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________________ अध्वर्यु जनत अध्वर्यु- सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम मपु० २५.१६६ अध्वा - द्वीप सागरों की एक दिशा का विस्तार । इसे दुगुना करने पर रज्जु का प्रमाण निकलता है। हपु० ७.५१-५२ अभय अग्रायणीय पूर्व की चौदह वस्तुओं में चतुर्थ वस्तु हृपु० १०.७७-८००ायगीयपूर्व अन व सम्प्रणधि - अग्रायणीयपूर्व की चौदह वस्तुओं में छठी वस्तु । ० १०. ७०-८० दे०पूर्व अनक्ष - भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३५ अनक्षर - भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३५ अनगार - (१) तीर्थकर शीतलनाथ के इक्यासी गणधरों में इस नाम के मुख्य गणधर । मपु० ५६.५०, हपु० ६०.३४७ (२) अपरिग्रही, निःस्पृही सामान्य मुनि । मपु० २१.२२०, ३८.७, ६पु० ३.६२ अनगारधर्म-मुनियों के धर्म ये धर्म पांच महाव्रत, पाँच समितियाँ और तीन गुप्तियाँ । इन धर्मों के पालन से पूर्व सम्यग्दर्शन आवश्यक है। पृ० ४,४८, ६.२९३। ऐसे मुनि मोह का नया करते हैं और रत्नत्रय को प्राप्त करके स्वर्ग या मोक्ष पाते हैं, कुगतियों में नहीं जन्मते । पपु० ४.४९-५१, २९२ अनघ - ( १ ) वानरवंशी एक नृप । पपु० ६०.५-६ (२) समवसरण के तीसरे कोट के दक्षिण दिशा संबंधी द्वार के आठ नामों में एक नाम । हपु० ५७.५८ (३) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १७२, १८६ अनङ्गकीडा स्वारसन्तोष व्रत का एक अतिचार ह० ५८.१७४-१७५ दे० ब्रह्मचर्य अनङ्गकुसुम-रावण का एक योद्धा । पपु० ५७. ५४-५६ अनङ्गपताका- राजा सत्यंधर की छोटी रानी । यह बकुल की जननी थी । इसने धर्म का स्वरूप समझकर श्रावक के व्रत धारण किये थे । मपु० ७५.२५४-२५५ दे० सत्यंधर अनङ्गपुष्पा -- चन्द्रनखा की पुत्री रावण द्वारा यह हनुमान को प्रदान की गयी थी । पपु० १९.१०१-१०२ अनङ्गलवण - राम और सीता का पुत्र । यह पुण्डरीक नगर के राजा वज्रजंघ के यहाँ श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन उत्पन्न हुआ था । मदनांकुश इसका भाई था। दोनों भाई युगल रूप में हुए थे । सिद्धार्थ ने इसे शस्त्र और शास्त्र विद्या सिखायी थी, इसका संक्षिप्त नाम लवण था । पपु० १०० १७-६९ दोनों भाइयों ने राजा पृथु युद्ध किया था तथा उसे पराजित कर अन्यान्य देशों प्राप्त की थी। पपु० १०१.२६ ९०, नारद से राम त्यागने का वृत्तान्त जानकर इसने राम से भी युद्ध युद्ध में उन्हें रथ रहित किया था। पपु० १०२.२ १८२, इन दोनों भाइयों का परिचय प्राप्त करके विलाप करते हुए राम और - लक्ष्मण इनसे मिले थे । पपु० १०३.४३-५८, कांचनरथ की पुत्री - मन्दाकिनी ने स्वयंवर में अनङ्गलवण का वरण किया था। पपु० पर भी विजय द्वारा सीता के किया था तथा सिद्धार्थ से Jain Education International जैन पुराणको १५ ११०.१, १८, लक्ष्मण के मरण के सन्देश से दुखी होकर संसार की स्थिति पर विचार करते हुए पुनः गर्भवास न करना पड़े इस से यह अमृतस्वर नामक मुनिराज से दीक्षित हो गया था । पपु० ११५.५४-५९ राम ने इसके पुत्र अनन्तलवण को ही राजपद सौंपा था । पपु० ११९.१-२ अनङ्गदारा विदेहक्षेत्र स्थित पुण्डरीक देश के चक्रधर नगर के राजा चक्रवर्ती त्रिभुवनानन्द की पुत्री इस राजा का सामन्त पुनर्वसु इसे हर ले गया था किन्तु राजा के सेवकों द्वारा विरोध किये जाने पर सामन्त को इसे आकाश में ही छोड़ देना पड़ा था। आकाश से यह पर्ण लघ्वी विद्या से श्वापद अटवी में नीचे आयी थी। इसने प्रासुक आहार की पारणा करते हुए तीन हजार वर्ष तक बाह्य तप किया था । पश्चात् चारों प्रकार के आहार का परित्याग कर सल्लेखना धारण की थी तथा सौ हाथ भूमि से बाहर न जाने का नियम लिया था । छः रात्रि बीत चुकने के बाद इसका पिता इसके पास आया था। उसने इसे अजगर द्वारा खाये जाते देखकर बचाना चाहा था किन्तु अजगर की पीड़ा का ध्यान रखते हुए इसने पिता को अजगर से अपने को मुक्त कराने की अनुमति नहीं दी वो और इस उपसर्ग को सहन करते हुए किये गये तप के प्रभाव से मरकर यह ईशान स्वर्ग में देव हुई तथा वहाँ से चयकर राजा द्रौणमेघ की विशल्या नाम की पुत्री हुई थी । पपु० ६४.५०-५५, ८२-९२, ९६-९९ अनङ्गसुन्दरी - रावण की एक रानी । पपु० ७७.१४ अनणु - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७६ अनत्यय - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७१ अनन्त - (१) भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४. ३४, २५.६९ (२) एक मुनि का नाम । धातकी खण्ड के पूर्व भाग में स्थित तिलकनगर के राजा अभय घोष ने इनसे दीक्षा ली थी । मपु० ६३. १७३ - (३) एक गणधर का नाम । घातकीखण्ड के देश में नागपुर नगर का नृप नरदेव इन्हीं से मपु० ६८.३-७ सारसमुच्चय नामक संयमी हुआ था । (४) गणना का एक भेद । मपु० ३.३ (५) चौदहवें तीर्थंकर । अवसर्पिणी काल के दुःषमा- सुषमा नामक चतुर्थ काल में उत्पन्न शलाका पुरुष । मपु० २.१३१, पपु० ५.२१५, हपु० १.१६, वीवच० १८. १०१-१०६ तीसरे पूर्वभव में ये धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व मेह से उत्तर की ओर विद्यमान अरिष्टपुर नामक नगर के पद्मरथ नाम के नृप थे । पुत्र घनरथ को राज्य देकर इन्होंने तीर्थंकर प्रकृति का वध किया। सल्लेखना पूर्वक शरीर छोड़कर दूसरे पूर्वभव में ये पुष्पोत्तर विमान में इन्द्र हुए थे । मपु० ६०.२-१२ इस स्वयं से युत हो ये जम्बूद्वीप के दक्षिण भरतक्षेत्र की अयोध्या नगरी में इक्ष्वाकु वंश में काश्यप गोत्र के राजा सिंहसेन की रानी जयश्यामा के कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा की प्रभातवेला में सोलह स्वप्न For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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