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________________ चरवा - रुवण वरबा - विदर्भ देश की एक नदी । राजा कुणिम ने इसी नदी के किनारे कुण्डिन नगर बसाया था। हपु० १७.२३ वर - ( १ ) एक मुनि । राजा सुमुख और वनमाला ने इन्हें आहार देकर पुण्यार्जन किया था । इन्हीं मुनिराज के चरणस्पर्श से वज्रमुष्टि की प्रिया मंगी विष रहित हुई थी । भरतक्षेत्र के मगध देश में स्थित शाल्मलिण् ग्राम के निवासी जयदेव और देविल्स की पुत्री पद्मदेवी ने इन्हीं से अज्ञातफल न खाने का नियम लिया था । कुबेरमित्र भी इन्हीं से तप धारण कर ब्रह्मलोक के अन्त में लौकान्तिक देव हुआ था । मपु० ४७.७३-७५, ७१.४४६-४४८, हपु० १५.६-१२, ३३. ११०-११३, ६०.१०८-११० (२) एक चारण ऋद्धिधारी मुनि । सुभानु ने अपने अन्य भाइयों के साथ इन्हीं से दीक्षा ली थी और जीवन्धर भी इनसे ही व्रत धारण कर व्रती हुए थे । मपु० ६२.७३, ७१.२४३, ७५.६७४-६७५ वरधर्मा - एक गणिनी । कलिंग के राजा अतिवीर्य द्वारा भरत पर आक्रमण किये जाने के समय राम और लक्ष्मण सीता को इन्हीं के पास छोड़कर नट के वेष में भरत की सहायता करने गये थे । पपु० ३७.८६-३० वरप्रद - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१३ वरवंश - - राजा धृतराष्ट्र और गांधारी का सत्रहवाँ पुत्र । पापु० ८. १९५ बरसेन - (१) राजा नन्दिषेण और रानी अनन्तमती का पुत्र । यह मणिकुण्डल देव का जीव था । मपु० १०.१५० (२) विदेहक्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा विमलसेन का पुत्र पिता की आज्ञा से यह श्रीपालकुमार को उसके बन्धु वर्ग के समीप ले जा रहा था । विमलपुर नगर के पास श्रीपाल को अकेला छोड़कर यह जल लेने गया । इधर सुखावती विद्याधरी ने श्रीपाल को कन्या का रूप दे दिया था । अतः यह श्रीपाल को इष्ट स्थान नहीं ले जा सका । मपु० ४७. ११४-११७ (३) भरतक्षेत्र के चक्रपुर नगर का राजा । इसकी दो रानियाँ थीं- लक्ष्मीमती और वैजयन्ती। रानी लक्ष्मीमती से नारायण पुण्डरीक तथा वैजयन्ती रानी से बलभद्र नन्दिषेण हुए थे । मपु० ६५.१७४१७७ (४) विजयार्ध पर्वत की अलका नगरी के राजा महासेन और रानी सुन्दरी का कनिष्ठ पुत्र । यह उग्रसेन का छोटा भाई था । वसुन्धरा इसको बहिन थी । मपु० ७६, २६२-२६३, २६५ (५) जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा दृढरथ और रानी सुमति का पुत्र । मपु० ६३. १४२-१४८, पापु० ५.५३-५८ 1 (६) विदेहक्षेत्र में स्थित पाटली ग्राम के वैश्य नागदत्त और उसकी पत्नी सुमति का पुत्र । इसके नन्द, नन्दिमित्र और नन्दिषेण तीन बड़े भाई और जयसेन नाम का एक छोटा भाई था । मदनकान्ता और श्रीकान्ता इसकी ये दो बहनें भी थीं। मपु० ६.१२६-१३० वरवीर - वृषभदेव के पुत्र और भरतेश के छोटे भाई । ये चरम शरीरी Jain Education International जैन पुराणकोश : ३४९ थे। इनका अपर नाम जयसेन था । भरतेश द्वारा राज्य पर अत्रिकार किये जाने से इन्होंने राज्य त्याग कर अपने पिता से दीक्षा ले ली थी । ये भरतेश के मुक्ति प्राप्त करने के पश्चात् मुक्त हुए। ये सातवें पूर्वभव में लोलुप हलवाई थे। छठे पूर्वभव में नकुल हुए। पाँचवें पूर्वभव में उत्तरकुरु में भद्रपरिणामी आर्य हुए। चौथे पूर्वभव में ऐशान स्वर्ग में ऋद्धिधारी देव, तीसरे पूर्वभव में राजा प्रभंजन के प्रशान्तमदन नामक पुत्र, दूसरे पूर्वभव में अच्युत स्वर्ग में देव और प्रथम पूर्वभव में अहमिन्द्र हुए थे। मपु० ८.२३४, २४१, ९.९०, १८७, १०.१५२, १७२, ११.१६०, १६.३०४, ३४.१२६, ४७. ३७६, ३९९ वरांगचरित - आचार्य जटासिंहनन्दी द्वारा रचित एक काव्य । हपु० १.३५ वराट - एक अर्धरथ राजा । यह कृष्ण और जरासन्ध के युद्ध में कृष्ण का पक्षधर था । हपु० ५०.८३ वराह - ( १ ) एक पर्वत । प्रद्युम्न को मारने के लिए कालसंवर के पुत्र उसे इस पर्वत की गुफा में लाये थे । प्रद्युम्न ने यहाँ के इस नाम के देव युद्ध किया था। युद्ध मेंउसे पराजित करने पर उससे विजयघोष शंख तथा महाजाल ये दो वस्तुएँ यहीं प्राप्त हुई थीं । मपु० ७२. १०८-११० (२) इस नाम के पर्वत का निवासी एक देव। यह प्रद्य ुम्न से पराजित हुआ था । मपु० ७२.१०८ १०९ (२) या पर्वत की उत्तरगी का समय नगर पु० २२.८७ ( ४ ) चारुदत्त का मित्र । हपु० २१.१३ वराहक - वसुदेव का अनन्य भक्त । यह वसुदेव के साथ कृष्ण के कार्य से समुद्रविजय से मिला था ० ५१.१-४ वरिष्ठ समवसरण के तीसरे कोट में स्फटिक मणियों से बने चार खण्डवाले दक्षिण गोपुर के आठ नामों में चौथा नाम । हपु० ५७.५८ वरिष्ठधी — सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १२२ वरुण - ( १ ) जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३९ (२) वृषभदेव के सातवें गणधर । हपु० १२.६५ (३) वारुणीवर - द्वीप का रक्षक देव । हपु० ५.६४० (४) एक निमित्तज्ञ । इसने कंस को उसका हन्ता उत्पन्न हो चुकने की बात बतायी थी । मपु० ७०.४१२, हपु० ३५.३७ (५) एक मुनि । चम्पानगरी के सोमदत्त, सोमिल और सोमभूति तीनों भाई सोमभूति की स्त्री नागश्री के मुनि को विष मिश्रित आहार देने से विरक्त होकर इन्हीं से दीक्षित हुए थे। पु० ७२.२३५. हपु० ६४.४-१२, पापु० २३.१०८-१०९ (६) समवसरण के तीसरे कोट के चार गौपुरों में पश्चिमी गोपुर के आठ नामों में सातवाँ नाम । हपु० ५७.५९ (७) भरतक्षेत्र में विजयार्ध के दक्षिण भाग के समीप स्थित एक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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