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________________ जैन पुराणकोश : २२५ पुण्णास्त्रव-पुराण पुण्यात्रव-पुण्य की प्राप्ति । यह सरागी जीवों को उपादेय किन्तु मुमुक्षुओं के लिए हेय होता है । वीवच० १७.५० पुत्र-(१) तीर्थकर महावीर के सातवें गणधर । मपु० ७४.३७३, वीवच० १९.२०६-२०७ (२) काम पुरुषार्थ का फल । मपु० २.४६ पद्गल-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त द्रव्य । यह मूर्तीक जड़ पदार्थ वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त एक द्रव्य है । इसके दो भेद होते हैं-स्कंघ और अणु । इस द्रव्य का विस्तार दो परमाणुवाले द्वषणुक स्कन्ध से लेकर अनन्तानन्त परमाणुवाले महास्कन्ध तक होता है। इसके छः भेद है-सूक्ष्मसूक्ष्म, सूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, स्थूल सूक्ष्म, स्थूल और स्थूल स्थूल । अदृश्य और अस्पृश्य रहनेवाला अणु सूक्ष्म-सूक्ष्म है। अनन्त प्रदेशों के समुदाय रूप होने से कर्म-स्कन्ध सूक्ष्म पुद्गल कहलाते है । शब्द, स्पर्श, रस और गन्ध सूक्ष्मस्थूल हैं, क्योंकि चक्षु इन्द्रिय के द्वारा इनका ज्ञान नहीं होता इसलिए तो ये सूक्ष्म हैं और कर्ण आदि इन्द्रियों द्वारा ग्रहण हो जाने से ये स्थूल हैं। छाया, चाँदनी और आतप स्थूल सूक्ष्म हैं क्योंकि चक्षु इन्द्रिय द्वारा दिखायी देने के कारण ये स्थूल हैं और विघात रहित होने के कारण सूक्ष्म हैं अतः ये स्थूलसूक्ष्म है । पानी आदि तरल पदार्थ जो पृथक् करने पर मिल जाते हैं, स्थूल है। पृथिवी आदि स्कन्ध भेद किये जाने पर फिर नहीं मिलते इसलिए स्थूल-स्थूल है। मपु० २४.१४४-१५३, हपु० २.१०८, ५८. ५५, ४.३ शरीर, वचन, मन, श्वासोच्छ्वास और पाँच इन्द्रियाँ आदि सब इसी की पर्याय है। एक अणु से शरीर की रचना नहीं होती, किन्तु अणुओं के समूह से शरीर बनता है। इसकी गति और स्थिति में क्रमशः धर्म और अधर्म द्रव्य सहकारी होते हैं। वीवच० १६.१२६-१३० पुद्गलात्मा-प्रथम अग्रायणीयपूर्व की पंचम वस्तु के बीस प्राभूतों में कर्म प्रकृति नामक चौथे प्राभूत के चोबीस योगद्वारों में उन्नीसवाँ योगद्वार । हपु० १०.८१-८६ दे० अग्रायणीयपूर्व पुनर्वसु-(१) अरिष्टनगर का नृप। इसने तीर्थंकर शीतलनाथ को दीक्षोपरान्त आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे। मपु० ५६. ४६-४७ (२) एक नक्षत्र । तीर्थकर अभिनन्दननाथ का जन्म इसी नक्षत्र में हुआ था। पपु० २०.४० (३) लक्ष्मण के पूर्वभव का नाम । पपु० २०.२०७, २११ (४) प्रतिष्ठपुर नगर का स्वामी और विदेहक्षेत्र में स्थित पुण्डरीक देश के चक्रधर नगर के चक्री त्रिभुवनानन्द का सामन्त । इसने त्रिभुवनानन्द की पुत्री अनंगशरा का अपहरण किया था। परिस्थितिवश उसे अनंगशरा को छोड़ना पड़ा। श्वापद अटवी में दुखी होकर अनंगशरा ने व्रत लिये और सल्लेखना से मरण प्राप्त किया। उसे न पाकर पुनवंसु ने द्रुमसेन मुनि से ही दीक्षा ली और अन्त में निदानपूर्वक मरण करके तप के प्रभाव से स्वर्ग में देव हआ और वहाँ से च्युत होकर लक्ष्मण हुआ । पपु० ६४.५०-५५, ९३-९५ २९ पुन्नागपुर-जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र के दक्षिण भाग में स्थित एक महान् नगर । भरतेश ने यहाँ के राजा को पराजित किया था। मपु० २९. ७९,७१.४२९ पुन्नाट-एक संघ । हरिवंशपुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन इसी संघ के थे। हपु० ६६.५४ पुमान्-(१) भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३१, २५.१४२ (२) जीव का पर्यायवाची शब्द । अच्छे-अच्छे भोगों में शयन करने से यह पुरुष कहलाता है। यह अपने पौरुष से अपने कुल और जन्म को पवित्र करता है । गुणहीन केवल नाम से ही पुरुष होते हैं । वे चित्रांकित वा तृण अथवा काष्ठ आदि ते निर्मित पुरुष सदृश होते हैं। __ मपु० २४.१०३, १०६, २८.१३०-१३१ पुरंजय-कोट, गोपुर ओर तीन-तीन परिखाओं से आवृत्त विजया पर्वत को दक्षिणश्रेणी का सोलहवां नगर । मपु० १९.४३, ५३ पुर-परिखा, गोपुर, अटारी, कोट और प्राकार से शोभित, अनेक भवन, उद्यान और जलाशयों से युक्त प्रधान पुरुषों की आवासभूमि । आदिनाथ के समय में ऐसे अनेक नगर निर्मित किये गये थे। मपु० १६. १६९-१७०, हपु० ९.३८ । पुरन्दर-(१) मन्दरकुजनगर के राजा मेरुकान्त और उसकी भार्या श्रीरम्भा का पुत्र । यह रथनूपुर नगर के राजा अशनिवेग की पौत्री श्रीमाला के स्वयंवर में आया था । पपु० ६.३५९, ४०८-४०९ . (२) विनीता नगरी के राजा सुरेन्द्र मन्यु और उसकी रानी कोतिसभा का द्वितीय पुत्र , वबाहु का सहोदर। इसकी भार्या का नाम पृथिवीमती था। यह संसार से विरक्त हो गया था और अपने पुत्र कीर्तिधर को राज्य देकर क्षेमंकर मुनि से दीक्षित हो गया था । पपु० २१.७३-७७, १४०-१४३ (३) शक्र (इन्द्र)। मपु० १६.१७७, हपु० २.२९ (४) जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.२९-४० पुरबल-विजयाध पर्वत की अलकापुरी का स्वामी। इसकी रानी का पुरबल-वजय नाम ज्योतिर्माला तथा पुत्र का नाम हरिबल था। इसने मुनिराज अनन्तवीर्य के पास संयम ले लिया था। यह मरकर स्वर्ग में देव हुआ । वहाँ से च्युत होकर यह कृष्ण की पटरानी सत्यभामा हुआ। मपु० ७१.३११-३१५ पुराण-(१) पुरातन महापुरुषों से उपदिष्ट मुक्तिमार्ग की ओर ले जाने वाले वेसठ शलाका पुरुषों के चरित्र के वर्णन से युक्त रचनाएं। ये ऋषि-प्रणीत होने से आर्ष, सत्यार्थ का निरूपक होने से सूक्त, धर्म का प्ररूपक होने से धर्मशास्त्र तथा इति + है, + आस् यहाँ ऐसा हुआ यह बताने के कारण इतिहास कहलाते हैं। मपु० १.१९-२६ इनमें क्षेत्र, काल, तीर्थ, सत्पुरुष और उनकी चेष्टाओं का वर्णन रहता है । क्षेत्र रूप से ऊर्ध्व, मध्य और पाताल लोक का, काल रूप से भूत, भविष्यत् और वर्तमान का, तीर्थ रूप से सम्यग्दर्शन-ज्ञान और चारित्र Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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