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________________ १४ : जैन पुराणकोश अपरराग-अध्वर अर्थात् प्रथम क्षण में हुए परिणामों का दूसरे क्षण में होना तथा की समाप्ति पर्यन्त इस लोक का विस्तार एक रज्जु और दूसरी रज्जु दूसरे क्षण में पूर्व परिणामों से भिन्न और परिणामों का होना । यही के सात भागों में छ: भाग हैं। तीसरी पृथिवी का विस्तार दो रज्जु क्रम आगे भी चलता रहता है। ऐसे परिणमन अप्रमत्तसंयत नाम के और एक रज्जु के सात भागों में पांच भाग प्रमाण, चौथी पृथिवी सातवें गुणस्थान में होते हैं । मपु० २०.२४३, २५०-२५२ तीन रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में चार भाग प्रमाण, अधरराग–अधर को रंजित करनेवाला रस । मपु० ४३.२४९ पाँचवीं पृथिवी चार रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में तीन भाग अधर्म-(१) जीव तथा पुद्गल की स्थिति में सहायक एक द्रव्य, अपर- प्रमाण, छठी पृथिवी पाँच रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में दो नाम अधर्मास्तिकाय । यह जीव और पुद्गल की स्थिति में वैसे ही भाग प्रमाण तथा सातवीं पृथिवो छः रज्जु और एक रज्जु के सात सहकारी होता है जैसे पथिक के ठहरने में वृक्ष की छाया । यह द्रव्य भागों में एक भाग प्रमाण है। इस प्रकार अधोलोक सात रज्जु उदासीन भाव से जीव और पुद्गल की स्थिति में सहायक तो होता प्रमाण है । मपु० ४.४०-४१, हपु० ४.७.२०, वीवच० १८.१२६ ये है किन्तु प्रेरक नहीं होता। मपु० २४.१३३,१३७, हपु० ४.३,७.२ पृथिवियाँ क्रमशः रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, वीवच० १६.१३० धमप्रभा, तमःप्रभा और महातमःप्रभा नाम से प्रसिद्ध है। धर्मा, (२) सुखोपलब्धि में बाधक और नरक का कारण–पाप । दया, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मधवी और माधवी ये इन पृथिवियों सत्य, क्षमा, शौच, वितृष्णा, ज्ञान, और वैराग्य, ये तो धर्म है, इनसे के क्रमशः अपरनाम हैं । ये पृथिवियाँ क्रमशः एक के नीचे एक स्थित विपरीत बातें अधर्म हैं । मपु० ५.१९,११४, १०.१५, पपु० ६.३०४ है। प्रथम पृथिवी के तीन भाग है-खर, पंक और अब्बहुल । इनमें अधर्मधक्-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२६ खरभाग सोलह हजार, पंकभाग चौरासी हजार और अब्बहुल भाग अधर्मारि-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३९ अस्सी हजार योजन मोटा है। दूसरी पृथिवी की मोटाई बत्तोस, अधर्मास्तिकाय-जीव और पुद्गल द्रव्य के ठहरने में सहायक एक द्रव्य । तीसरी पृथिवी की अट्ठाईम, चौथो पृथिवी को चौबीस, पाँचवों हपु० ४.३ दे० अधर्म पृथिवी की बीस, छठी पृथिवी को सोलह और सातवीं पृथि वो को अधिक-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७१ आठ हजार योजन है। हपु० ४.४३-४९,५७-५८ इन भूमियों में अधिकार-ग्रन्थ के अनुभाग । महापुराण में तिररेसठ महापुरुषों का उनचास पटल और उनमें चौरासी लाख बिल हैं। इन बिलों में वे वर्णन होने से तिरेसठ अधिकार है और पद्मपुराण में लोक-स्थिति, जीव रहते हैं, जिन्होंने पूर्वभव में महापाप किये होते है और जो वंश, वन-गमन, युद्ध, लवणांकुश की उत्पत्ति, भवान्तर निरूपण सप्त व्यसन-सेवी, महामिथ्यात्वी, कुमतों में आसक्त रहे हैं। यहाँ और राम का निर्वाण ये सात अधिकार हैं । मपु० २.१२५-१२६, जीवों को परस्पर लड़ाया जाता है, छेदा-भेदा जाता है, शूलो पर पपु० १.४३-४४ चढ़ाया जाता है और भूख-प्यास तथा शीत और उष्णता जनित विविध दुःख दिये जाते हैं। वीवच० ११.८८-९३ खण्ड-खण्ड किये अधिगमज सम्यक्त्व सम्यक्त्व का दूसरा भेद। यह उपदेश से अथवा जाने पर भी यहाँ के जीवों के शरीर पारे के समान पुनः मिल जाते शास्त्राध्ययन से होता है । हपु० ५८.२० दे० सम्यक्त्व है, उनका मरण नहीं होता। वे सदैव शारीरिक एवं मानसिक दुःख अधिगुरु-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७१ सहते हैं, खारा-गर्म-तीक्ष्ण वैतरणी का जल पाते हैं । दुर्गन्धित मिट्टी अधिज्योति-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.२४ का आहार करते हैं। उन्हें निमिष मात्र भो सुख नहीं मिलता । यहाँ अधित्यका-पर्वत का ऊपरी भाग । हपु० २.३३ के जीव अशुभ परिणामी होते हैं। उनके नपुंसक लिंग और हुण्डकअधिदेव-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१९२ संस्थान होता है । हपु० ४.३६३-३६८ अधिदेवता-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०२५.१९२ ।। अधोव्यतिक्रम-दिग्वत के पाँच अतिचारों में प्रथम अतिचार-लोभ के अधिप-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१५७ वशीभूत होकर नीचे जाने को ली हुई सोमा का उल्लंघन करना । अधिराज-अनेक राजाओं का स्वामी । मपु० १६.२६२ हपु० ५८.१७७ अधिष्ठान-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०२५.२०३ अध्यात्म-निद्वन्द्ववृति-विकल्परहित शुद्धात्मारक चितवृति । मपु० अधीतो-कथा कहनेवाले का एक लक्षण-अनेक विद्याओं का अध्येता । मपु० १.१२९ अध्यात्मगम्य-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुन वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. अधोक्षज-कृष्ण का अपरनाम । मपु० ७१.३५१-३५३, हपु० ३५.१९ १८८ दे० कृष्ण अध्यात्मशास्त्र-आत्या सम्बन्धी शास्त्र । मपु० ३८.११८ अधोवेयक-नौ ग्रैवेयक विमानों में नीचे के तीन विमान । मपु० अध्वर-(१) पूजनविधि का एक नाम । इसके याग, यज्ञ, ऋतु, पूजा, ९.९३ सपर्या, इज्या, मख और मह ये पर्यायवाची नाम है । मपु० ६७.१९३ अधोलोक-लोक के तीन भेदों में तीसरा भेद । यह वेत्रासन आकार (२) भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४१ __ में सात रज्जु प्रमाण है । चित्रा पृथिवी के अधिभाग से दूसरी पृथिवी (३) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१६६ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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