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________________ प्रमोदन-प्रसन्नकीति मेन पुराणकोश : २३९ द्वितीय भावना। इस भावना से गुणी जनों के गुणों को देखकर प्रशम-सम्यग्दर्शन की अभिव्यक्ति में आवश्यक रूप से हेतुभत आत्मा प्रसन्नता होती है । मपु० २०.६५, ३९.१४५. हपु० ५८.१२५ का प्रथम गुण । इससे कषायों का शमन हो जाता है । मपु० ४.१२३ (२) लंका का राक्षसवंशी एक नृप । यह माया और पराक्रम से १५.२१४ सहित बल और महाकान्ति का धारक था। पपु० ५.३९५-४०० प्रशमारक-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. प्रमोदय-भावी सातवें तीर्थकर । हपु० ६०.५५९ १६३ प्रयोगक्रिया-साम्परायिक आस्रव की पच्चीस क्रियाओं में असंयमवर्षिनी । प्रशमात्मा सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. एक क्रिया । इसमें गमनागमन आदि में प्रवृत्ति बढ़ती है । हपु० ५८. प्रशस्तध्यान-ध्यान के प्रशस्त और अप्रशस्त दो भेदों में प्रथम भेद । प्रवक्ता-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१० शुभ परिणामों से किया हुआ ध्यान प्रशस्त ध्यान है। इसके भी दो प्रवचनभक्ति–तीर्थङ्कर नामकर्म के बन्ध में कारण भूत सोलह भावनाओं भेद होते हैं-धर्मध्यान और शुक्लध्यान । मपु० २१.२७-२९ में तेरहवीं भावना । इस भावना से मन, वचन और काय की शुद्धता प्रशस्तवंक--एक चारणऋद्धिधारी मनि । जीवन्धरस्वामी ने इनसे अपने पूर्वक आगम में श्रद्धा बढ़ती है । मपु० ६३.३११, ३२७, हपु० ३४. पूर्वभव ज्ञात किये थे। मपु० ७५.६७८ प्रशस्ति--शिलाखण्डों पर उत्कीर्ण परिचयात्मक विवरण-लेख । सर्व१३१, १४१ प्रवचनमाता-पाँच समिति और तीन गुप्तियाँ। ये आठ प्रवचन माताएँ प्रथम चक्रवर्ती भरत ने वृषभाचल पर्वत पर काकिणी रत्न द्वारा अपनी विजय का विवरण उत्कीर्ण कराया था। मपु० ३२.१४६-१५५ कहलाती हैं । वीवच० १३.५७ प्रशान्त--सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८६ प्रवर-(१) एक राजा । इन्द्र-दशानन संग्राम में इसने इन्द्र की ओर से प्रशान्तमवन-राजा प्रभंजन और उसकी रानी चित्रमालिनी का पुत्र । युद्ध किया था । पपु० ९.२८, १२.२१७ पूर्वभव में यह स्वर्ग में मनोरथ नाम का देव था । मपु० १०.१५२ (२) गन्धवती नगरी का एक सम्पत्तिशाली वैश्य । यह रुचिरा का। प्रशान्तरसशैलूष-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० पिता था । पपु० ४१.१२७ २५.२०८ (३) जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.२९-४० प्रशान्तात्मा-सौधर्मेन्द्र द्वारा वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५,१३२ प्रवरदत्त-द्वारिकापुरी में तीर्थङ्कर नेमिनाथ का प्रथम आहारदाता। हपु० प्रशान्तारि-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. ५५.१२९ प्रवरा-रावण की एक रानी । पपु० ७७.९-१२ प्रशान्ति–तीर्थङ्कर शान्तिनाथ के पश्चात् दो राजाओं के बाद हुआ 'प्रवाल--(१) मानुषोत्तर पर्वत में स्थित एक कूट । यह सुप्रवृद्ध देव की कुरुवंशी राजा । हपु० ४५.१९ निवासभूमि था। हपु० ५.६०६ प्रशान्तिक्रिया-गर्भान्वय की वेपन क्रियाओं में इक्कीसवीं तथा दीक्षान्वय (२) रत्नप्रभा नरकभूमि के तीन भागों में खरभाग के सोलह की अड़तालीस क्रियाओं में सोलहवी क्रिया । इसमें विषयों से अनापटलों में सातवां पटल । हपु० ४.४७, ५२-५४ सक्त होकर अपने पुत्र को गृहस्थभार देने के पश्चात् नित्य स्वाध्याय प्रवीचार-मैथुन । ज्योतिषी, भवनवासी, व्यन्तर और सौधर्म तथा ऐशान तथा विविध उपवास आदि करते हुए शान्ति का मार्ग अपनाया जाता स्वर्ग के देव काय से, सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग के देव स्पर्श मात्र है । मपु० ३८.५५-६५, १४८-१४९, ३९.७५ से, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लान्तव और कापिष्ट स्वर्ग के देव रूपमात्र से, प्रशास्ता-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०१ शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार स्वर्ग के देव शब्द से तथा आनत, प्रश्नकोति-आगामी नवम तीर्थङ्कर । हपु० ६०.५५९ प्राणत, आरण और अच्युत स्वर्ग के देव मन से प्रवीचार करते हैं । प्रश्नव्याकरण-द्वादशांगश्रुत का दसवाँ अंग । इसमें जीवों के सुख-दुःख हपु० ३.१६२.१६६ आदि से सम्बन्धित प्रश्नों के उत्तर का निरूपण है। इसमें आक्षेपिणी प्रवेणी-भरतक्षेत्र में दक्षिण की एक नदी। इसे भरतेश की सेना ने पार आदि कथाओं का भी वर्णन किया गया है। इसके पदों की कुल किया था। मपु० २९.८६ संख्या तेरानवें लाख सोलह हजार है। मपु० ३४.१४४, हपु० १०.४३ प्रवेशन-तालगत गन्धर्व का एक भेद । हपु० १९.१५० प्रश्नोत्तरविधि-एक शिक्षा-विधि । यह स्वाध्याय का एक भेद है। प्रवज्या-गृहस्थ का दीक्षा ग्रहण । इसमें दीक्षार्थी निर्ममत्वभाव धारण ___ इसे पृच्छना कहते हैं। मपु० २१.९६ करता है । विशुद्ध कुल, गोत्र, उत्तम चारित्र, सुन्दर मुखाकृति के प्रष्ठ-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२२ लोग ही इसके योग्य होते हैं । इष्ट जनों की अनुज्ञापूर्वक ही सिद्धों प्रष्ठक-सौधर्म स्वर्ग का एक पटल । हपु० ६.४० को नमन करके इसे ग्रहण किया जाता है। इसके लिए तरुण अवस्था प्रसन्नकोति-वानरवंशी राजा महेन्द्र का पुत्र । यह हनुमान् का मामा सर्वाधिक उचित होती है। मपु० ३८.१५१, ३९.१५८-१६०, था । गर्भकाल में महेन्द्र ने हनुमान् की माता अंजना को अपने यहाँ ४१.७५ आश्रय नहीं दिया था। हनुमान् का जन्म वन की एक गुहा में हुआ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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