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________________ मणिभासुरमतिवारचार (६) व्यन्तर देवों का एक इन्द्र । वीवच० १४.५९-६३ (७) एक यक्ष । इसने विन्ध्याचल पर्वत के शिवमन्दिर के द्वार खोलने के उपलक्ष्य में पाण्डव भीम को शत्रु का क्षय करनेवाली एक गदा दी थी । पापु० १४.२०३ २०६ मणिभासुर - विद्याधर वंश का एक राजा । यह मण्यंक का पुत्र और मणिस्पन्दन का पता था । पपु० ५.५१ मणिमती - विजयार्धं पर्वत पर स्थित स्थालक नगर के विद्याधर राजा अमितवेग की पुत्री। इसे विद्या- सिद्धि में संलग्न देखकर रावण कामासक्त हो गया था । उसने इसकी विद्या हर ली थी जिससे कुपित होकर इसने रावण वध का निदान किया था। इसी निदान के कारण यह आयु के अन्त में मन्दोदरी के गर्भ से उत्पन्न हुई थी । इस पर्याय में इसका नाम सीता था। मपु० ६८.१३-१७ मणिमध्यमा -- कण्ठ का आभूषण - एक हार । इसके मध्य में मणि लगा रहता था। सूत्र और एकावली इसके अपर नाम हैं । मपु० १६.५० मणिमाली - विद्याधर दण्ड का पुत्र । इसका पिता आर्तध्यान से मरकर इसके भण्डार में अजगर हुआ था। किसी निमित्तज्ञानी ने पिता को विषय-त्याग का उपदेश दिया था। अजगर ने उपदेश सुना और विषयों का त्याग किया। मरकर वह ऋद्धिधारी देव हुआ । इस देव ने आकर इसे एक हार उपहार में दिया । मपु० ५.११७- १३७ मणिव - जम्बूद्वीप सम्बन्धी विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी का इकतीसवाँ नगर । मपु० १९.८४, ८७, हपु० २२.८८ मणिसोपान - सोने की पाँच लड़ियों से युक्त रत्नजटित हार । मपु० १६. ६५-६६ मणिस्यन्दन - एक विद्याधर । यह मणिभासुर का पुत्र और मण्यास्य का पिता था । पपु० ५.५१ मणिहार-कंठ का आभूषण मणियों से निर्मित हार मपु० ५.११६ । १४. ११ एक विद्याधर यह मणिपीव का पुत्र और मगिमाथुर का पिता था । पपु० ५.५१ मण्यास्य - एक विद्याधर । यह मणिस्यन्दन का पुत्र और बिम्बोष्ठ का पिता था । पपु० ५५१ मतंगज - राजा वसुदेव और रानी नीलयशा का कनिष्ठ का अनुज । मपु० ४८.५७, ६५ मति - इहलौकिक तथा पारलौकिक पदार्थों के विषय में हित तथा अहित पुत्र Jain Education International और सिंह का ज्ञान । मपु० ३८.२७१, ४२.३१ मतिकान्त - राम का मंत्री । इसने विभीषण को राम के पास आने पर उसे रावण द्वारा छलपूर्वक भेजे जाने की आशंका प्रकट की थी । पपु० ५५.५२ - मतिज्ञान - पाँच प्रकार के ज्ञान में प्रथम ज्ञान । यह पाँच इन्द्रियों तथा मन की सहायता से प्रकट होता है । यद्यपि यह परोक्ष ज्ञान है परन्तु इन्द्रियों की अपेक्षा से उत्पन्न होने के कारण सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी कहलाता है । यह अन्तरंग कारण मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोप जैन पुराणकोश : २६९ से 7 शम की अपेक्षा रखता है। इसके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद हैं । यह ज्ञान पाँच इन्द्रियों और मन इन छः साधनों से होता है । अतः उक्त चारों भेदों में प्रत्येक के छः छः भेद कर देने से इसके चौबीस भेद हो जाते हैं। इन भेदों में शब्द, गन्ध, रस और स्पर्श व्यंजनाग्रह के चार भेद मिला देने अट्ठाईस मेद और इनमें अवग्रह आदि चार मूल भेद मिला देने से बत्तीस भेद हो जाते हैं। इस प्रकार इस ज्ञान के चौबीस, अट्ठाईस और बत्तीस ये तीन मूल भेद हैं। इनमें क्रम से बहू बहुविध क्षिप्र बनिःसूत अनुक्त ध्रुव इन छः का गुणा करने पर क्रमशः एक सौ चवालीस एक सो अड़सठ और एक सौ बानवे भेद हो जाते हैं । बहु आदि छः और इनके विपरीत एक आदि छः इन बारह भेदों का उक्त तीनों राशियों चौबीस, अट्ठाईस और बत्तीस में गुणा करने से इस ज्ञान के क्रमशः दो सौ अठासी सीन सौ छत्तीस और तीन सौ चौरासी भेद हो जाते हैं। मिथ्यादृष्टि जीवों को प्राप्त यह ज्ञान कुमतिज्ञान कहलाता है । यह ज्ञान पदार्थ - चिन्तन में सहायक तथा कोष्ठबुद्धि आदि ऋद्धियों का साधक भी होता है । मपु० ३६.१४२, १४६, हपु० १०. १४५१५१ मतिज्ञानावरण -- मतिज्ञान को रोकनेवाला कर्म । इसके उदय से जोव विकलांगी होते हैं । इस कर्म का उदय उन जीवों के होता है जो हिंसा आदि पाँच पापों में अपनी इछा से प्रवृत्त होते हैं। श्रीजिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट तत्त्वार्थं को उन्मत्त पुरुष के समान यद्वा तद्वा रूप से ग्रहण करते हैं और सच्चे तथा झूठे दोनों देव, शास्त्र, गुरु, धर्म, 'प्रतिमा आदि को समान मानते हैं। दूसरों को छल से ठगने से उद्यत जो पुरुष खोटी शिक्षा देते हैं और जो अज्ञानी पुरुष सद्-असद् विचार के बिना धर्म के लिए सच्चे और झूठे देव शास्त्र - गुरुओं की भक्ति - पूर्वक पूजा करते हैं वे इस कर्म के उदय से दुर्बुद्धि और अशुभ प्रवृत्ति के होते हैं । वीवच० १७.१११-११२, १२९-१३० मतिप्रिया - नैषिक ग्राम के राजा सूर्यदेव की रानी । इसने गिरि और गोभूति बटुकों को कपालों में भात से ढककर स्वर्ण दान में दिया था । पपु० ५५. ५७-५९ मतिवर - मतिसागर और श्रीमती का पुत्र यह उत्पलपुर के प वज्रजंघ का महामन्त्री था। इसने राजा वज्रजंघ और रानी श्रीमती के वियोग से शोक संतप्त होकर मुनि दृढ़धर्म से दीक्षा ले ली थो तथा तपश्चरण करते हुए मरकर यह अधोग्रैवेयक के सबसे नीचे विमान में देव हुआ था। मपु० ८.११६, २१५, ९.९१-९३ मतिवर्धन मुनि संघ के महातपस्वी एक आचार्य इनका धर्मोपदेश 1 सुनकर पद्मिनी नगरी का राजा विजयपर्वत मुनि हो गया था । पपु० ३९.९५-१२७ मतिवाकसार - मलय देश के राजा मेघरथ का सचिव, अपर नाम सत्यकीर्ति । इसने राजा के पूछने पर शास्त्रदान, अभयदान और अन्नदान इन तीन प्रकार के दानों में शास्त्रदान को श्रेष्ठ दान निरूपित किया था । मपु० ५६.६४-७३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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