SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४० : जैन पुराणकोश : लोहिताक्षमय-मेरु पर्वत की छः परिधियों में प्रथम परिधि। इसे पृथिवीकाय रूप कहा है। इसका विस्तार सोलह हजार पाँच सौ योजन है । हपु० ५.३०५-३०६ लोहतास्य-रुचकवर पर्वत के पश्चिम में विद्यमान आठ कटों में प्रथमकूट । यहाँ इला दिक्कुमारी देवी रहती है। हपु० ५.७१२ दे० रुचकवर लोहिकान्तिक-पाँचवें स्वर्ग के अन्त में रहनेवाले देव। ये तीर्थंकरों की वैराग्यबुद्धि में दृढ़ता लाने, उन्हे प्रबुद्ध करने तथा उनकी तपकल्याणकपूजा के लिए ब्रह्मलोक से आते हैं। ये ब्रह्मचारी होते है । देवों में श्रेष्ठ होते हैं । इनके शुभ लेश्याएं होती हैं। ये बड़ी-बड़ी ऋद्धियों से भी युक्त होते हैं । पूर्वभव में सम्पूर्ण श्रुतज्ञान का अभ्यास करने के कारण इनकी शुभ भावनाएं होती हैं। ये आठ प्रकार के होते हैंसारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याध और अरिस्ट । मपु० १७.४७-५०, पपु० ३.२६८-२६९, हपु० २.४९ । लोहित्यसमुद्र-भरतक्षेत्र का एक सरोवर । दिग्विजय के समय भरतेश की सेना यहाँ आयी थी। मपु २९.५१ व बंकापुर-भरतक्षेत्र की दक्षिण दिशा में स्थित एक प्राचीन नगर । राजा लोकादित्य ने इसका अपने पिता चेल्लकेत बंकेय के नाम पर निर्माण कराया था। उत्तरपुराण की समाप्ति इसी नगर के शान्तिनाथ जिनालय में शक संवत् ८२० में हुई थी। यह वर्तमान में धारवाड़ जिले में है । हपु० प्रशस्ति ३२-३६ वंग-जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र की पूर्व दिशा में स्थित इन्द्र द्वारा निर्मित एक देश । दिग्विजय के समय यहाँ के राजा ने हाथी भेंट में देकर भरतेश को नमस्कार किया था। तीर्थकर वृषभदेव, नेमिनाथ और महावीर विहार करते हुए यहाँ आये थे । तीर्थकर मल्लिनाथ यहाँ के राजा कुम्भ के घर जन्मे थे और इसी देश की मिथिला नगरी में विजय महाराज के घर तीर्थकर नमिनाथ का जन्म हुआ था। मपु० १६.१५२, २५.२८७-२८८, २९.३८, ६६.२०, ३४, ६९.१८-१९, ३१, पपु० ३७.२१, हपु० ५९.१११, पापु० १.१३२ बंगा-मध्य आर्यखण्ड की एक नदी। दिग्विजय के समय यहाँ भरतेश की सेना आयी थी। मपु० २९.८३ वंशधर-दण्डकवन का एक पर्वत । यह वंशस्थलद्युति नगर के निकट था। इसमें बाँस के वृक्ष थे। वनवास के समय राम, लक्ष्मण और सीता यहाँ आये थे। उन्होंने यहाँ सर्प और बिच्छुओं से घिरे हुए देशभूषण और कुलभूषण दो मुनिराजों की सेवा की थी। सर्प और बिच्छुओं को हटाकर उनके उन्होंने पैर धोये थे और उन पर लेप लगाया था। वन्दना करके उनकी पूजा की थी। इसी पर्वत पर उन मुनियों को केवलज्ञान प्रकटा था और इसी पर्वत पर क्रौंचरवा नदी के तट पर एक वंश की झाड़ी में बैठकर शम्बूक ने सूर्यहास खड्ग पाने के लिए साधना की थी। पपु० १.८४, ३९.९-११, ३९-४६, ४३.४४४८, ६१, ८२.१२-१३, ८५.१-३ लोहिताक्षमय-बचोगुप्ति वंशस्थलधुति-जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र का एक नगर । वंशधर पर्वत इसी नगर के पास है। इसका अपर नाम वंशस्थलपुर है । पपु० ३९.९ ११.४०.२ बंशा-शर्कराप्रभा दूसरी नरकभूमि का रूढ़ नाम । हपु० ४.४३, ४६ बंशाल-(१) विजयार्ध-उत्तरश्रेणी का आठवां नगर । हरिवंशपुराण के अनुसार यह उनसठवां नगर है तथा इसका अपर नाम वंशालय है। मपु० १९.७९, हपु० २२.९२ । (२) धरणेन्द्र को दिति देवी के द्वारा नमि, विनमि विद्याधरों को प्रदत्त आठ विद्या-निकायों में छठा विद्या-निकाय । हपु० २२.६० वंशालय-विजयाध पर्वत की उत्तरश्रेणी के आठ नगरों में उनसठवाँ नगर । हपु० २२.९२ दे० वंशाल वक-भरतक्षेत्र का एक अर्धरथ नृप । यह कृष्ण और जरासन्ध के बीच हुए युद्ध में कृष्ण का पक्षधर था । हपु० ५०.८४ वकुल-(१) राजा सत्यन्धर और रानी अनंगपताका का पुत्र । इसका लालन-पालन सेठ गन्धोत्कट ने किया था । जीवन्धर इसका भाई था। मपु० ७५.२५४-२५६ (२) तीर्थकर नमि का चैत्यवृक्ष । पपु० २०.५७ वक्ता-शास्त्रों का व्याख्याता । यह स्थिर बुद्धि, इन्द्रियजयी, सुन्दर, हितमितभाषी, गम्भीर, प्रतिभावान् सहिष्णु, दयालु, प्रेमी, निपुण, धीर-वीर, वस्तु-स्वरूप के कथन में कुशल और भाषाविद होता है। चारों प्रकार की कथाओं का श्रोताओं की योग्यतानुसार कथन करता है । मपु० १.१२६-१२७, पापु० १.४५-५१, वीवच० १.६३-७१ वक्रान्त-रत्नप्रभा पृथिवी के ग्यारहवें प्रस्तार का इन्द्रक बिल । हपु० ४.७७ दे० रत्नप्रभा वक्षारगिरि-विदेहक्षेत्र के अनादिनिधन सोलह पर्वत । इनमें चित्रकूट, पद्मकूट, नलिन और एकशैल ये चार पूर्वविदेह में नील पर्वत और सीता नदी के मध्य लम्बे स्थित हैं। त्रिकूट, वैश्रवण, अंजन और आत्मांजन ये चार पर्वत पूर्वविदेह में सीता नदी और निषध कुलाचल का स्पर्श करते हैं। श्रद्धावान्, विजयावान्, आशीविष और सुखावह ये चार पश्चिम विदेहक्षेत्र में सीतोदा नदी तथा निषध पर्वत का स्पर्श करते हैं और चन्द्रमाल, सूर्यमाल, नागमाल तथा मेघवाल ये चार पश्चिम विदेहक्षेत्र में नील और सीतोदा के मध्य स्थित हैं । इन समस्त पर्वतों की ऊँचाई नदी तट पर पांच सौ योजन और अन्यत्र चार सौ योजन है। प्रत्येक के शिखर पर चार-चार कूट है । कुलाचलों के समीपवर्ती कटों पर दिक्कुमारी देवियां रहती है। नदी के समीपवर्ती कूटों पर जिनेन्द्र के चैत्यालय है और बीच के कूटों पर व्यन्तर देवों के क्रीडागृह बने हुए हैं। मपु० ६३.२०१-२०५, हपु० ५.२२८ २३५ वचनयोग-दुष्प्रणिधान-सामायिक शिक्षाव्रत का दूसरा अतीचार-वचन की ___ अन्यथा प्रवृत्ति करना । हपु० ५८.१८० वचसामोश-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु २५.२१० बचोगुप्ति-अहिंसा व्रत की पाँच भावनाओं में दूसरी भावना। इसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy