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________________ - अतिवेगा- अधः प्रवृत्तिकरण विवाह इन्होंने अलकानगरी के अधिपति दर्शक विद्याधर से किया था । मपु० ५९.२२८-२२९, २३९-२४२ राजा का अपर नाम प्रियंकर और रानी का अपर नाम अतिवेगा था। हपु० २७.९१-९२ अतिवेगा—- विजयार्ध में दक्षिणश्रेणी के पृथिवीतिलकपुर अपर नाम धरणीतिलकनगर के राजा प्रियंकर अपर नाम अतिवेग की रानी । इसका अपरनाम प्रियकारिणी था । मपु० ५९.२३९-२४२, हपु० २७.९१-९२ अतिशय अर्हन्त के विशेष वैभव की प्रतीक चौतीस बातें । अपर नाम अतिशय । मपु० ६. १४४, ५४.२३१ इनमें जो दस अतिशय जन्म के समय होते है शरीर की स्वेद रहिता, शारीरिक-निर्मला, वेत रुचि समचतुर संस्थान, गुगन्धित शरीर, अननाशक्ति, शरीर का उत्तम लक्षणों से युक्त होना, अनुपम रूप, हितमित-प्रिय वचन और उत्तम संहनन । पपु० २.८९-९० हपु० ३.१०-११ केवलज्ञान के समय होने वाले दस अतिशय ये हैं-विहार के समय दो सौ योजन तक सुमिया का होना, निनिशेष दृष्टि, गख और केशों का वृद्धि रहित होना, कवलाहार का न रहना, वृद्धावस्था का न होना, शारीरिक छाया का न होना, एक मुँह होने पर भी चार मुंह दिखायी देना, उपसर्ग का अभाव, प्राणिपीडा का अभाव और आकाश गमन । पपु० २.९१-९३ हपु० ३.१२-१५ चौदह अतिशय देवकृत होते हैं । वे ये हैं-जीवों में पारस्परिक मैत्रीभाव, मन्द सुगन्धित वायु का बहना, सभी ऋतुओं के फूल और फलों का एक साथ फूलना - फलना, दर्पण के समान पृथिवी का निर्मल होना, एक योजन पर्यन्त पवन द्वारा भूमि का निष्कंटक किया जाना, स्तनितकुमार देवों द्वारा सुगंधित मेघदृष्टि का होना, पते समय चरणों के नीचे कमल-सृष्टि का होना, पृथिवी की धन-धान्य आदि से पूर्णता रहना, आकाश का निर्मल होना, दिशाओं का धूल और धुएँ आदि से निर्मल होना, धर्मचक्र का आगे-आगे चलना, अर्द्धमागधी भाषा, आकाश में द्रव्यों का होना और आठ मंगल द्रव्यों का रहना । पपु० २.९४ १०१ हपु० ३.१६-३०, वीवच० १९.५६-७८ - अतिशयमति - अयोध्या के राजा दशरथ का मंत्री । मपु० ६७.१८५ अतीतानागत- अप्रायणीयपूर्व की चीदह वस्तुओं में बारहवीं वस्तु । हपु० १०.७७-८० दे० अग्रायणीयपूर्व अतीन्द्र - ( १ ) मेघपुर नगर के विद्याधरों का स्वामी । इसकी स्त्री का नाम श्रीमती तथा पुत्र का नाम श्रीकण्ठ था । पपु० ६.२-५ (२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४८ अतीन्द्रिय -- सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४८ अतीन्द्रियार्थगुणसौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम मपु० २५.१४८ अतुल सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१४० - अतुलमालावर्त - इस नाम का एक शैल । जरासन्ध का पुत्र कालयवन यादवों के साथ सत्रह बार युद्ध करके इसी पर्वत पर मरा था । हपु० ३६.७०-७१ - अतुलार्थ - समवसरण भूमि में तीसरे कोट के उत्तर दिशावर्ती द्वार के आठ नामों में तीसरा नाम । हपु० ५७.५६, ६० दे० आस्थानमण्डल Jain Education International जैन पुराणकोश : १३ अतोरण - भविष्यकाल में होनेवाले चौदहवें तीर्थंकर का जीव । मपु० ७६.४७३ अत्रि - इस नाम का एक वल्कलधारी तापस । पपु० ४.१२६ अवण्ड्यता -द्विज का आठवाँ अधिकार । मपु० ४०.१९९-२०१ अदत्तादान - अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों में तीसरा महाव्रत स्वामी के द्वारा अदत्त वस्तुओं को ग्रहण करने का न तो विचार करना और न ग्रहण करना । पपु० ६.२८७, हपु० २.११९, ५८.१४० इस व्रत की स्थिरता के लिए पाँच भावनाएँ होती हैं - १. शून्यागारावास २. विमोचितावास २ परोपरोधाकरण ४.५. सर्माविसंवाद । हपु० ५८.१२० इस व्रत के अन्तर्गत ऐसी भी इतर पाँच भावनाएँ हैं जिनका सम्बन्ध मुनियों के आहार ग्रहण से है । वे ये हैं - १. मितग्रहण परिमित आहार लेना २. उचितग्रहण - तपश्चरण के योग्य आहार लेना ३ अभ्यनुज्ञातग्रहण- श्रावक की प्रार्थना पर आहार सेना ४ अन्यग्रहोऽन्यथा योग्यविधि से आहार लेना और ५. भक्तपान सन्तोष प्राप्त आहार में सन्तोष रखना । ऐसा व्रती रत्नमयी निधि का धारक होता है । मपु० २०.१६३, पपु० ३२.१५१ - अदन्तधावन - साधु का एक मूलगुण । मपु० १८.७१, ३६.१३४ अवर्शनी - दशासन को प्राप्त एक विद्या । पपु० ७.३२८-३३२ अदिति - ( १ ) विद्याधर मकरध्वज की भार्या, लोकपाल सोम की जननी । पपु० ७.१०८ (२) तप से भ्रष्ट हुए नमि और विनमि इन दोनों भाइयों ने ध्यानस्थ वृषभनाथ से राज्य की याचना की तब शासन की रक्षा करने में निपुण धरणेन्द्र के आदेश से उसके साथ आयी इस देवी ने उन दोनों को एक विद्याकोश तथा विद्याओं के ये आठ निकाय दिये थे— १. मनु २. मानव ३. कौशिक ४. गौरिक ५. गान्धार ६. भूमि - तुण्ड ७. मूलवीर्यक और ८. शंकुक । हपु० २२.५१-५८ अदेवमातृक- भगवान् ऋषभदेव के समय में इन्द्र द्वारा निर्मित वह देश जो नदियों द्वारा सींचा जाता है । मपु० १६.१५७ अद्गु - तीर्थंकर अजितनाथ के काल में हुए सगर चक्रवर्ती के साठ हजार पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र । किसी समय यह और इसके सभी भाई कैलाश पर्वत पर आठ पाद-स्थान बनाकर दण्डरत्न से भूमि खोद रहे थे । इससे कुपित होकर नागराज ने इन्हें भस्म कर दिया था । हपु० ११.२६-२९ अद्भुतवीर्य - सिद्ध के आठ गुणों में एक गुण । इस गुण के कारण सिद्धों को संसार के समस्त पदार्थों के जानने में कोई परिश्रम या खेद नहीं होता कोई पदार्थ प्रतिमातक भी नहीं होता । मपु० २०.२२२-२२३, २४.६२, ४२.९९० सिद्ध अद्वैतवाद - केवल ब्रह्म को सत्य माननेवाला एकान्तवादी दर्शन । मपु० २१.२५३ अधः प्रवृत्तिकरण - एक पारिणामिक प्रवृत्ति - अध-स्तन समयवर्ती परिणामों का उपरितन समयवर्ती परिणामों के साथ कदाचित् समानता रखना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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