SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्योयोग-बखयोध बैन पुराणकोश : ३४१ स्त्रीकथा आदि चारों विकथाओं से विरक्त रहना होता है। मपु० वखकम्बु-मृणालकुण्ड नगर के राजा विजयसेन और रानी रलचला २०.१६१, पापु० ९.८९ का पुत्र । इसकी रानी हेमवती और पुत्र शम्भु था। पपु० १०६. वचोयोग-योग के तोन भेदों में दूसरा भेद । वचन के निमित्त से आत्म- १३३-१३४ प्रदेशों में होनेवाला संचार वचोयोग कहलाता है । यह सत्यवचनयोग, वनकर्ण-(१) दशांगपुर का राजा । इसने उज्जयिनी के राजा सिंहोदर असत्यवचनयोग, उभयवचनयोग, अनुभयवचनयोग के भेद से चार की अधीनता स्वीकार कर ली थी। यह सम्यग्दृष्टि होने से जिनेन्द्र प्रकार का होता है । मपु० ६२.३०९-३१० और निर्ग्रन्थ मुनियों को छोड़कर किसी अन्य को नमस्कार नहीं करता वज-(१) एक समरथ नृप । कृष्ण और जरासन्ध के युद्ध में यह यादवों था। अपनी इस प्रतिज्ञा के कारण राजा सिंहोदर को नमन करने से का पक्षधर था। हपु० ५०.८१-८२ बचने के लिए इसने एक मुनिसुव्रत तीर्थंकर की प्रतिमा से अंकित (२) नौ अनुदिश विमानों में तीसरा विमान । हपु० ६.६३ मुद्रिका अपने अंगूठे में पहिन रखी थी। जब सिंहोदर को नमस्कार (३) विद्याधर नमि का वंशज । यह राजा वजायुध का पुत्र और करना होता तब यह अंगूठे को सामने रखकर अंगूठे में धारण की हुई राजा सुवज्र का पिता था । पपु० ५.१६-२१, हपु० १३.२२ अंगूठी की प्रतिमा को नमस्कार कर लेता था । किसी ने राजा सिंहोदर (४) सौधर्म और ऐशान स्वर्गों का पच्चीसौं पटल । हपु० ६.४७ से इसका यह रहस्य प्रकट कर किया। फलस्वरूप सिंहोदर ने इसे दे० सौधर्म मारने का विचार किया। उसने इसे अपने यहां बुलाया। सरल (५) कुण्डलगिरि की पूर्व दिशा का प्रथम कूट । यहाँ त्रिशिरस् देव परिणामी यह सिंहोदर के पास जा ही रहा था कि विद्युदंग नामक रहता है । हपु० ५.६९० एक पुरुष ने वध की आशंका प्रकट करते हुए वहाँ जाने के लिए इसे (६) सौमनस वन के चार भवनों में प्रथम भवन । यह पन्द्रह रोक दिया। इससे कुपित होकर सिंहोदर ने इसके नगर को आम योजन चौड़ा और पच्चीस योजन ऊँचा है। परिधि पैंतालीस योजन लगाकर उजाड़ दिया । वनवास के समय यहाँ आये राम-लक्ष्मण है। हपु०५.३१९ ने इसका पक्ष लेकर इसके शत्रु सिंहोदर को युद्ध में पराजित किया (७) तीर्थकर अभिनन्दननाथ के प्रथम गणधर । हपु० ६०.३४७ था। लक्ष्मण ने सिंहोदर से इसकी मित्रता भी करा दी थी। इसके (८) वृषभदेव के अड़सठवें गणधर । हपु० १२.६७ निवेदन पर ही सिंहोदर बन्धनमुक्त हुआ और उसने इसे आधा राज्य (९) इन्द्र का प्रसिद्ध एक अस्त्र । यह इतना मजबूत होता है कि देते हुए वह सब इसे लौटाया जो इसके यहाँ से ले गया था । लक्ष्मण पर्वत भी इसकी मार से चूर-चूर हो जाते हैं । मपु० १.४३, ३.१५८- के सहयोग से प्रसन्न होकर इसने उन्हें अपनी आठ पुत्रियाँ विवाही १६०, पपु० २.२४३-२४४, ७.२९, हपु० २.१० थीं। पपु० ३३.७४-७७, ११७-११८, १२८-१३९, १७७, १९५(१०) राजा अमर द्वारा बसाया गया एक नगर । हपु० १७.३३ १९८, २६२-२६३, ३०३-३१३ (११) पुण्डरीकिणी नगरी का एक वैश्य । इसकी स्त्री सुप्रभा और ___वचकाण्ड-भरततेश का एक धनुष । चक्रवर्ती ने इसी धनुष से स्व नाम पुत्री सुमति थी । मपु० ७१.३६६ से अंकित अमोघबाण चलाया था। अर्ककीर्ति के साथ युद्ध करते हुए (१२) दशानन का अनुयायी एक विद्याधर राजा। यह मय का जयकुमार ने भी इसका उपयोग किया था। मपु० ३२.८७, ३७. मंत्री था । पपु० ८.२६९-२७१ १६१, ४४.१३५, हपु० ११.५, पापु० ३.११८ वचककूट-मानुषोत्तर पर्वत की ऐशान दिशा का एक कूट । हपु० ५. वनखंडिक-भरतेश के छोटे भाइयों द्वारा त्यक्त देशों में भरतेश का मध्य आर्यखण्ड का एक देश । हपु० ११.७५ वचक्षण्ठ-(१) विजया की उत्तरश्रेणी में अलका नगरी के राजा वज्रघोष-(१) भरतक्षेत्र में स्थित हरिवर्ष देश के शीलनगर का राजा । मयूरग्रीव और रानी नीलांजना का पांचवां पुत्र । इसके चार बड़े इसको रानी सुप्रभा तथा पुत्री विद्युन्माला थी। पापु० ७.१२३भाई थे-अश्वग्रीव, नीलरथ, नीलकण्ठ और सुकण्ठ । मपु० ६२. १२४ (२) तीर्थकर पार्श्वनाथ का जीव-मलय देश के कुब्जक वन का एक (२) किष्कुपुर का राजा । यह वानरवंशी राजा श्रीकण्ठ का पुत्र हाथी । पूर्वभव में इसका नाम मरुभूति और इसके बड़े भाई का नाम था। चारुणी इसकी रानी थी। इसने वृद्धजनों से अपने पिता के कमठ था। दोनों पोदनपुर के विश्वभूति ब्राह्मण के पुत्र थे । मरुभूति पूर्वभव सुनकर पुत्र वचप्रभ के लिए राज्य सौंपकर जिन दीक्षा धारण की स्त्री वसुन्धरी के निमित्त से कमठ ने मरुभूति को मार डाला था। कर ली थी और इसके पश्चात् वचप्रभ भो पुत्र इन्द्रमत् को राज्य मरकर वह मलयदेश के सल्लकी वन में इस नाम का हाथी हुआ। सौंपकर मुनि हो गया था। पपु० ६.१५०-१६० । कमठ की पत्नी वरुणा मरकर हथिनी हुई। पूर्वभव के अपने नगर वञकपाट-हिमवत् पर्वत पर निर्मित भवन का एक द्वार । यह वजमय के राजा अरविन्द को मुनि अवस्था में देखकर प्रथम तो यह उन्हें था। इसकी ऊंचाई तथा चौड़ाई चालीस योजन है । मपु० ४.९६, मारने के लिए उद्यत हुआ किन्तु मुनि अरविन्द के वक्षस्थल पर हपु० ५.१४०-१४७ श्रीवत्स चिह्न को देखकर इसे पूर्वभव के सम्बन्ध दिखाई देने लगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy