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________________ ३४२ : जैन पुराणकोश बचचमर-वजवन्त इससे यह शान्त हो गया । मुनिराज ने इसे श्रावक के व्रत ग्रहण कराये । यह दूसरे हाथियों के द्वारा तोड़ी गयी डालियों और पत्तों को खाने लगा। पत्थरों पर गिरकर प्रासुक हुए जल को पीने लगा। यह प्रोषधोपवास के बाद पारणा करता था। एक दिन यह वेगवती नदी में पानी पीने गया । वहाँ कीचड़ में ऐसा फंसा कि निकलने का बहुत उद्यम करने पर भी नहीं निकल सका। कमठ का जीव इसी नदी में कुक्कुट सर्प हुआ था। उसने पूर्व वैरवश इसे काटा, जिससे यह समाधिपूर्वक मरणकर सहस्रार स्वर्ग में देव हुआ था। मपु० ७३. ६-२४ वजचमर-तीर्थकर पद्मप्रभ के प्रथम गणधर । इनका अपर नाम वज- चामर था । मपु० ५२.५८, हपु० ६०.३४७ वनचाप-भरतक्षेत्र में हरिवर्ष देश के वस्वालय नगर का राजा । सुभा इसकी रानी थी। दन्तपुर नगर के वीरदत्त वैश्य की स्त्री वनमाला वज्रपात से मरकर इसकी विद्युन्माला पुत्री हुई थी। मपु० ७०. ६४-७७ बच्चचामर-तीर्थकर पद्मप्रभ के प्रथम गणधर । मपु० ५२.५८ दे० वजचमर बचचूड-विद्याधर-वंश के राजा त्रिचूड का पुत्र । यह भूरिचड का पिता था । पपु० ५.५३ वनजंघ-(१) तीर्थङ्कर वृषभदेव के सातवें पूर्वभव का जीव । यह जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश के उत्पलखेटक नगर के राजा वज्रबाहु और रानी वसुन्धरा का पुत्र था। वज़ के समान जाँध होने से इसका यह नाम रखा गया था। विदेहक्षेत्र में पुण्डरीकिणी नगरी के राजा वज्रदन्त और रानी लक्ष्मीमती की श्रीमती कन्या को इसने विवाहा था। इसके पिता इसे राज्य देकर यमधर मुनि के समीप पाँच सौ राजाओं के साथ दीक्षित हो गये थे। इसके पिता के साथ इसके अट्ठानवें पुत्र भी दोक्षित हुए तथा तप कर ये सभी मोक्ष गये। इसने और इसकी पत्नी श्रीमती ने वन में दमधर और सागरसेन मुनियों को आहार कराकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे। एक दिन शयनागार में सुगन्धित धूप के धुएं से यह और इसकी पत्नी दोनों की श्वास रुंध गयी और मध्यरात्रि में दोनों भर गये । पात्रदान के प्रभाव से यह उत्तरकुरु भोगभूमि में उत्पन्न हुआ। मपु० ६.२६२९, ५८-६०, ७.५७-५९, २४९, ८. १६७-१७३, ९.२६-२७, ३३, हपु० ९.५८-५९ (२) विद्याधर नमि का वंशज । यह चन्द्ररथ का पुत्र और वनसेन का पिता था । पपु० ५.१७, हपु० १३.२१ (३) पुण्डरीकपुर नगर के राजा द्विरदवाह और रानी सुबन्धु का पुत्र । यह इन्द्रवंश में उत्पन्न हुआ था। परित्यक्ता सीता को इसने धर्म की बड़ी बहिन माना था । यह सीता को एक अलंकृत पालकी में बैठाकर और सैनिक चारों ओर रखकर अपने नगर ले गया था। सीता के अनंगलवण और मदनांकुश दोनों पुत्रों का जन्म तथा उनकी शिक्षा इसी के घर हुई थी। लक्ष्मी इसकी रानी थी। इस रानी से इसकी शशिचूला आदि बत्तीस कन्याएं हुई थीं। इन सब पुत्रियों को इसने अनंगलवण को देने का निश्चय किया था। यह मदनांकुश के लिए पृथिवीपुर के राजा पृथु की पुत्री चाहता था किन्तु राजा पृथु कुल दोष के कारण अपनी कन्या मदनांकुश को नहीं देना चाहता था। इस विरोध के परिणाम स्वरूप राजा पृथु को युद्ध करना पड़ा। युद्ध में पृथु पराजित हुआ और उसने सादर अपनी पुत्री कनकमाला मदनांकुश को दी । राम ने सम्मान करते हुए इसे भामण्डल के समान माना था । पपु० ९८.९६-९७, ९९. १-४, १००. १७-२१, ४७-४८ १०१.१-९०.१२३.६९ वज्रजातु-विद्याधर वंश के राजा वज्रपाणि का पुत्र और बजवान् का पिता। इसका अपर नाम वज्रभानु था। पपु० ५.१९, हपु० १३.२३ वचतुण्डा-चक्रवर्ती भरतेश की एक शक्ति । यह शक्ति तीर्थकर एवं चक्रवर्ती अरनाथ के पास भी थी । मपु० ३७.१६३, पापु० ७.२१ वज्ञवंड-एक अस्त्र । यह उल्का के आकार का होता है । दशानन ने इसका प्रयोग वैश्रवण पर किया था। उसका कवच इससे चूर-चूर कर डाला था। मपु० ८.२३८ बनवंष्ट-(१) विद्याधर वंश के राजा वज्रसेन का पुत्र । यह वजध्वज का पिता था। इसने राम की सहायता की थी। पपु० ५.१७-१८, ५४.३४-३६, हपु० १३.२२, २७.१२१ (२) राजा बसुदेव और रानी बालचन्द्रा का पुत्र अमितप्रभ का बड़ा भाई था । हपु० ४८.६५ (३) एक विद्याधर । विद्युत्प्रभा इसकी स्त्री थी। मृगशृंग तापस विद्याधर के रूप में जन्म लेने का निदान करने के कारण मरकर इस विद्याधर का विद्य दंष्ट्र पुत्र हुआ था। हपु० २७.१२०-१२१ वज्रवत्त-एक मुनि । राजा रत्नायुध ने अपने मेघनिनाद हाथी के पानी न पीने का कारण इन्हीं मुनि से पूछा था और इन्होंने बताते हुए कहा था कि पूर्वभव में यह हाथी भरतक्षेत्र के चित्रकारपुर नगर के मंत्री का पुत्र विचित्रमती था। मुनि अवस्था में उसने एक वेश्या को देखा और लुभाकर उसे पाने का निश्चय किया। मुनि पद से च्युत होकर उसने राजा के यहाँ खाना बनाया और राजा को प्रसन्न करके वेश्या प्राप्त कर ली। मरकर वह नरक गया और अब इस पर्याय में उत्पन्न हुआ है। मुनि को देखकर इसे जातिस्मरण हा है । यह आत्मनिन्दा करता हुआ शान्त है । राजा रत्नायुध और हाथी मेघनिनाद ने यह सुनकर इनसे श्रावक के व्रत धारण किये थे । इनका अपर नाम वज्रदन्त था । मपु० ५९.२४८-२७१, हपु० २७. ९५-१०६ - वनदन्त-विदेहक्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा यशोधर और रानी वसुन्धरा का पुत्र । इसकी रानी लक्ष्मीवती तथा पुत्री श्रीमती थी। पिता को केवलज्ञान तथा इनकी आयुधशाला में चक्र का प्रकट होना ये दो कार्य एक साथ हुए थे। यह चक्रवर्ती था। इसके चौदह रत्न और नौ निधियाँ प्रकट हुई थीं । अपनी पुत्री श्रीमती का विवाह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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