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________________ मारव-निकुज जैन पुराणकोश : १९९ (६) एक देव । यह कृष्ण की पटरानी लक्ष्मणा का पूर्वभव का जीव था। हपु० ७.७७-८१ नारसिंह-कृष्ण का पक्षधर एक राजा । हपु० ५१.३ नारायण-(१) तीर्थंकर कुन्थुनाथ का मुख्य प्रश्नकर्ता । मपु० ७६.५३१ (२) तीर्थकर शान्तिनाथ का पुत्र । हपु० ४५.१८-१९, पापु० है । ये जटा मुकुट, कमण्डलु, यज्ञोपवीत, काषायवस्त्र और छत्र धारण करते हैं । ये ब्रह्मचारी होते है। ये धर्म में रत होते हुए भी हिंसादोष के कारण नरकगामी होते हैं । पर जिनेन्द्र भक्त और भव्य होने के कारण इन्हें परम्परा से मुक्ति मिलती है। वर्तमान काल के नौ नारद ये है-भीम, महाभीम, रुद्र, महारुद्र, काल, महाकाल, चतुर्मुख, नरवक्त्र और उन्मुख । पुराणों में नारद नाम के कुछ व्यक्तियों की सूचनाएँ निम्न प्रकार है (१) वसुदेव और रानी सोमश्री का ज्येष्ठ पुत्र, मरुदेव का सहोदर । हपु० ४८.५७ (२) आगामी बाईसवें तीर्थंकर का जीव । मपु० ७६.४७४ (३) गान विद्या का एक आचार्य । पपु० ३.१७९, हपु० १९.१४० (४) भरतक्षेत्र में धवलदेश की स्वस्तिकावती नगरी के निवासी क्षीरकदम्बक नामक विद्वान् ब्राह्मण अध्यापक का शिष्य । यह इसी नगरी के राजा विश्वावसु के पुत्र वसु और गुरु-पुत्र पर्वत का सहपाठी था। "अजैातव्यम्" का अर्थ निरूपण करने में इसका पर्वत के साथ विवाद हो गया था। इसका कथन था कि जिसमें अंकुर उत्पन्न करने की शक्ति नष्ट हो गयी है ऐसा तीन वर्ष पुराना 'जी'' अज है जबकि पर्वत "अज" का अर्थ "पशु" बताता था। पर्वत के विवाद और शर्त जानकर पर्वत की माँ राजा वसु के पास गयी तथा उसके उसने पर्वत की विजय के लिए उसे सहमत कर लिया। राजा वसु ने पर्वत को जैसे ही विजयी घोषित किया कि उसका सिंहासन महागतं में निमग्न हो गया। इससे प्रभावित होकर प्रजा ने नारद को 'गिरितट' नाम का नगर प्रदान किया । अन्त में यह देह त्याग कर सर्वार्थसिद्धि गया। मपु० ६७.२५६-२५९, ३२९-३३२, ४१४-४१७, ४२६, ४३३, ४४४, ४७३, पपु० ११.१३-७४, हपु० १७.३७-१६३ (५) कृष्ण के समय का नारद । यह उंछवृत्ति से रहनेवाले सुमित्र और सोमयशा का पुत्र था। इसके माता-पिता उंछवृत्ति से भोजनसामग्री एकत्र करने के लिए चले गये और इसे एक वृक्ष के नीचे छोड गये । यहाँ से जम्भक नामक देव इसे वैताढ्य पर्वत पर ले गया और मणिकांचन गुहा में दिव्य आहार से उसने इसका लालन-पालन किया। आठ वर्ष की अवस्था में इसे देवों ने आकाशगामिनी विद्या दी। इसने संयमासंयम धारण किया। काम-विजेता होकर भी यह काम के समान भ्रमणशील था। यह निर्लोभी, निष्कषायी और चरम-शरीरी था। हपु० ४२.१६-२४ यह अपराजित की सभा में आया था। वह नर्तकियों के नृत्य में लीन था, इसलिए इसे नहीं देख सका । क्रुद्ध होकर यह राजा दमितारि के पास आया । उसे उन नर्तकियों को लाने के लिए प्रेरित किया। अपराजित अधिक शक्तिशाली था इसलिए उसने दमितारि के सारे प्रयत्न विफल कर दिये अन्त में दमितारि के द्वारा छोड़े हुए चक्र से अपराजित ने दमितारि को मार दिया। पापु० ४.२५५-२७५ इसी ने पद्नाभ के द्वारा द्रौपदी का हरण कराया था। इसमें भी पनाभ सफल नहीं हो सका था। पापु० २१.१० (३) राक्षसास्त्र का ध्वंसक एक अस्त्र । हपु० ५२.५४ (४) बलभद्रों के नौ भाई। ये है-त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयंभू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुण्डरीक, दत्त, लक्ष्मण और कृष्ण । पापु० २०.२२७ टिप्पणी, हपु० ६०.२८८-२८९ दे० प्रत्येक का नाम नारिकेलवन-दक्षिण में सिंहल के निकट का एक बन । यहाँ प्रधानता से नारियल के पेड़ उगते हैं। भरतेश की सेना यहाँ आयी थी। मपु० ३०.१३-१४ नारी-चौदह महानदियों में एक महानदी। यह महापुण्डरीक पर्वत से निकलती है। मपु० ६३.१९६, हपु० ५.१२४, १३४ (२) वृषभदेव के समय में कन्या और पुत्र दोनों की स्थिति समान थी। दोनों को शिक्षा-दीक्षा के समान अवसर थे। नारी को धूमनेफिरने की समान स्वतन्त्रता थी। दुराचारी पुरुषों की तरह दुराचारिणी स्त्रियाँ भी समाज में निन्द्य मानी जाती थीं। मपु० ४.१३० १४०, ६.८३, १०२, १६९, १६.९८, ४३.२९ नारीकूट-रुक्मि-कुलाचल का चौथा कूट । हपु० ५.१०३ नालिका-पूर्व आर्यखण्ड की एक नदी । भरतेश की सेना इस नदी पर ___ आयी थी। मपु० २९.६१ नासारिक-भरतक्षेत्र के पश्चिमी आर्यखण्ड का एक देश । यहाँ का शासक भरतेश का छोटा भाई था जिसने भरतेश को अधीनता स्वीकार न करके दीक्षा ग्रहण कर ली थी। हपु० ११.७२ निःकषाय-भावी चौदहवें तीर्थकर । मपु० ७६.४७९, हपु० ६०.५६० दे. तीर्थकर निःकांक्षित-सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में दूसरा अंग। इसमे इस लोक और परलोक सम्बन्धी भोगों की आकांक्षाओं का त्याग किया जाता है। मपु० ६३.३१४, वीवच० ६.६४ . निःक्राम-तालगत गान्धर्व के बाईस भेदों में एक भेद । हपु० १९.१५० निःकुन्दरी-भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की एक गहरी नदी। भरतेश की सेना ने इसे घेर लिया था । मपु० २९.६१ निःकृतिवाक्य-सत्यप्रवाद नामक छठे पूर्व में वर्णित बारह प्रकार की भाषा का आठवाँ भेद । यह ऐसी भाषा है जिससे दूसरों को प्रवंचित किया जाता है । हपु० १०.९५ निकाचित-कर्म-कर्मों का एक भेद । ऐसे कर्म जिनका फल नियम से भोगना ही पड़ता है। इनका अन्य प्रकृति रूप संक्रमण या उत्कर्षण नहीं किया जा सकता । पपु० ७२.९७ निकुंज-(१) एक वन । इस वन में रानी श्रीकामा ने अपने पति राजा कुलंकर को विष देकर मारा था । पपु० ८५.६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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