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________________ २३० : जैन पुराणकोश पूरितार्थोच्छ-पूर्वगत के अनुसार आठवाँ पुत्र । समुद्रविजय, स्तिमितसागर, हिमवान्, विजय, अचल और धारण ये छ: इसके अग्रज थे तथा परितार्थीच्छ, अभिनन्दन और वसुदेव ये तीन अनुज थे । कुन्ती और माद्री इसकी बहिनें थीं। इसके चार पुत्र हुए-दुष्पूर, दुमुख, दुर्दर्श और दुर्धर । मपु० ७०.९५-९७, हपु० १८.१२-१५, ४८.५१ पूरितार्थाच्छ-अन्धकवृष्टि और उसकी रानी सुभद्रा का पुत्र । समुद्रविजय, स्तिमितसागर, हिमवान्, विजय, अचल, धारण और पूरण नामक भाइयों का यह अनुज तथा अभिनन्दन और वसुदेव का अग्रज था । यह कालिका का पति था। मपु० ७०.९५-९९ पूर्ण-(१) भवनवासी देवों का इन्द्र । यह महावीर को प्राप्त केवलज्ञान ___ की पूजा के लिए आया था। वीवच० १४.५४-५८ (२) इक्षुवर द्वीप का रक्षक देव । हपु० ५.६४३ पूर्ण-कामक-समवसरण के तीसरे कोट में उत्तरी द्वार का एक नाम । हपु० ५७.६० पूर्णधन-भरतक्षेत्र में स्थित विजयाध की दक्षिणश्रेणी के चक्रवाल नगर का नृप । इसके मेघवाहन नाम का पुत्र था। इसने विहायस्तिलक नगर के राजा सुलोचना से उसकी कन्या उत्पलमती की याचना की थी किन्तु सुलोचना ने अपनी कन्या इसे न देकर निमित्तज्ञानी के संकेतानुसार सगर चक्रवर्ती को दी थी। इससे क्रुद्ध होकर इसने राजा सुलोचन को युद्ध में मार डाला था और यह स्वयं भी उसके पुत्र सहस्रनयन द्वारा मारा गया । पपु० ५.७६-८७ पूर्णचन्द्र-(१) विद्याधर दृढरथ का वंशज । वह पूश्चन्द्र का पुत्र और बालेन्दु का पिता था । पपु० ५.४७-५६ (२) राम का सिंहरथवाही सामन्त । बहुरूपिणी विद्या के साधक रावण की साधना में विघ्न उत्पन्न करने के लिए यह लंका गया था। यह भरत के साथ दीक्षित हो गया। पपु० ५८.९-११, ७०. १२-१६, ८८.१-६ (३) भरतक्षेत्र के सिंहपुर नगर के राजा सिंहसेन और उसकी रानी रामदत्ता का छोटा पुत्र । यह सिंहचन्द्र का अनुज था । सिंहसेन के मरने पर सिंहचन्द्र राजा और यह युवराज हुआ। सिंहचन्द्र के दीक्षित होने पर इसने कुछ समय तक राज्य किया । सिंहचन्द्र मुनि से इसे धर्मोपदेश मिला। यह भी विरक्त होकर मुनि हो गया और मरने के पश्चात् महाशुक्र स्वर्ग के वैडूर्य विमान में वैड्र्य देव हुआ। मपु० ५९.१४६, १९२-२०२, २२४-२२६, हपु० २७.४६-५९ (४) पोदनपुर का राजा। हिरण्यवती इसको रानी और रामदत्ता इसकी पुत्री थी । इसने राहुभद्र मुनि से दीक्षा लेकर अवधिज्ञान प्राप्त किया था। रानी हिरण्यवती ने भी दत्तवती आर्या के समीप आर्यिका के व्रत धारण किये थे। इसी के उपदेश से रामदत्ता और उसका पुत्र सिंहचक्र दोनों दीक्षित हो गये थे। यह स्वयं सम्यग्दर्शन और व्रत से रहित हो जाने के कारण भोगों में आसक्त हो गया था। अन्त में यह रामदत्ता द्वारा समझाये जाने पर दान, पूजा, तप, शील और सम्यक्त्व का अच्छी तरह पालन करके सहस्रार स्वर्ग के वैडूर्य प्रभ नामक विमान में देव हुआ। मपु० ५९.२०७-२०९, हपु० २७. ५५-७४ (५) भविष्यत् कालीन सातवां बलभद्र । मपु० ७६.४८६, हपु० ६०.५६८ पूर्णचन्द्रा-महापुर नगर के राजा सोमदत्त की रानी। यह भूरिश्रवा नामक पुत्र तथा सोमश्री नामा पुत्री की जननी थी। सोमश्री वसुदेव से विवाही गयी थी। हपु० २४.३७-५९ पूर्णप्रभ-इक्षुवर द्वीप का रक्षक देव । हपु० ५.६४३ पूर्णभद्र-(१) साकेतपुर निवासी अर्हदास श्रेष्ठी का ज्येष्ठ पुत्र । मणि भद्र इसका छोटा भाई था। इसने श्रावक की सातवीं प्रतिमा धारण की थी। इसके प्रभाव से यह मरकर सौधर्म स्वर्ग में सामानिक देव हुआ । सौधर्म स्वर्ग से च्युत होकर यह साकेत नगरी के राजा हेमनाभ का मधु नामक पुत्र हुआ था। मपु० ७२.३६-३७, पपु० १०९.१३११३२ (२) एक यक्ष । इसने बहुरूपिणी विद्या की सिद्धि के समय रावण की रक्षा की थी । पपु०७०.६८-९५ (३) कुबेर का साथी एक यक्ष । द्वारिका के निर्माण के पश्चात् कुबेर के चले जाने पर उसकी आज्ञा से वहाँ बचे हुए कार्य को इसने सम्पन्न किया था। हपु० ४१.४० (४) विजयाध की दक्षिण और उत्तर श्रेणी से पन्द्रह योजन ऊपर स्थित एक पर्वत-श्रेणी। यह दस योजन चौड़ी है। विजया देव इसका स्वामी है । हपु० ५.२४.२५ (५) ऐरावत क्षेत्र के विजया पर्वत का चतुर्थ कुट । हपु० ५.२६, १०९-११२ (६) माल्यवान् पर्वत का एक कूट । हपु० ५.२१९-२२० (७) किन्नर आदि अष्टविध जातियों के व्यन्तर देवों में यक्ष जातियों के व्यन्तरों का इन्द्र । वीवच०१४.५९-६३ (८) अयोध्या के समुद्रदत्त सेठ का पुत्र । यह अपने पूर्वभव में अग्निभूति था । हपु० ४३.१४८-१४९ पूर्व-(१) चौरासी लाख पूर्वाङ्ग प्रमाण काल । मपु० ३.२१८, ४८.२८, हपु० ७.२५ दे० काल (२) श्रु तज्ञान के पर्याय आदि बीस भेदों में उन्नीसवाँ भेद । पूर्व चौदह होते है-१. उत्पादपूर्व २. अग्रायणीयपूर्व ३. वीर्यप्रवादपूर्व ४. अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व ५. ज्ञानप्रवादपूर्व ६. सत्यप्रवादपूर्व ७. आत्मप्रवादपूर्व ८. कर्मप्रवादपूर्व ९. प्रत्याख्यानपूर्व १०. विद्यानुवादपूर्व ११. कल्याणपूर्व १२. प्राणावायपूर्व १३. क्रियाविशालपूर्व और १४. लोकबिन्दुपूर्व । हपु० २.९६-१००, १०.१२-१३ (३) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १९२ पूर्वकोटि-एक करोड़ पूर्व प्रमित काल । मपु० ३.१५३,२१८ पूर्वगत-श्रु तज्ञान के बारहवें दृष्टिवाद अंग का पाँचवाँ भेद । हपु० २.. ९५-१०० जातिमा Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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