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________________ भगवती-भद्रबाहु जैन पुराणकोश : २५३ भगवती-(१) बहुरूपविधायिनी एक विद्या । युद्ध में रावण का एक अंग और तप से कर्मों को भस्म करके मोक्ष गये । पपु० २०.२३६-२३८, कटने पर इसी विद्या के प्रभाव से उसके दो नये अंग उत्पन्न हो जाते २४८ थे । पपु० ७५.२२-२५ (७) द्वारावती नगरी का नृप । इसकी दो रानियाँ थीं-सुभद्रा (२) लक्ष्मण की आठ महादेवियों में सातवीं महादेवी । यह सत्य और पृथिवी । बलभद्र धर्म और नारायण स्वयंभू इसी के पुत्र थे । कीर्ति की जननी थी । पपु० ९४.१८-२३, ३४ मपु० ५९.७१, ८६-८७ भगवान्–सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११२ (८) जम्बूद्वीप में ऐरावत क्षेत्र के रत्नपुर नगर का एक गाड़ीवान । यह धन्य गाड़ीवान का अग्रज था। किसी बैल के निमित्त से ये दोनों भगीरथ-(१) एक विद्याधर । निमितज्ञ ने राजा जरासन्ध की पुत्री एक-दूसरे का घात कर मर गये थे । मपु० ६३.१५७-१५८ केतुमती को पिशाच-बाधा दूर करनेवाले को राजगृह के राजा का घात करनेवाले का पिता बताया था। दैवयोग से वसुदेव ने केतुमती (९) कुलकर सन्मति के समयवर्ती सरल परिणामी आर्य पुरुष । मपु० ३.८३, ९३ के पिशाच का निग्रह कर केतुमती को स्वस्थ किया। निमितज्ञ के (१०) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. कथनानुसार इस घटना को देखनेवाले राजपुरुष वसुदेव को अपने २१३ राजा का हन्ता जानकर उसे मारने वनस्थान ले गये किन्तु इस भद्रक-(१) सुषमा-सुषमा काल के कोमल परिणामी पुरुष । मपु० ३. विद्याधर ने वध होने के पहले ही वसुदेव को उनसे छीन लिया तथा ४३, ७१ उसे लेकर वह आकाश में चला गया था। अन्त में वसुदेव को इसने (२) श्रावस्ती का एक शुभ परिणामी भैंसा । इसे यह नाम श्रावस्ती विजया पर्वत के गन्धसमृद्ध नगर में ले जाकर उसको अपनी दुहिता नगरी के एक सेठ कामदत्त से मिला था। यहाँ के राजकुमार मृगध्वज प्रभावती विवाह दी थी। हपु० ३०.४५-५५ के द्वारा पूर्वजन्म के वैरवश इसका एक पैर काट दिये जाने से यह (२) भगलि देश के राजा सिंहविक्रम की पुत्री विदर्भा और अठारहवें दिन मर गया था। हपु० २८.१४-२८ चक्रवर्ती सगर का पुत्र । नागेन्द्र की क्रोधाग्नि से इसके अन्य भाई भवकलश-राम का कोषाध्यक्ष । वनवास से पूर्व सीता ने इसे बुलाकर तो भस्म हो गये थे किन्तु भीम और यह वहाँ न रहने से दोनों बच प्रसूति पर्यन्त प्रतिदिन किमिच्छक दान देने का आदेश दिया था। गये थे। सगर इसे राज्य देकर दृढ़धर्मा केवली से दीक्षित हो गया पपु० ९६.१८ था। इसने भी वरदत्त को राज्य देकर कैलास पर्वत पर महामुनि भवकार-भरतक्षेत्र का एक देश । वृषभदेव और महावीर ने यहाँ विहार शिवगुप्त से दीक्षा ले ली थी और गंगातट पर प्रतिमा योग धारण किया था । हपु० ३.३ कर लिया था । अन्त में देह त्यागकर इसने निर्वाण प्राप्त किया । भद्रकाली-सोलह निकाय विद्याओं में विद्याधरों की एक विद्या । हपु. इन्द्र ने क्षीरसागर के जल से इसका अभिषेक किया था। अभिषेक २२.६६ का जल गंगा में जाकर मिल जाने से गंगा नदी तीर्थ मानी जाने भद्रकूट-रुचकवरगिरि के पश्चिमी आठ कूटों में आठवाँ कूट। यहाँ लगी। मपु० ४८.१२७-१२८, १३८-१४१, पपु० ५.२५२-२५३ - भद्रिका देवी रहती है । हपु० ५.७१४ भट्टारक-स्वामी अर्थ में व्यवहृत शब्द । मपु० २०.११, ६८.३९८ भवकृत-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१३ भवन्त-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१३ भबक्षीर-बलभद्र नन्दिमित्र और नारायण दत्त का गन्ध गज । इसी भन-(१) सूर्यवंश में हुए राजा सागर का पुत्र और राजा रवितेज का हाथी के कारण प्रतिनारायण विद्याधर बलीन्द्र इनके द्वारा मारा गया पिता। इसने सार सागर से भयभीत होकर निर्ग्रन्थ व्रत ले लिया था। मपु० ६६.१०६-१२० था । पपु० ५.६, ९ भद्रपुर-एक नगर । यह जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र के मलय देश में स्थित (२) सौधर्म और ऐशान युगल स्वर्गों का इक्कीसवाँ इन्द्रक । हपु० था । तीर्थङ्कर शीतलनाथ का जन्म इसी नगर में राजा दृढ़रथ के ६.४६, दे० सौधर्म यहाँ हुआ था। मपु० ५६.२३-२४, २९ हसु० १७.३० (३) नन्दीश्वर समुद्र के दो रक्षक देवों में प्रथम रक्षक देव । हपु० ___ भद्रबल-(१) वृषभदेव के उन्नीसवें गणधर । हपु० १२.६९ ५.६४५ (२) सीता के स्वयंवर में सम्मिलित एक नृप । पपु० २८.२१५ (४) भरतेश के भाइयों द्वारा त्यक्त देशों में भरतक्षेत्र के मध्य भद्रबाहु-(१) अन्तिम केवली जम्बूस्वामी के पश्चात् हुए पांच श्रुतका एक देश । हपु० ११.७५ केवलियों में पांचवें श्रुतकेवली । इनके पूर्व क्रमशः विष्णु, नन्दिमित्र, (५) राजा शंख का पुत्र और चेदिराट् के संस्थापक तथा शुक्तिमती अपराजित और गोवर्धन ये चार श्रु तकेवली हुए। ये महाभद्र, नगरी के निर्माता अभिचन्द्र का पिता । हपु० १७.३५-३६ महाबाहु और महातपस्वी थे। इन्होंने सम्पूर्ण श्रुत का ज्ञान प्राप्त (६) तीसरे बलभद्र । ये अनुत्तर विमान से चयकर सुवेषा स्त्री के किया था । मपु० २.१४१-१४२, ७६.५२०, हपु० १.६०-६१, पापु. गर्भ से उत्पन्न हुए थे। आयु के अन्त में ये संसार से उदासीन हुए १.१२ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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