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________________ २२४ : जैन पुराणकोश पुण्डरीकाक्ष-पुण्यापुण्यनिरोधक से हुआ था। निशुम्भ ने इस विवाह से असंतुष्ट होकर इसे मारने (२) आकार में लम्बे और मीठे पौंडे (गन्ना) । मपु० ३.२०३ के लिए युद्ध किया था किन्तु यह अपने चलाये चक्र से स्वयं मारा पुण्य-(१) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-चारित्र से, अणुव्रतों गया था। मपु० ६५.१७४-१८४ इसने कोटिशिला को अपनी कमर और महाव्रतों के पालन से, कषाय, इन्द्रिय और योगों के निग्रह से तक ऊपर उठाया था जिसे नवें नारायण कृष्ण चार अंगुल मात्र ऊपर तथा नियम, दान, पूजन, अर्हद्भक्ति, गुरुभक्ति, ध्यान, धर्मोपदेश, उठा सके थे । हपु० ३५.३६-३८ यह तीन खण्ड का स्वामी, धीरवीर संयम, सत्य, शौच, त्याग, क्षमा आदि से उत्पन्न शुभ परिणाम । और स्वभाव से अतिरौद्र चित्त था। वीवच० १८.११२-११३ इसकी सुन्दर स्त्री, कामदेव के समान सुन्दर शरीर, शुभ वचन, करुणा से आयु पैंसठ हजार वर्ष थी। इसमें दो सौ पचास वर्ष कुमार अवस्था व्याप्त मन, रूप लावण्य सम्पदा, अन्यान्य दुर्लभ वस्तुओं की प्राप्ति, में और चौसठ हजार चार सौ चालीस वर्ष राज्य अवस्था में इसने सर्वज्ञ का वैभव, इन्द्र पद और चक्रवर्ती की सम्पदाएँ इसी से प्राप्त बिताये थे। हपु० ६०.५२८-५२९ इसने चिरकाल तक भोगों का होती हैं । इसके अभाव में विद्याएँ भी साथ छोड़ देती हैं । कोई विद्या भोग किया था। भोगों में आसक्ति के कारण इसने नरकायु का बन्ध भी सहयोग नहीं कर पाती । मपु० ५.९५, १००, १६.२७१, २८. किया और अन्त में रौद्रध्यान के कारण मरकर तमःप्रभा नामक छठे २१९, ३७.१९१-१९९, वीवच० १७.२४-२६, ३५-४१ नरक में उत्पन्न हुआ। यह नारायणों में छठा नारायण था। मपु० (२) भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । ६५.१८८-१८९, १९२ मपु० २४.४२, २५.१३५ (७) विदेह क्षेत्र का देश । पपु० ६४.५० पुण्यकथा-प्रेसठ शलाका-पुरुषों का जीवन चरित। इसके श्रवण से (८) सातवाँ रुद्र । इसकी अवगाहना साठ धनुष, आयु पचास । त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) की प्राप्ति होती है। मपु० २.३१, लाख वर्ष थी। यह दक्ष पूर्व का पाठी था। मरकर नरक गया । हपु० ६०.५३५-५४७ पुण्यकृत्-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३७ पुण्डरीकाक्ष-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० पुण्यगण्य-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४२ २५.१४४ पुण्यगी:--सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३६ पुण्डरीकिणी-(१) जम्बद्वीप के महामेरु से पूर्व दिशा की ओर पूर्व पुण्यधी-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३७ विदेहक्षेत्र में स्थित पुष्कलावती देश की राजधानी। यशोधर मुनि पुण्यनायक--भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । इसी नगर के मनोहर नामक उद्यान में केवली हुए थे । नारदमुनि ने ___ मपु० २४.१३७, २५.१३६ यहाँ सीमन्धर जिनेन्द्र के दर्शन किये थे। यह नगरी बारह योजन पुण्यबन्ध-शुभ की प्राप्ति का साधन । यह सरागियों को उपादेय तथा लम्बी और नौ योजन चौड़ी है और एक हजार चतुष्पथों और द्वारों मुमुक्षुओं को हेय है । इसका बन्ध अविरत सम्यग्दृष्टि, देशव्रती गृहस्थ से युक्त है । इसमें बारह हजार राजमार्ग हैं। मधुक बन जिसमें और सकलव्रती सराग संयमी के होता है। ऐसे ही जन पुण्यास्रव पुरूरवा भील रहता था, इसी नगरी का वन था । मपु० ६.२६, ४६. और पुण्यबन्ध से तीथंकरों की विभूति भी प्राप्त करते हैं। मिथ्या१९, ५८,८५-८६, ६३.२०९-२१३. हपु० ५.२५७, २६३-२६५, दृष्टि जीव भी पापकर्मों का मन्द उदय होने पर भोगों की प्राप्ति के ४३.९०, बीवच० २.१५-१९ यह नगरी ऋषभनाथ, अजितनाथ, संभवनाथ और शान्तिनाथ के पूर्वभवों की राजधानी है। प्रथम लिए शारीरिक क्लेश आदि सहकर पुण्यास्रव और पुण्यबन्ध दोनों चक्रवर्ती भरतेश का जीव पीठ नामक राजकुमार, मघवा नामक करते हैं । बीवच० १७.५०-५५, ६१ चक्रवर्ती के पूर्वंभव का जीव, प्रथम बलभद्र अचल के पूर्वभव का जीव पुण्यमूति-भविष्यत्कालीन तेरहवें तीर्थकर । हपु०६०.५६० निवासी पप० २०११-१७. १२४-१२६ पुण्ययज्ञक्रिया-एक दीक्षान्वय क्रिया । इससे पुण्य को बढ़ानेवाली चौदह १३१-१३३, २२९ एक नगरी घातकीखण्ड के पूर्व विदेहक्षेत्र में भी पूर्व विद्याओं का अर्थ-श्रवण होता है । मपु० ३८.६४, ३९.५०. है । मपु० ७.८०-८१ पुण्यराशि-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. (२) रुचकवर द्वीप मे रुचकवर पर्वत के उत्तर दिशावर्ती आठ २१७ कूटों में तीसरे अंजनक नामक कूट की निवासिनी दिक्कुमारी देवी । पुण्डरीकाक्ष-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५. यह हाथ में चंवर धारण कर तीर्थकर की माता की सेवा करती है। १४४ इसके चँवर-दण्ड स्वर्णमयी होते हैं । हपु० ५.६९९,७१५-७१७, ८. पुण्यवाक्-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३६ ११२-११३, ३८.३५ पुण्यशासन-सौधर्मेन्द्रद्वारा स्तुत, वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. पुण्ड-(१) वृषभदेव की प्रेरणा से इन्द्र द्वारा निर्मित गौड (वंग) देश । ३७ वृषभदेव ने यहाँ के भव्य जीवों को सम्बोधित किया था। मपु० १६. पुण्यापुण्यनिरोधक-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० १४३-१५२, २५.२८७-२८८, २९.४१ २५.१३७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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