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________________ प्राज्ञ-प्रावृत जैन पुराणकोश : २४१ प्राज्ञ-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१३ प्राण-(१) व्यवहार काल का एक प्रमाण । श्वास लेने और छोड़ने में लगनेवाला समय प्राण कहलाता है । हपु० ७.१६, १९ (२) जीव की जीवितव्यता का लक्षण । इन्द्रियाँ, मन, वचन, काय, आयु और श्वासोच्छ्वास ये प्राण कहलाते हैं। इनकी विद्यमानता से ही जीव प्राणी कहा जाता है । मपु० २४.१०५ (६) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१६६ प्राणत-(१) ऊवलोक में स्थित चौदहवाँ कल्प। मपु० ७.३९, ५५. २०-२२, ६७.१६-१७, पपु० १०५.१६६-१६९, हपु० ३.१५५, ६. ३८ (२) आनत स्वर्ग का एक विमान । मपु० ७३.६८, हपु० ६.५१ प्राणतेन्द्र-चौदहवें स्वर्ग का इन्द्र । मपु० ५५.२२ प्राणतेश्वर-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. प्राणव-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१६६ ।। प्राणातिपातिकीक्रिया-एक आध्यात्मिक क्रिया । यह साम्परायिक आस्रव की पच्चीस क्रियाओं में एक क्रिया है । इससे प्राणों का वियोग होता है । हपु० ५८.६८ प्राणायाम-योगों का निग्रह। इसमें शुभभावना के साथ मनोयोग, वचनयोग और काययोग इन तीनों योगों का निग्रह किया जाता है। मपु० २१.२२७ प्राणावायपूर्व-तेरह करोड़ पदों से युक्त बारहवाँ पूर्व । इसमें कायचिकित्सा आदि आठ प्रकार के आयुर्वेद का तथा प्राण अपान आदि विभागों का और उनकी पाथिवी आदि धारणाओं का वर्णन है । हपु० २.९९, १०.११८-११९ प्रातर-दक्षिण का समुद्रतटवर्ती एक देश । इसे भरतेश ने जीता था। मपु० २९.७९ प्रातिहार्य तीर्थंकर प्रकृति कर्म के उदय से अभिव्यक्त अर्हन्त की विभूतियाँ । ये आठ होती है-१. अशोकवृक्ष २. तीन छत्र ३. सिंहासन ४. दिव्यध्वनि ५. दुन्दुभि ६. पुष्पवृष्टि ७. भामण्डल और ८. चौसठ चमर । मपु० ७.२९३-३०२, ४२.४५, ५४.२३१, पपु० २.१४८ १५४,हपु० ३ ३१-३९, वीवच० १५.१-१९ प्रातिहार्य-प्रसिद्ध-उपवास। यह भादों सुदी एकादशी के दिन किया जाता है। प्रतिमास कृष्णपक्ष की एकादशियों के दिन किये गये छियासी उपवासों से अनन्त सुख मिलता है । हपु० ३४.१२८ प्रादोषिको-क्रिया-एक आध्यात्मिक क्रिया। यह साम्परायिक आस्रव की पच्चीस क्रियाओं के अन्तर्गत क्रोध के आवेश से उत्पन्न होनेवाली एक क्रिया है । हपु०५८.६६ प्रायोतिष-पूर्व दिशा में स्थित एक जनपद । यह भरतेश के एक भाई के पास था। भरतेश की अधीनता स्वीकार न करके वह दीक्षित हो गया था। तब यह जनपद भरतेश के साम्राज्य में मिल गया था। हपु०११.६८-६९ प्रान्तकल्प-अच्युत स्वर्ग । मपु० ४८.१४३ प्राप्तमहाकल्याणपंचक-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१५५ प्राप्ति-आठ ऋद्धियों में एक ऋद्धि । इस ऋद्धि का धारक समुद्ध रहता है । मपु० ३८.१९३ प्राभूत-श्रतज्ञान के बीस भेदों में पन्द्रहवाँ भेद। यह ज्ञान प्राभूत प्राभृतसमास में एक अक्षर रूप श्रुतज्ञान की वृद्धि होने से होता है । हपु० १०.१३, दे० श्रुतज्ञान । प्राभूत-प्राभूत-श्रु तज्ञान के बीस भेदों में तेरहवाँ भेद । यह ज्ञान अनु योग समास ज्ञान में एक अक्षर रूप श्रुतज्ञान की वृद्धि होने से होता है । हपु० १०.१२-१३ दे० श्रुतज्ञान प्राभूत-प्राभृत-समास-श्रु तज्ञान के बीस भेदों में चौदहवाँ भेद । यह ज्ञान प्राभृत-प्राभृत श्रुतज्ञान में एक अक्षर के बढ़ने से होता है । हपु० १०.१२-१३ दे० श्रुतज्ञान प्राभुत-समास-श्रु तज्ञान के बीस भेदों में सोलहवां भेद । प्राभूत श्रुत ज्ञान में एक अक्षर के बढ़ने से यह ज्ञान होता है । हपु० १०,१२-१३ दे० श्र तज्ञान प्रायश्चित्त-आम्यन्तर छः तपों में प्रथम तप । इसमें अज्ञानवश पूर्व में किये अपराधों की शान्ति के लिए पश्चात्ताप किया जाता है और मोहवश किये हुए पाप-कर्म से निवृत्ति पाने की भावना की जाती है । यह आलोचना, प्रतिक्रमण, तद्भय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापन के द्वारा किया जाता है । मपु० २.२२, १८.६९, २०.१८९-१९०, ६७.४५८-४५९, पपु० १४.११६-११७, हपु० ६४. २८, ३७, वीवच० ६.४१-४२ ।। प्रायोपगमन-संन्यास (समाधिमरण, सल्लेखना) का उत्कृष्ट रूप । इसकी साधना शरीर से ममत्व छोड़कर निर्जन स्थान या बन में की जाती है । साधक वहाँ कर्मों का नाश करके रत्नत्रय की उपलब्धि करता है। इसका साधक जीवों में मैत्रीभाव, गुणियों में प्रमोदभाव विपरीत स्वभावधारियों में माध्यस्थ भाव रखते हुए आमरण साधना में रत रहता है। प्रायेणापगम, प्रायेणोपगम और प्रायोपवेशन इसी संन्यास के अपर नाम हैं। मपु० ५.२३४, ११.९४-९८, ६२.४१०, ७०.४९, हपु० १८.१२१, ३४.४२, ४३.२१४, पापु० ९.१२९-१३० प्रारम्भक्रिया-आस्रव की पच्चीस क्रियाओं में एक क्रिया । इसमें दूसरों के द्वारा किये जानेवाले आरम्भ में प्रमादी होकर स्वयं हर्ष मानना अथवा छेदन-भेदन आदि क्रियाओं में अत्यधिक तत्पर रहना समाविष्ट है । हपु० ५८.७९ प्रालम्ब-जानु तक पहुँचाने वाला हार । मपु०७.३४ प्रावार-बहुमूल्य उत्तरीय वस्त्र । यह रेशमी होता है। इसे दुशाला भी कहते हैं । भोगभूमि में ये वस्त्रांग जाति के कल्पवृक्षों से प्राप्त होते है । मपु० ९.४८ प्रावत-गुरु ध्रौव्य के पाँच शिष्यों में पाँचवाँ शिष्य । शाण्डिल्य, क्षीर कदम्बक, वैन्य और उदंच इसके सहपाठी थे । हपु० २३.३४ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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