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________________ पिंगलगांधार-पुणरीका बैन पुराणकोश : २२३ (२) वसुदेव का पुत्र । हपु० ४८.६३ ।। पिंगलगांधार-(१) भरत क्षेत्रस्थ विजया पर्वत की उत्तरश्रेणी में मनोहर देश के रत्नपुर नगर का राजा। इसकी रानी सुप्रभा तथा पुत्री विद्यु प्रभा थी । मपु० ४७.२६१-२६२, पापु० ३.२६४-२६५ (२) वसुदेव का हितचिन्तक एक विद्याधर । हपु० ५१.१-४ पिठर-थाली, बटलोई। यह भोजनशाला का एक पात्र है। मपु० ५. पिठरक्षत-मुनि कुम्भकर्ण की निर्वाण-स्थली। यह नर्मदा नदी के तट पर स्थित एक तीर्थ है । पपु० ८०.१४० पिण्डशुद्धि-भोजनशुद्धि । हपु० २.१२४ पिण्डार-श्रावस्ती की गोशाला का अधिकारी। यह एक गोपाल था। हपु० २८.१९ पिता-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४२ पितामह-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४२, ४४.२८ पितृमेध–एक यज्ञ । इसमें पिता को होमा जाता है। राजा वसु के समय में नारद और पर्वत का अज शब्द के अर्थ पर विवाद हुआ था। पर्वत मरकर एक राक्षस हुआ। उसने इस प्रकार के यज्ञों का प्रचार किया । पपु० ११.८६ पिपास-प्रथम पृथिवी के प्रथम प्रस्तार में सीमान्तक इन्द्रक बिल की दक्षिण दिशा में स्थित महानरक । इसमें दुर्वर्ण नारकी रही हैं । हपु० ४.१५१-१५२ पिपासा-एक परीषह । इस परीषह में मार्ग से च्युत न होने के लिए पिपासा को सहन किया जाता है । मपु० ३६.११६ पिप्पला-राजा अकम्पन की पुत्री । यह विद्याधरों के राजा धरकीकंप की पुत्री सुखावती की सखी थी। मपु० ४७.७५-७६ पिप्पलाद-याज्ञवल्क्य और सुलसा का पुत्र । इसके माता-पिता इसे पीपल के वृक्ष के नीचे रखकर कहीं चले गये थे। इसकी मौसी भद्रा ने इसका पिप्पलाद नाम रखकर पालन पोषण किया था। हपु० २१. १३८-१३९ पिहितात्रव-(१) तीर्थकर पद्मप्रभ तथा सुपार्श्वनाथ के पूर्वभव के गुरु । पपु० २०.२५-३०, हपु० ६०.१५९ (२) वैजयन्त तथा उनके दोनों पुत्र संजयन्त और जयन्त मुनियों के साथ विहरणशील आचार्य । हपु० २७.५-८.९३ (३) अयोध्या के राजा जयवर्मा और रानी सुप्रभा के अजितंजय नामक पुत्र । अगिनन्दन स्वामी की वन्दना करते हुए इनका पापात्रव रुक गया था। इसी से इसका नाम पिहितास्रव हो गया । मन्दिरस्थविर मुनि से ये दीक्षित होकर केवली हुए। चारणचरित वन के अम्बरतिलक पर्वत पर इन्होंने निर्नामा का उसके पूर्वभव की बात बताकर भविष्य सुधारने के लिए जिनेन्द्र गुणसम्पत्ति और श्रुतज्ञानव्रत करने का उपदेश दिया था। मपु० ६.१२७-१४१, २०२-२०३, ७. ५२,९६ प्रभाकरी नगरी के राजा प्रीतिवर्धन ने भी इनको आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे। मपु०८.२०२-२०३ सुसीमा नगर का राजा अपराजित भी इन्हीं से दीक्षित हुआ था। मपु० ५२.३, १३,५९. २४४ (४) विजयभद्र प्रजापति और सहस्रायुध के दीक्षागुरु । मपु० ६२. ७७, १५४, ६३.१६९ (५) पाण्डवों और बलराम के दीक्षागुरु । पापु० २२.९९ पोठिका-(१) विदेह क्षेत्र के जम्बस्थल में निर्मित इस नाम का एक स्थान । यह मूल में १२, मध्य में ८, और अन्त में ४ कोस चौड़ी है। इसके नीचे चारों ओर छ: वेदिकाएं हैं। यहाँ देवों के तीस योजन चौड़े और पचास योजन ऊँचे अनेक भवन निर्मित है। हपु० ५. १७१-१८२ (२) महापुराण के प्रथम तीन पर्वो की विषयवस्तु । मपु० ४.२ पीठिकामंत्र-गृहस्थ को संस्कार युक्त करने के लिए की जानेवाली गर्भाधान आदि क्रियाओं में सिद्ध पूजन पूर्वक प्रयुक्त मंत्र । ये मंत्र सात प्रकार के होते हैं—पीठिका, जाति, निस्तारक, ऋषि, सुरेन्द्र, परमराजादि और परमेष्ठी । पीठिका मन्त्र निम्न प्रकार हैसत्यजाताय नमः, अर्हज्जाताय नमः, परमजाताय नमः, अनुपमजाताय नमः, स्वप्रधानाय नमः, अचलाय नमः, अक्षयाय नमः, अध्याबाधाय नमः, अनन्तज्ञानाय नमः, अनन्तदर्शनाय नमः, अनन्तवीर्याय नमः, अनन्तसुखाय नमः, नीरजसे नमः, निर्मलाय नमः, अच्छेद्याय नमः, अभद्याय नमः, अजराय नमः, अमराय नमः, अप्रमेयाय नमः, अगर्भवासाय नमः, अक्षोभ्याय नमः, अविलीनाय नमः, परमघनाय नमः, परमकाष्ठायोगरूपाय नमः, लोकाग्रवासिने नमो नमः, परमसिद्धेभ्यो नमो नमः, अनादि परम्परसिद्धेभ्यो नमो नमः, अनाद्यनुपम सिद्धेभ्यो नमो नमः, सम्यग्दृष्टे-सम्यग्दृष्टे, आसन्नभव्य-आसन्नभव्य, निर्वाणपूजाह-निर्वाणपूजाहं अग्नीन्द्र स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । मपु० ४०.१०.२५, ७७ पुण्डरीक-(१) पुष्करवरद्वीप का रक्षक देव । हपु० ५.६३९ (२) विजयाध पर्वत की दक्षिणश्रेणी के पचास नगरों में एक नगर। यह नगर कोट, गोपुर और तीन परिखाओं से युक्त है । मपु० १९.३६, ५३ (३) छः कुलाचलों के मध्य स्थित हूद (सरोवर)। यह स्वर्णकूला, रक्ता और रक्तोदा नदियों का उद्गम स्थान है। मपु० ६३.१९८, हपु० ५.१२०-१२१, १३५ (४) अंगबाह्यश्रुत के चौदह प्रकीर्णकों में एक प्रकीर्णक । इसमें देवों के अपवाद का वर्णन किया गया है। हपु० २.१०१-१०४, १०.१३७ (५) पुण्डरीकिणी नगरी के राजा वज्रदन्त का पौत्र और अमिततेज का पुत्र । इसे शिशु अवस्था में ही वदन्त से राज्य प्राप्त हो गया था। मपु०८.७९-८८ (६) चक्रपुर नगर के राजा वरसेन तथा रानी लक्ष्मीमती का पुत्र। इसका विवाह इन्द्रपुर के राजा उपेन्द्रसेन की पुत्री पद्मावती Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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