिशाओं में बारह और विदिशाओं में आठ श्रेणीबद्ध बिल हैं। हपु० ४.१४६ वकि-भरतक्षेत्र के दक्षिण देश का एक ग्राम । यहाँ का ब्राह्मण मगायण मरकर साकेत का राजा अतिबल और मगायण की पत्नी मथुरा मरकर रामदत्ता हुई थी। हपु० २७.६१-६४ वमान-(१) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४५ (२) रुचकवर पर्वत की उत्तर दिशा का एक कूट । यहाँ अंजन गिरि का दिग्गजेन्द्र देव रहता है । हपु० ५.७०३, दे० रुचकवर (३) नृत्य का एक भेद । मपु० १४.१३३ (४) कीर्ति तथा गुणों से वर्द्धमान होने के कारण इन्द्र द्वारा प्रदत्त तीर्थकर महावीर का एक नाम । वीवच० १.४, दे० महावीर वर्द्धमानक-चक्रवर्ती भरतेश की नृत्यशाला। मपु० ३७.१४९, पपु० ८३.७ वर्द्धमानपुर-भरतेश का एक नगर । यहाँ पद्मप्रभ तीर्थङ्कर की प्रथम पारणा हुई थी। इसो नगर के पार्श्वनाथ मन्दिर में हरिवंशपुराण की रचना आरम्भ की गयी थी । मपु० ५२.५३-५४, हपु० ६६.५३ बर्द्धमानपुराण-तीर्थकर महावीर के जीवनचरित से सम्बन्धित एक पुराण । हपु० १.४१ वर्मादेवी-वाराणसी के राजा अश्वसेन अपर नाम विश्वसेन की रानी। ये तीर्थकर पार्श्वनाथ की जननी थी। अपर नाम ब्राह्मी था। मपु० ७३.७५, पपु० २०.३६, ५९, दे० ब्राह्मो वर्य-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४२ वर्षर-राम के समय का भरतक्षेत्र एक देश । लवणांकुश ने यहाँ के राजा को पराजित किया था । पपु० १०१.८२-८६ वर्वरक-एक विद्याधर राजा। यह राम का पक्षधर था । राम-रावण युद्ध में व्याघ्ररथ पर सवार होकर इसने राम की ओर से युद्ध किया था । पपु० ५८.६ सर्वरो-एक नर्तकी। चिलातिका और इस नर्तकी को पाने के लिए राजा दमितारि ने वत्सकावती देश के राजा अपराजित के पास दूत भेजा था तथा नर्तकियों के न देने पर युद्ध करते हुए नारायण जैन पुराणकोश : ३५१ अनन्तवीर्य द्वारा मारा गया था। मपु० ६२.४२९-४८४ दे० अपराजित-१२ वर्ष-दो अयन प्रमित काल । इसका अपर नाम अब्द है। मपु० ३. ११६, हपु० ७.२२ । वर्षवृद्धिदिनोत्सव-जन्मदिन का उत्सव । इस अवसर पर मंगल-गीत, नृत्य और वादित्रों के आयोजन होते हैं। जिसका जन्मदिन मनाया जाता है उसे नये वस्त्र और आभूषणों से अलंकृत करके उच्चासन पर बैठाते हैं। उस पर चमर ढोरे जाते है । उसे परिजन और प्रियजन भेंट और गुरुजन आशीर्वाद देते थे। मपु० ५.१-११ वर्षीयान्-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४३ बलाहक-(१) एक पर्वत । यह राजगृही के पाँच पर्वतों में चौथा पर्वत है। इसका आकार डोरी सहित धनुष के समान है । पपु० ८.२४, हपु० ४.५५ दे० राजगृह (२) कृष्ण के सेनापति अनावृष्टि के शंख का नाम । हपु० ५१. २०-२१ (३) विजयार्घ पर्वत की उत्तरश्रेणी का अट्ठावनवाँ नगर । हपु० २२.९१ वलिविन्यास-रंगावलि-विन्यास-रत्नचूर्ण से रंग-बिरंगे चौक पूरना । मपु० १२.१७८ वल्कल-वृक्षों की छाल । तापस और जटाधारी साधु वस्त्र के रूप में इसका उपयोग करते थे। तीर्थङ्कर वृषभदेव के साथ दीक्षित कच्छ और महाकच्छ राजाओं ने वृषभदेव के समान निर्दोष वृत्ति धारण करने में असमर्थ हो जाने पर वल्कल पहिनना आरम्भ कर दिया था। मपु० १.७ वल्गु-सौधर्म और ऐशान स्वर्गों का चौथा पटल। हपु० ६.४४ दे० सौधर्म वल्गुप्रभ-एक विमान । कुबेर इस विमान का स्वामी है। हपु० ५. ३२७ वल्मीक-सर्प-वामी । तपस्यारत बाहुबली के चरणों के पास सों ने वामियाँ बना ली थीं । पपु० ४.७६ वल्लरी-गन्धमादन-पर्वत के पवर्तक भील की स्त्री। यह कृष्ण को पटरानी सत्यभामा के पूर्वभव का जीव थी। हपु० ६०.१६ वशकारिणी-एक विद्या। यह रावण को प्राप्त थी। पपु० ७.३३१ ३३२ वशित्व-चक्रवर्ती भरतेश को प्राप्त आठ ऋद्धियों में एक ऋद्धि । मपु० ३८.१९३ दे० अणिमा वशिष्ठ-कंस के पूर्वभव का जीव-गंगा और गंधावती नदियों के संगम पर स्थित जठरकौशिक तापस-बस्ती का प्रमुख तापस । पंचाग्नि तपतपते देखकर गुणभद्र और वीरभद्र चारण ऋद्धिधारी मुनियों ने इसे उसका तप अज्ञान तप बताया था। मुनियों से ऐसा सुनकर यह पहले तो कुपित हुआ किन्तु मुनियों द्वारा जटाओं में उत्पन्न लीख, जुआ, मृत मछलियाँ तथा जलती हुई अग्नि में छटपटानेवाले कीड़े दिखाये Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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