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________________ २६८ : जैन पुराणकोश मण्डलेश्वर-मणिभद्र श्रेणिक के पुत्र अभयकुमार का जीव एक ब्राह्मण का पुत्र था। उसने तीर्थ समझकर यहाँ स्नान किया था। मपु०७४.४६५-४६६, ४७९ ४८८ मणिग्रीव-एक विद्याधर । यह चक्रध्वज का पुत्र और मण्यंक का पिता __ था । पपु० ५.५१ मणिचूल-(१) पर्यक गुफा का निवासी एक गन्धर्व देव । इसकी देवी का नाम रत्नचला था। पर्यक-गुफा में अंजना की रक्षा इसी देव ने की थी पपु० १७.२१३, २४२-२४९ (२) सौधर्म स्वर्ग का एक देव । यह पूर्वभव में राजा महाबल का स्वयंबुद्ध नामक मंत्री था। मपु० ९.१०७ (३) लक्ष्मण का जीव-एक देव । मपु० ६७.१५२ (४) विद्याधर विनमि का पुत्र । हपु० २२.१०४ (५) धातकीखण्ड द्वीप में भरतक्षेत्र सम्बन्धी विजयाध पर्वत की दक्षिणश्रेणी में नित्यालोक नगर के राजा चन्द्रचूल और रानी मनोहरी रानी का युगल रूप में उत्पन्न पुत्र । इसके साथ पुष्पचूल का जन्म हुआ था। मपु०७१.२४९-२५२, हपु० ३३.१३१-१३३ मणिचूलक-तेरहवें स्वर्ग के स्वस्तिक विमान का एक देव । मपु० ६२. ४१०-४११ मणिचूला-अयोध्या नगरी के राजा अरिंदम को पुत्री सुप्रबुद्धा का जीव सौधर्मेन्द्र की एक देवी । मपु० ७२.२५-३६ मणिनागदत्त-रतिकूल मुनि की गृहस्थावस्था का पिता । मपु० ४६.. मण्डलेश्वर अर्धचक्री से छोटा शासक । इसके आठ चमर ढोरे जाते हैं। इसके पास चक्रवर्ती का चौथाई वैभव होता है । मपु० २३.६० मण्डोदरी-कौशाम्बी नगरी की शौण्डकारिणी (मद्य बेचनेवाली) । मपु० ७०.३४७ दे० मंजोदरी मणि-(१) चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में एक अजीव रत्न । मपु० ३७. ८३-८५ (२) विदेहक्षेत्र के रत्नसंचयन नगर का अमात्य । इसकी गुणावली स्त्री और सामन्तवर्द्धन पुत्र था । पपु० १३.६२ (३) कुण्डलगिरि के पश्चिम दिशा सम्बन्धी चार कूटों में एक कूट । श्रीवक्षदेव इसी कूट पर रहता है । हपु० ५.६९३ मणिकांचन-वैताड्य पर्वत की एक गुहा । तापस सुमित्र और उसकी पत्नी सोमयशा के पुत्र को जृम्भक देव हरकर इसी गुहा में लाया था तथा कल्पवृक्षों से उत्पन्न दिव्य आहार से उसने उसका पालन किया था । इसी ने उसका नाम नारद रखा था । हपु० ४२.१४-१८ (२) विजया की उत्तरश्रेणी का छत्तीसवाँ नगर हपु २२.८९ (३) कुलाचल शिखरी का ग्यारहवाँ कूट । हपु० ५.१०७ (४) कुलाचल रुक्मी का आठवाँ कूट । हपु० ५.१०४ मणिकान्त-एक पर्वत । अनुराधा के पुत्र विराधित का यहीं जन्म हुआ था । पपु० ९.४०-४२ मणिकुण्डल-(१) विजयाध-पर्वत की दक्षिणश्रेणी में आदित्य नगर के राजा सुकुण्डली विद्याधर और उसकी रानी मित्रसेना का पुत्र । मपु० ६२.३६१-३६२ (२) मणियों से निर्मित कर्णाभूषण । वृषभदेव ने यह आभूषण धारण किया था । मपु० ९.१९०, १४.१०, ३३, १२४ मणिकुण्डली-(१) नन्द-विमान का वासी एक देव । यह मणिखचित मुकुट, केयूर और कुण्डलों से विभूषित था । मपु० ९.१९० (२) पुष्करवर-द्वीप के वीतशोक-नगर के राजा चक्रध्वज की रानी कनकमाला का जीव-एक राजा । मपु० ६२.३६३-३६९ मणिकेतु-जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह सम्बन्धी वत्सकावती देश में पृथिवीनगर के राजा जयसेन के साले महारुत का जीव-अच्युत स्वर्ग का देव । पूर्वभव का इसका बहनोई जयसेन भी संन्यासमरण करके इसी स्वर्ग में महाबल नाम का देव हुआ था। मणिकेतु और महाबल दोनों ने परस्पर पृथिवी पर प्रथम अवतरित होनेवाले को सम्बोध कर दीक्षा धारण कराने हेतु प्रेरणा देने की प्रतिज्ञा की थी । महाबल देव इसके पूर्व स्वर्ग से च्युत हुआ । पृथिवी पर महाबल का नाम सगर चक्रवर्ती रखा गया । स्वर्ग में की गयो प्रतिज्ञा के अनुसार इसने युक्तिपूर्वक सगर के पास जाकर उसे दोक्षा धारण करा दी थी। अन्त में इसने अपने द्वारा किये गये मायावी व्यवहार को सगर और उसके पुत्रों के समक्ष प्रकट करके उससे क्षमायाचना की थी। इस प्रकार यह अपना कार्य सिद्ध करके संतुष्ट होकर स्वर्ग लौट गया था। मपु० ४८.५८ ६९, ८२-१३६ मणिनांगा-गंगा नदी का तटवर्ती एक वैदिक तीर्थ । तीसरे पूर्वभव में मणिप्रभ-(१) विजयाध पर्वत को दक्षिणश्रेणी का छब्बीसवाँ नगर । हपु० २२.९६ (२) दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य) विदिशा में स्थित एक कूट। यह देवी रुचकाभा की निवासभूमि था । हपु० ५.७२३ (३) कुण्डलगिरि की पश्चिम दिशा में विद्यमान चार कूटों में एक कूट । यह स्वस्तिक देव की निवासभूमि था । हपु० ५.६९३ ।। मणिभद्र-(१) जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्र में विजया के नौ कूटों में छठा कूट । हपु० ५.२७ (२) ऐरावत क्षेत्र के मध्य स्थित विजयाध पर्वत के नौ कूटों में चौथा कूट । हपु० ५.११० (३) अयोध्या नगरी के सेठ समुद्रदत्त और उसकी पत्नी धारिणी का कनिष्ठ पुत्र तथा पूर्णभद्र का अनुज । ये दोनों भाई चिरकाल तक श्रावक के उत्तम व्रतों का पालन करके अन्त में सल्लेखनापूर्वक मरे और सौधर्म स्वर्ग में उत्तम देव हुए। वहाँ से चयकर ये मधु और कैटभ हुए । मपु० ७२.२५-२६, ३६-३७, हपु० ५.१५८-१५९, ४३. १४८-१४९ (४) वैश्रवण का पक्षधर एक योद्धा। पपु० ८.१९५ (५) रावण का पक्षधर का एक यक्ष । इसने अपने साथो यक्षेन्द्र पूर्णभद्र के साथ रहकर ध्यानस्थ रावण पर उपसर्ग करनेवाले वानरकुमारों का सामना किया था और रावण की रक्षा की थी। ह पु० ७०.६८-७८ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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