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________________ जैन पुराणकोश : २३१ सवितर्क और सविचार कहलाता है । इस ध्यान से ही उत्कृष्ट समाधि की उपलब्धि होती है । यह ध्यान उपशान्त मोह और क्षीणमोह आदि गुणस्थानों में होता है । इसमें क्षायोपशमिक भाव विद्यमान रहते हैं । मपु० ११.११०, २१.१६७-१८३, हपु० ५६.५४, ५७-६४ पृथिवी-(१) तीर्थङ्कर सुपार्श्व की जननी। यह काशी-नरेश सुप्रतिष्ठ की रानी थी। पपु० २०.४३ (२) द्वारावती के राजा भद्र की रानी। यह तीसरे नारायण स्वयंभू की जननी थी। मपु० ५९.८६-८७ पद्मपुराण के अनुसार तीसरा नारायण स्वयंभू हस्तिनापुर के राजा रौद्रनाद और उसकी रानी पृथिवी का पुत्र था । पपु० २०.२२१-२२६ (३) राजा बालखिल्य की रानी और कल्याणमाला की जननी । पपु० ३४.३९-४३ (४) वत्सकावती देश का एक नगर । मपु० ४८.५८-५९ (५) आठ दिक्कुमारी देवियों में एक देवी । यह तीर्थङ्कर की माता पर छत्र धारण किये रहती है । हपु० ८.११० (६) विजयाध पर्वत की दक्षिणश्रेणी के गन्धसमृद्धनगर के राजा गांधार की महादेवी । हपु० ३०.७ (७) पुण्डरीकिणी नगरी के राजा सुरदेव की रानी । दान धर्म के पालन के प्रभाव से यह अच्युत स्वर्ग में सुप्रभा देवी हुई । मपु० ४६. पूर्वतालपुर-पृथिवीनगर पूर्वतालपुर-एक नगर । यह भरतेश के छोटे भाई वृषभसेन को निवास भूमि था। इसी नगर के शकटास्य नामक उद्यान में तीर्थङ्कर आदिनाथ को केवलज्ञान हुआ था । हपु० ९.२०५-२१० पूर्वधर-चौदह पूर्वो के ज्ञाता मुनि । वृषभदेव के संघ में चार हजार सात सौ पचास पूर्वधर मुनि थे। इसी प्रकार शेष तीर्थङ्करों के संघों में भी पूर्वधर मुनि होते रहे हैं । हपु० १२.७१-७२ पूर्वधारी-चौदह पूर्वो के ज्ञाता मुनि । मपु० ४८.४३ पूर्वपक्ष-सिद्धान्त विरोधी । परमत का पक्ष । हपु० २१.१३६ पूर्वमन्दर-पूर्वमेरू । मपु० ७.१३ पूर्वरंग-मंगलाचरण के पश्चात् नाटक का आरम्भिक (आमुख) अंश। मपु० २.८८, १४.१०५ पूर्व-विदेह-(१) विदेहक्षेत्र का एक भाग । यह सुमेरु पर्वत की पूर्व दिशा में स्थित है । सीता नदी इसी क्षेत्र के मध्य बहती है । यह सीमन्धर स्वामी की निवासभूमि है । यहाँ तीर्थङ्कर चतुर्विध संघ तथा गणधरों सहित धर्म-प्रवर्तन के लिए सदा विहार करते हैं । यहाँ अहिंसा धर्म नित्य प्रवर्तमान रहता है । ज्ञानी अंग और पूर्वगत श्रु त का अध्ययन करते है । यहाँ मनुष्यों का शरीर पांच सौ धनुष ऊंचा और उनको आयु एक पूर्वकोटि वर्ष की होती है । यहाँ के मनुष्य मरण कर नियम से स्वर्ग और मोक्ष ही प्राप्त करते हैं। नारद का यहाँ गमनागमन रहता है । हपु० ४३.७९, वीवच० २.३-१४ (२) नील पर्वत का एक कूट । हपु० ५.९९ पूर्वसमास-श्रु तज्ञान का अन्तिम बीसवाँ भेद । हपु० १०.१२-१३ पूर्वांग-चौरासी लाख वर्ष प्रमाण काल । मपु० ३.२१८, हपु० ७.२४ दे० काल पूर्वान्त–अग्रायणीयपूर्व की चौदह वस्तुओं में प्रथम वस्तु । हपु० १०. ७७-७८ दे० अग्रायणीयपूर्व पूर्वाषाढ़-एक नक्षत्र । तीर्थङ्कर संभवनाथ तथा शीतलनाथ ने इसी नक्षत्र में जन्म लिया था । पपु० २०.३९,४६ ।। प्रच्छना-स्वाध्याय की एक भावना । इसमें प्रश्नोत्तर के द्वारा तत्त्वज्ञान प्राप्त किया जाता है । मपु० २१.९६ 'पृतना-अक्षौहिणी सेना का एक अंग। इसमें २४३ रथ, २४३ हाथी, १२१५ प्यादे और १२१५ घुड़सवार होते हैं । मपु० ६.१०९, पपु० ५६.२-५, ८ पृथक्त्व-(१) तीन से ऊपर और नौ से नीचे की संख्या । मपु० ५.२८६ (२) विचारों की अनेकता या नानात्व पृथक्त्व कहलाता है। योगों से क्रान्त होकर यह पृथक्त्व ध्यान का विषय बन जाता है। हपु० ५६.५७ पृथक्त्ववितर्कविचार-शुक्लध्यान का एक भेद । शुक्लध्यान के दो भेद है-शुक्ल और परमशुक्ल । इनमें प्रथम शुक्लध्यान के दो भेद है। उनमें यह प्रथम भेद है । ध्यानी श्रु तस्कन्ध से कोई एक विषय लेकर उसका ध्यान करने लगता है । तब एक शब्द से दूसरे शब्द का और एक योग से दूसरे योग का संक्रमण होता है । संक्रमणात्मक यह ध्यान पृथिवीकाय-तिर्यञ्च गतियों में पाये जानेवाले जीवों में स्थावर जीवों का प्रथम भेद । ऐसे जीव पृथिवी को खोदे जाने, जलती हुई अग्नि 'द्वारा तपाये जाने, बुझाये जाने, अनेक कठोर वस्तुओं से टकराये जाने तथा छेदे-भेदे जाने से दुःख प्राप्त करते हैं। इन जीवों की सात लाख कुयोनियों तथा बाईस लाख कुल कोटियाँ हैं । खर पृथिवी के जीवों की आयु बाईस हजार वर्ष और कोमल पृथिवी की बारह हजार वर्ष होती है । मपु० १७.२१-२३, हपु० ३.१२०-१२१, १८.५७-६४ पृथिवीचन्द्र-लक्ष्मण का पुत्र । मपु० ६८.६९० पृथिवीतिलक-(१) विदेह क्षेत्र के वत्सकावती देश का एक नगर । मपु० ४८.५८, ५९.२४१, हपु० २७.९१ (२) लक्ष्मण और उसकी महादेवी रूपवती का पुत्र । पपु० ९४. २७-२८.३१ पृथिवीतिलका--विजया पर्वत की दक्षिणश्रेणी में स्थित मन्दारनगर के राजा पांख और उसकी रानी जयदेवी की पुत्री । इसका विवाह तिलक नगर के राजा अभयघोष से हुआ था । मपु० ६३.१६८-१७१ पृथिवीदेवी लक्ष्मण की भार्या । मपु० ६८.४७-४८ पृथिवीधर-(१) वैजयन्तपुर का राजा। इसकी रानी इन्द्राणो से वनमाला नाम की एक पुत्री हुई थी। शरीर से निस्पृह होकर इसने भरत के साथ मुनि होकर घोर तपस्या की थी और निर्वाण प्राप्त किया था । पपु० ३६.११-१५ पृथिवीनगर-(१) राजा पृथु को राजधानी । पपु० १०१.५-८ (२) विदेह क्षेत्र के वत्सकावती देश का एक नगर। मपु० ४८.५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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