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________________ लोकाम-लोहिताशकूट जैन पुराणकोश : ३३९ काल, पुद्गल और जीव ये पाँच द्रव्य पाये जाते हैं। हपु० ७.७, वीवच० १६.१३२ लोकाक्ष-रावण के पाँच मन्त्रियों में चौथा मन्त्री । अन्य मन्त्री थे-मय, उग्र, शुक और सारण । पपु० ७३.१२ लोकाक्षनगर-भरतक्षेत्र का एक नगर । लवणांकुश और मदनांकुश दोनों भाई दिग्विजय के समय यहाँ आये थे। उन्होंने यहाँ के राजा कुबेरकान को पराजित किया था। वे दोनों कुमार यहाँ से लम्पाक देश गये थे । पपु० १०१.७०-७३ । लोकाख्यान-चार प्रकार के आख्यानों में प्रथम आख्यान । इसमें लोक व्युत्पत्ति, उसको प्रत्येक दिशा तथा उसके अन्तरालों की लम्बाई- चौड़ाई आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन होता है। मपु० ४.४-७ लोकाग्रवास-लोक के शिखर पर स्थित अष्टम प्राग्भार भूमि । यहाँ मुक्त जीव रहते हैं । यह "लोकाग्रवासिने नमो नमः" इस पीठिका मंत्र से प्रकट होता है । मपु० ४०.१९, ४२.१०७ लोकाध्यक्ष-सीधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७८ लोकानुप्रेक्षा-बारह भावनाओं में दसवीं भावना। इसमें लोक की स्थिति, विस्तार, वहाँ के निवासियों के सुख-दुःख, तथा इसके अनादि अनिधन अकृत्रिम आदि स्वरूप का बार-बार चिन्तन किया जाता है। पापु० २५.१०८-११० वीवच० ११.८८-११२ लोकालोकप्रकाशक-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०६ लोकेश-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२९१ लोकोत्तर-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१२ लोकोत्सावन-एक विद्यास्त्र । विद्याधर चण्डवेग ने अनेक विद्यास्त्रों के साथ यह विद्यास्त्र भी वसुदेव को दिया था। हपु० २५.४७-५० लोच-मुनियों का एक मूलगुण-सिर और दाढ़ी के केशों को उखाड़ना । हपु० २.१२८ लोभ-चार कषायों में चौथो कषाय । इससे धन-सम्पत्ति पाने की तीव्र इच्छा बनी रहती है। इससे जोव संसार में भ्रमता है । पपु० १४.११० लोभत्याग-सत्यव्रत की पांच भावनाओं में दूसरी भावना। इसमें लोभ भावना। मनोम का त्याग करना होता है। जो ऐसा नहीं करते वे नरक जाते हैं। इसके लिए संतोषवृत्ति अपेक्षित होती है। मपु० २०.१६२, ३६.१२९, ७०.१२९ लोमांस-वीणा को तांत का एक दोष । वसुदेव इसे जानते थे। मपु० ७०.२७१ लोल-(१) विद्याधरों का राजा । राम के पक्ष का यह एक योद्धा था। पपु० ५८.६-७ (२) दूसरी नरकभूमि वंशा के नवें प्रस्तार का नौवाँ इन्द्रक बिल। इसकी चारों दिशाओं में एक सौ बारह और विदिशाओं में एक सौ आठ श्रेणीबद्ध बिल हैं । हपु० ४.७९, ११३ लोलप-राम का पक्षधर एक योद्धा। यह ससैन्य रणांगण में पहुँचा था। पपु० ५८.१३, १७ लोलुप-वंशा नरकभूमि के दसवें प्रस्तार का इन्द्रक बिल । इसकी चारों दिशाओं में एक सौ आठ और विदिशाओं में एक सौ चार श्रेणीबद्ध बिल हैं । हपु० ४.७९, ११४ लोलुभ-जयसेन के पूर्वभव का जीव-सुप्रतिष्ठ नगर का एक हलवाई। इसने लोभाकृष्ट होकर अपने पैर काट डाले थे । पुत्र को मार डाला था और स्वयं भी राजा के द्वारा मारा गया तथा मरकर यह नेवला हुआ। मपु०८.२३४-२४१, ४७.३७६ लोहजंघ-(१) एक यादव-कुमार । कृष्ण और जरासन्ध के युद्ध में जरासन्ध को शान्त करने की दृष्टि से समुद्रविजय ने साम उपाय का आवलम्बन लेकर दूत भेजने का मंत्रियों से परामर्श किया था और इस कुमार को दूत बनाकर जरासन्ध के पास भेजा था। यह चतुर, क्रूर और नीतिज्ञ था । जरासन्ध के साथ सन्धि करने यह ससैन्य गया था। पूर्व मालव देश के एक वन में इसने तिलकानन्द और नन्दन मासोपवासी दो मुनिराजों को आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे। इसके समझाने से जरासन्ध ने छः माह तक के लिए सन्धि कर ली थी । इसके इस प्रयत्न से यादव एक वर्ष तक शान्ति से रहे। हप. ५०.५५-६४ (२) वनराज भील का मित्र । यह और इसका साथी श्रीषेण दोनों ससैन्य हेमाभनगर पहुँचे । यहाँ सुरंगमार्ग से राजकुमारी श्रीचन्द्रा के महल में गये और उसे लेकर वनराज की ओर बढ़े । इन्होंने श्रीचन्द्रा के भाइयों से युद्ध किया और उन्हें पराजित कर श्रीचन्द्रा बनराज को सौंप दी थी। मपु० ७५.४८१-४९३ लोहवासिनी-भरतेश चक्रवर्ती की छुरी। यह दैदीप्यमान थी। इसकी __ मूठ रत्नजटित और चमकदार थी। मपु० ३७.१६५ लोहाचार्य-तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के पश्चात् पाँच सौ पैसठ वर्ष बाद हुए आचारांगधारी चार आचार्यों में चौथे आचार्य । सुभद्र, यशोभद्र और जयबाहु इनके पहले हुए थे। इनके अपर नाम लोह और लोहार्य थे । मपु० २.१४९, ७६.५२६ हपु० १.६५, वीवचः १.४१-५० लाहागललोहार्गल-विजया की दक्षिणश्रेणी का ग्यारहवाँ नगर । मपु० १९. ४१, १२ लोहित-पाण्डुकवन का एक भवन । इसकी चौड़ाई पन्द्रह योजन, ऊँचाई पच्चीस योजन और परिधि पैंतालीस योजन है। यहाँ सोम लोकपाल का निवास है । हपु० ५.३१६, ३२२ लोहितांक-रत्नप्रभा पृथिवी के खरभाग का चौथा पटल। हपु० ४.५२ लोहिताक्ष-सौधर्म और ऐशान युगल स्वर्गों का चौबीसवाँ पटल । हपु० ६.४७ दे० सौधर्म । लोहिताक्षकूट-(१) मानुषोत्तर पर्वत की दक्षिणदिशा के चार कूटों में __ दूसरा कूट । यहाँ नन्दोत्तर देव रहता है । हपु० ५.६०३ (२) गन्धमादन पर्वत के सात कूटों में पांचवाँ कूट । हपु० ५.२१८ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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