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________________ प्रसन्नात्मा-प्राजापत्य २४० । जैन पुराणकोश था। जब हनुमान् सीता की खोज में महेन्द्र के नगर से होता हुआ आगे बढ़ रहा था तो उसके मन में महेन्द्र को दण्ड देने का भाव हुआ। उसने युद्धध्वनियाँ की जिससे महेन्द्र उससे ससैन्य लड़ने आया। प्रसन्नकीर्ति ने भी इस युद्ध में भाग लिया। इस युद्ध में प्रसन्नकीर्ति हारा और हनुमान ने उसे अपने विद्याबल से बाँध लिया। यह देखकर महेन्द्र को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने हनुमान् की प्रशंसा की। हनुमान ने प्रसन्नकीर्ति को छोड़ दिया। इसके पश्चात् वह रावण का पक्ष छोड़कर राम का सहायक हो गया । पपु० १२.२०५- २१०,५०.१७-४६, ५४.३८ प्रसन्नात्मा-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १३२ प्रसेन–गर्भस्थ शिशु का आवरण-जरायुपटल (नाल) । कुलकर प्रसेनजित् ने इसे दूर करने की विधि बतायी थी । मपु० ३.१५० प्रसेनिक-चन्दना के पूर्वभव में हुआ मगधदेश की वत्सा नामक नगरी का एक राजा । मपु० ७५.७१ प्रसेनजित्-(१) तेरहवें मनु (कुलकर)। इनकी पर्व प्रमित आयु थी और शरीर की ऊंचाई पाँच सौ धनुष की थी। जरायुपटल के दूर करने की विधि इन्होंने लोगों को बतायी थी। ये अपने पिता मरुदेव के अकेले पुत्र थे। मरुदेव के पहले युगल सन्तान हुई थी। उस समय लोगों को पसीना आने लगा था। इनका विवाह विवाह-विधि से सपन्न हुआ। अन्तिम कुलकर नाभिराय इन्हीं के पुत्र थे। मपु० ३.१४६-१५१, पपु० ३.८७, हपु० ७.१६५-१७०, पापु० २.१०३१०६ (२) कृष्ण का सोलहवां पुत्र । हपु० ४८.६९-७२ प्रस्तर-(१) हाथियों से जुते रथ पर आरूढ़ राम के पक्ष का एक योद्धा । पपु० ५८.८ (२) किसी विद्याधर द्वारा कीलित विद्याधर का उपकार करने से प्रद्य म्न को प्राप्त हुई एक विद्या । इस विद्या से शिला उत्पन्न करके उससे किसी को ढका या दबाया जा सकता है। मपु० ७२.११४ ११५, १३५-१३६ प्रस्तार-छन्दः शास्त्र का एक प्रकरण । मपु० १६.११४ प्रहरण-सातवाँ प्रतिनारायण । हपु० ५०.२९१ प्रहरा-भरतक्षेत्र की पश्चिम समुद्र की ओर बहनेवाली एक गहरी नदी। इसे भरतेश की सेना ने पार किया था। मपु० ३०.५४, ५८ प्रहसित-(१) हनुमान् के पिता पवनंजय का मित्र । पपु० १५.११९, १६.१२७ (२) इक्कीसवें तीर्थङ्कर नेमिनाथ के तीर्थ में मातंग वंश में उत्पन्न असितपर्वत नगर का विद्याधर राजा। हिरण्यवती इसकी रानी थी। हपु० २२.१११-११२ (३) जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहस्थ वत्सकावती देश के सुसीमा नगर का एक विद्वान् । यह इसी नगर के राजा अजितंजय के मंत्री अमित- मति और उसकी स्त्री सत्यभामा का पुत्र था। विकसित इसका मित्र था। इन दोनों ने मुनिराज मतिसागर से धर्मोपदेश सुना और संयम धारण करके तप किया । अन्त में शरीर छोड़कर दोनों महाशुक्र स्वर्ग में इन्द्र और प्रतीन्द्र हुए । मपु० ७.६०-७९ प्रहस्त-रावण का आज्ञाकारी सेनापति । लंका में हुए राम-रावण युद्ध में यह राम के सेनानायक के द्वारा मारा गया था। पपु० ८.४१० ४११, १२.८८, ५८.४५ प्रहारसंक्रामिणी-धरणेन्द्र द्वारा नमि और विनमि को प्रदत्त लोकहित कारिणी एक विद्या । हपु०२२.७० प्रहेलिका-पहेली । मनोरंजन का एक साधन । प्रहेलिका के द्वारा देवियाँ जिन-माताओं का गर्भकाल में मनोविनोद करती है । मपु० १२.२२०. २४८ प्रह्लाद-(१) उज्जयिनी नगरी के राजा श्रीधर्मा के बलि आदि चार मंत्रियों में चतुर्थ मन्त्री । यह तन्त्र मार्ग का ज्ञाता था। श्रुतसागर मनि से विवाद में पराजित होने के कारण इसी मन्त्री के साथी बलि नामक मन्त्री ने अकम्पनाचार्य आदि मुनियों पर उपसर्ग किया था । हपु० २०.४-६२ (२) आदित्यपुर नगर का राजा। यह उसकी रानी केतुमती के पुत्र पवनगति का पिता था। इसके पुत्र का अपर नाम पवनजय था । वरुण के साथ युद्ध होने पर रावण ने इसे अपनी सहायतार्थ आमन्त्रित किया था। तब इसने रावण की सहायतार्थ अपने पुत्र को भेजा था । इसकी पत्नी केतुमती ने दोष लगाकर अपनी बहु अंजना को गर्भावस्था में घर से निकाल दिया था। पपु० १५.६-८, १६.५७-७४, १७.३ (३) सातवाँ प्रतिनारायण । पपु० २०.२४४-२४५ प्रह्लावना--विनीता नगरी के राजा सुप्रभ की पटरानी। यह सूर्योदय तथा चन्द्रोदय की जननी थी । पपु० ८५.४५ प्रांशु-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम ।मपु० २५.२१४ प्राकाम्य-आठ ऋद्धियों में एक ऋद्धि । यह कामनाओं की पूर्ति करती है। मपु० ३८.१९३ प्राकार-समवसरण की शोभा के लिए उसके चारों ओर निर्मित ऊंची दीवार । इसमें चारों दिशाओं में गोपुरों की रचना की जाती है । प्राचीनकाल में नगरों की रक्षा के लिए भी प्राकार बनाये जाते थे। मपु० १६.१६९, १९.५७-६२, पपु० २.४९, १३५, हपु० २.६५ प्राकृत-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१६८ प्रारभार-भू-सिद्ध-शिला (अष्टम भूमि)। यह ४५ लाख योजन प्रमाण है । हपु० ६.८९ प्राग्रहर सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१५० प्राग्रय-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१५० प्राग्विदेह-पूर्व विदेहक्षेत्र । मपु० ५.१९३, ४६.१९, ४८.५८ प्राङ्माल्यगिरि-ऋष्यमूक पर्वत के आगे माल्य पर्वत का पूर्वभाग । यहाँ भरतेश की हस्तिसेना पहुंची थी। मपु० २९.५६ प्राजापत्य-विवाह का एक भेद । यह विवाह माता-पिता और परिवार के गुरुजनों को सम्मति से होता है । मपु० ६२.१५१, ७०.११४-११५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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