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________________ २५२ : जैन पुराणकोश ब्रह्मलोक-भगली ब्रह्मलोक-पाँचवाँ स्वर्ग । यह सारस्वत आदि देवों की निवासभूमि ये मुक्तिमार्ग पर चलते हैं। द्विजों में ये मूर्धन्य होते है । मपु० ३८. है । मपु० ४८.३४ ७-४३, पपु० १०९.८०-८४, दे० द्विज ब्रह्मवित्-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०७ । ब्राह्मी-(१) तीर्थकर वृषभदेव और रानी यशस्वती की पुत्री। यह ब्रह्म विद्-ध्येय-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० शील और विनय से युक्त थी । इसने अपने पिता से सर्वप्रथम लिपि२४.४५ विद्या सीखी थी। यह भरत की छोटी बहिन थी। तीर्थकर वृषभदेव ब्रह्मशिरस्-अश्वग्रीव नामक शस्त्र को रोकने में समर्थ शस्त्र । कृष्ण- की दो रानियाँ थों । पहली रानी यशस्वती से यह और भरत आदि जरासन्ध युद्ध में कृष्ण ने इसका उपयोग किया था। मपु० ५२.५५ सौ पुत्र तथा दूसरी रानी सुनन्दा से सुन्दरी और बाहुबली हुए। ब्रह्मसंभव-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० इसने अपने पिता से दीक्षित होकर आर्यिकाओं में गणिनी पद प्राप्त २५.१३१ किया था। देवों ने भी इसकी पूजा की थी। सुन्दरी भी इसके साथ ब्रह्मसुत-सर्वज्ञ-कथित समस्त विद्याओं के ज्ञाता होने से गौतम गणधर दीक्षित हो गयी थी। सुलोचना ने इसी से दीक्षा ली थी। मपु० के लिए व्यवहृत नाम । मपु० २.६३ । १६.४-७, ९६-१०८, २४. १७५, ४७. २६८, पपु० २४.१७७, ब्रह्मसूत्र-स्कन्ध भाग से घुटनों तक प्रलम्बित सूत्र । यह एक से लेकर हपु०९.२१ ग्यारह सूत्रों का होता है। इसे यज्ञोपवीत कहते हैं । व्रती इसी से (२) वाराणसी नगरी के राजा विश्वसेन की रानी । यह तीर्थकर पहचाने जाते हैं । ब्रह्मचारी सप्त परम स्थानों के सूचक सात धागों पार्श्वनाथ की जननी थी । मपु० ७३.७४-९२ से निर्मित यज्ञोपवीत धारण करते हैं । मपु० ३.२७, १५.१९८, २६. ७३, ३८. २१-२३, १०६, ११२ ब्रह्म हृदय-ब्रह्म स्वर्ग का (लान्तव युगल का) इस नाम का प्रथम इन्द्रक भंग-(१) भरतेश के छोटे भाइयों द्वारा त्यक्त देशों में भरत-क्षेत्र के विमान । विद्युन्माली इसी में जन्म लेकर ब्रह्म स्वर्ग का इन्द्र हुआ मध्य का एक देश । हपु० ११.७५ था । मपु० ७६.३२, हपु० ६.५० (२) राम का एक योद्धा । युद्ध के समय इसने गजरथ और ब्रह्मा-(१) भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । अश्वरथ दोनों का प्रयोग किया था। पपु० ५८.८, १३ . मपु० २.९७, २४.३०, २५.१०५ भक्ति-दानदाता के श्रद्धा, शक्ति, भक्ति, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा (२) अयोध्या का एक राजा । तीर्थंकर अजितनाथ को उनकी और त्याग इन सात गुणों में तीसरा गुण । इसमें पात्र के गुणों के दीक्षा के पश्चात् इसने प्रथम अहार दिया था। मपु० ४८.४१ प्रति श्रद्धा का भाव रहता है । मपु० २०.८२-८३ (३) बारहवें चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त का पिता और चूड़ादेवी का पति । भक्ष्य-खाद्य पदार्थों के पाँच भेदों-(भक्ष्य, भोज्य, पेय, लेह्य और मपु० ७२.२८७-२८८ अपरनाम ब्रह्मरथ । दे० ब्रह्मरथ चूष्य) में प्रथम भेद । ये पदार्थ स्वाद के लिए खाये जाते है । कृत्रिम (४) पंचाग्नि-तप तपनेवाले तापस वसिष्ठ का पिता। हपु० और अकृत्रिम के भेद से ये दो प्रकार के होते हैं । पपु० २४.५३ भगवत्त-(१) राजा जरासन्ध के पक्ष का एक नृप। यह जरासन्ध के ब्रह्मात्मा-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३१ साथ कृष्ण से युद्ध करने समरभूमि में गया था। मपु० ७१.८० ब्रह्मन्द्र-ब्रह्म स्वर्ग का इन्द्र । यह केवलज्ञान प्राप्त होने पर तीर्थकर (२) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में मगध देश के वृद्धग्राम का निवासी वर्द्धमान की पूजा के लिए गया था। मपु० ७.५७, ६३.२४९ वैश्य राष्ट्रकूट और उसकी पत्नी रेवती का ज्येष्ठ पुत्र तथा भवदेव वीवच० १४.४४ का अग्रज । इसने मुनिराज सुस्थित से दीक्षा ले ली थी। इसका छोटा ब्रह्मेश-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३१ भाई भवदत्त भी मुनि हो गया था । अन्त में यह मरकर माहेन्द्र स्वर्ग ब्रह्मोत्तर-(१) ब्रह्म स्वर्ग का चतुर्थं पटल एवं इन्द्रक विमान । हपु. के बलभद्र विमान में सात सागर की आयु का धारी सामानिक देव (२) छठा कल्प (स्वर्ग)। इस कल्प में एक लाख चार हजार हुआ । मपु० ७६.१५२-१५४, १९८-२०० विमान हैं। चौरानवें श्रेणीबद्ध विमान हैं। पूर्वभव में दशरथ के भगवत्तक कृष्ण का पक्षधर एक समरथ राजा । यह समुद्रविजय और पुत्र भरत इसी स्वर्ग में थे। पपु० ८३.१०५, १२८-१२९, १६६ वसुदेव के समान शक्तिशाली था। हपु० ५०.८२ १६८, हपु० ६.३६, ५६, ७० भगलि-(१) आगामी सत्रहवें तीर्थकर चित्रगुप्त के पूर्वभव का जीव । ब्रह्मोद्यावित्-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० मपु० ७६.४७४, ४७९ २५.१०७ (२) भरतक्षेत्र का एक देश । राजा भागीरथ की माँ विदर्भा इसी ब्राह्मण-भरतेश द्वारा स्थापित वर्ण । ये जन्म से ब्राह्मण न होकर गुण देश के राजा सिंहविक्रम को पुत्री थी । मपु० ४८.१२७ और कर्म से ब्राह्मण होते हैं । ये सुसंस्कृत और व्रती होते हैं। पूजा, भगली-भरतक्षेत्र का अश्वोत्पादन के लिए प्रसिद्ध एक देश । हपु० वार्ता, दान, स्वाध्याय, संयम और तप ये छ: विशुद्धियाँ करते है। ६०.२० Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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