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________________ २३८ : जैन पुराणकोश प्रभावनना-प्रमोद (१३) कौशिक नगर के राजा वर्ण की भार्या । हपु० ४५.६१-६२ (१४) जयकुमार के पूर्वभव की भार्या । हपु० १२.११-१४ प्रभावना-सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में एक अंग। इसके द्वारा जिनेन्द्र के द्वारा प्रदर्शित मोक्षमार्ग के माहात्म्य को प्रकाशित और प्रसारित किया जाता है । मपु० ६३.३२० प्रभावगा-ब्रह्म स्वर्ग के इन्द्र विद्युन्माली की चौथी देवी। मपु० ७६.३२-३३ प्रभास-लवणसमुद्रवासी अतिशय कान्तिमान् व्यन्तराधिप । दिग्विजय के समय भरतेश ने इसे पराजित किया था । मपु० ३०.१२३ (२) तीर्थकर महावीर के ग्यारहवें गणधर । मपु० ७४.३७४, हपु० ३.४३, वीवच० १९.२०६-२०७ (३) वैशाली नगर के राजा चेटक तथा उसको रानी सुप्रभा के दस पुत्रों में दसवां पुत्र । मपु० ७५.३-५ (४) सिन्ध नदी के गोपुर (द्वार) का निवासी देव । इसे लक्ष्मण ने पराजित किया था। मपु० ६८.६५३ (५) धातकोखण्ड द्वीप का रक्षक देव । हपु० ५.६३८ प्रभासकुन्द-कुशध्वज ब्राह्मण और उसकी भार्या सावित्री का पुत्र । यह शम्भु का जीव था । (दे० शम्भु) इसने विचित्रसेन मुनि के पास दीक्षा लेकर तपश्चरण किया था। मरण काल में कनकप्रभ विद्याधर को विभूति देखकर इसने वैसा ही बनने का निदान किया था और निदान वश यह मरकर सनत्कुमार स्वर्ग में देव हुआ था। वहां से च्युत होकर यह लंका नगरी में रत्नश्रवा और उनकी रानी केकसी के रावण नाम का पुत्र हुआ । पपु०१०६. १५५-१७१ ।। प्रभासतीर्थ-समुद्रतटवर्ती एक तीर्थ । यहाँ कृष्ण ने राष्ट्रवर्धन नगर के राजकुमार नमुचि को मारा था तथा उसकी बहिन सुसीमा को हरकर द्वारिका लाये थे। हपु० ४४.२६-३० प्रभासा-समवसरण के आम्र वन को छ: वापियों में एक वापी । हपु० ५७.३५ प्रभास्वर-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१८१ प्रभु-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०० प्रभुशक्ति–तीन राजशक्तियों में एक शक्ति । हपु० ८.२०१ प्रभूततेज-भरतवंश में हुए राजा शशी का पुत्र । हपु० १३.९ प्रभूतविभव-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. ११८ प्रभूतात्मा-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. ११८ प्रभूष्णु-भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३०, २५.१०९ प्रभोदय-सातवें भावी तीर्थकर । हपु० ६०.५५९ प्रमत्तसंयत-छठा गुणस्थान । इससे आगे चौदहवें गुणस्थान तक मनुष्यों में बाह्य रूप की अपेक्षा कोई भेद नहीं होता, सभी निग्रंन्य मुद्रा के धारक होते हैं परन्तु आत्मिक विशुद्धि की अपेक्षा उनमें भेद होता है । जैसे-जैसे ऊपर बढ़ते जाते हैं वैसे-वैसे उनमें विशुद्धि बढ़ती जाती है। ऐसे जीव शान्त और पंच-पापों से रहित होते हैं । हपु० ३.८१ ८४, ८९-९० प्रमव-भावी प्रथम रुद्र । हपु० ६०.५७१ प्रमववन-(१) राजप्रासाद का एक महत्त्वपूर्ण अंग । आदिपुराण में भी प्रमदवन का वर्णन आया है । मपु० ४७.९ (२) लंका में स्थित विस्तीर्ण उद्यान । यह तडित्केश की क्रीडास्थली था। रावण ने सीता को यहाँ रखा था। इसके सात विभाग थे-प्रकीर्णक, जनानन्द, सुखसेव्य, समुच्चय, चारणप्रिय, निबोध और प्रमद । यहाँ स्नान करने के योग्य वापियाँ निर्मित की गयीं थीं और सभागृह बनाये गये थे। पपु० ५.२९७-३००, ६.२२७, ४६. १४१-१४५, १५२-१५३ (३) कौशिकपुरी का एक उद्यान । यहाँ के राजा वर्ण की पुत्री कमला की पाण्डवों से भेंट इसी उद्यान में हुई थी तथा उसके युधिष्ठिर की ओर आकृष्ट होने पर यह उसी से विवाही गयी यो । पापु० १३. ७-३४ प्रमदा-समवसरण की नाट्यशाला । हपु० ५७.९३ प्रमाण-(१) द्रव्यानुयोग का एक प्रमुख विषय । द्रव्यों के निर्णय करने का यही एक मुख्य साधन है। यह पदार्थ के सकल देश का (विरोधी, अविरोधी धर्मों का) एक साथ बोध करनेवाला ज्ञान होता है । मपु० २.१०१, ६२.२८, पपु० १०५.१४३ (२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. प्रमाणपद-अक्षरसमास के बाद होनेवाला पदज्ञान । यह आठ अक्षरों का होता है । हपु० १०.२२ प्रमाणांगुल-उत्सेधांगुल से पांच सौ गुना बड़ा अंगुल । हपु० ७.४२ प्रमाथी-धृतराष्ट्र तथा उनकी रानी गान्धारी का नवासीवां पुत्र । पापु० ८.२०४ प्रमाब-(१) छठे गुणस्थान में व्रतों में असावधानता को उत्पन्न करनेवाली मन-वचन और काय की प्रवृत्ति । इससे कर्मबन्ध होता है। इसके पन्द्रह भेद होते हैं। ये भेद है-चार कषाय, चार विकथा, पाँच इन्द्रिय-विषय, निद्रा और स्नेह । ये भेद संज्वलन कषाय का उदय होने से होते हैं तथा सामायिक, छेदोपस्थापना ओर परिहारविशुद्धि इन तीन चारित्रों से युक्त जीव के प्रायश्चित्त के कारण बनते हैं। मपु० ४७.३०९, ६२. ३०५-३०६, हपु० ५८.१९२ (२) मद्यपायी के सदृश शिथिल आचरण । पापु० २३.३२ प्रमावाचरित-अनर्थदण्ड का एक भेद । अनर्थ-छेदन, भेदन आदि करना प्रमादाचरण है । हपु० ५८.१४६ प्रमामय-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०७ प्रमशा-भरतक्षेत्र की एक नदी । इसे भरतेश की सेना ने तमसा नदी को पार करने के बाद पार किया था। मपु० २९.५४ प्रमोद-(१) संवेग और वैराग्य के लिए साधनभूत तथा अहिंसा के लिए आवश्यक मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ इन चार भावनाओं में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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