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________________ २०० : जेन पुराणकोश (२) पर्वत । यहाँ मुनि मृदुमति का जीव स्वर्ग से च्युत होकर हाथी की पर्याय में आया था। पपु० ८५.१५१ निकोत - अनन्त दुःखों का सागर निगोद । नास्तिक, दुराचारी, दुर्बुद्धि विषयासक्त ओर तीव्र मिथ्यात्वी जोव यहाँ उत्पन्न होते हैं और एक श्वास में अठारह बार होनेवाले जन्म-मरण के महादुःख भोगते हैं । वीवच० १७.७८-८० निक्षेप - द्रव्यों के निर्णय के चार उपायों में एक उपाय । मपु० २.१०१, ६२.२८ निक्ष पादानसमिति – मुनि की पाँच समितियों में चौथी समिति | इसमें वस्तुओं को देखकर रखा और उठाया जाता है । हपु० २.१२५ निक्ष पाधिकरण - अजीवाधिकरण आस्रव के भेदों में एक भेद । यह चार प्रकार का होता है-सहसानिक्षेपाविकरण, दुष्प्रमुष्टनिपाि करण, अनाभोगनिक्षेपाधिकरण और अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरण | इनमें शीघ्रता से किसी वस्तु को रख देना सहसानिक्षेप, दुष्टतापूर्वक साफ की हुई भूमि में किसी वस्तु को रखना मृष्टनिक्षेप अभ्य वस्था के साथ चाहे जहाँ किसी वस्तु को रख देना अनाभोगनिक्षेप और बिना देखी शोधी भूमि में किसी वस्तु को रख देना अप्रत्यवेक्षितनिक्षेप है । हपु० ५८.८४-८८ निक्षं पिणो (१) अर्ककीर्ति के पुत्र अमितौज ने अन्य अनेक विधाओं के साथ यह विद्या भी सिद्ध की थी। मपु० ६२.३९१-४०० (२) चतुविध कथाओं में एक प्रकार की कथा । इसमें अपने पक्ष का प्रतिपादन किया जाता है । पपु० १०६.९२ निगड - बेड़ी । सैन्य सामग्री का एक अंग । मपु० ४२.७६-७८ निगलनिदान जीव की कर्मबन्धन की स्थिति को बतलाने के लिए बेड़ी से बँधे हुए व्यक्ति की उपमा। जिस प्रकार बड़ी से बँधा हुआ व्यक्ति अपने इष्ट स्थान पर नहीं पहुँच सकता उसी प्रकार कर्मबद्ध जीत्र भी अपने इष्ट स्थान पर नहीं पहुँच सकता । मपु० ४२.७६-७८ निगोत — एकेन्द्रिय जीवों का जन्मस्थान- निगोद । यहाँ खोलते हुए जल में उठने वाली खलबलाहट के समान जीवों का अनेक बार जन्म-मरण होता है । मपु० १०.७, ३८.१८ निगोद - ( १ ) नारकियों के उत्पत्ति स्थान । हपु० ४.३४७-३५३ (२) एकेन्द्रिय जीवों का उत्पत्ति स्थान । इसमें पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति कायों के जीव उत्पन्न होते हैं। ये जीव अनेक कुयोनियों तथा कुलकोटियों में भ्रमण करते हैं । इसके दो भेद है— निस्प-निगोद और इतर निमद ० १८.५४८५७ निथुरामरायक्षेत्र के आसण्ड की एक नदी भरतेश को सेना अरुणा नदी से चलकर यहाँ आयी थी । मपु० २९.५० नित्य - भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४४, २५.१२० नित्यनिगोव- निगोद के दो भेदों में प्रथम भेद । यहाँ उत्पन्न जीवों की सात लाख योनियां होती है। पु० १८.५७ नित्यमह—चतुर्विध अर्हत्पूजा का प्रथम भेद । इसका अपर नाम सदाचन Jain Education International निकोल - निपुणमति है। इस पूजा में प्रतिदिन अपने घर से गन्ध, पुष्प और अक्षत आदि लेकर जिनालय में जिनेन्द्र की पूजा करना, भक्तिपूर्वक अन्तदेव की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाना और मन्दिर का निर्माण कराना, दानपत्र लिखकर ग्राम खेत आदि का दान देना तथा शक्ति के अनुसार नित्य दान देते हुए महामुनियों की पूजा करना सम्मिलित है । मपु० ३८.२६-२९ नित्यवाहिनी विजया की दक्षिणक्षणो को पचास नगरियों में एक नगरी । मपु० १९.५२ नित्यलोकपातकी खण्ड द्वीप के पूर्व भरतक्षेत्र में स्थित विजयार्थ पर्वत की दक्षिणश्र ेणी का एक नगर । मपु० ७१.२४९-५०, हपु० ३३.१३१ (२) इस नाम के नगर का इसी नाम का एक नृप । इसकी पुत्री रत्नावली को दशानन ने विवाहा था । पपु० ९.१०२-१०३ (२) रुचकगिरि के दक्षिण भाग का एक कूट। यह कनकचित्रा देवी की निवासभूमि है ०५.७१९ नित्योद्योत - रुचकगिरि की उत्तर दिशा का एक कूट। यह सूत्रामणि देवी की निवासभूमि है । हपु० ५.७२० नित्योद्योतिनी विजयार्ध पर्वत को दक्षिणश्र ेणी की पचास नगरियों में - छियालीसवीं नगरी । मपु० १९.५२ निदाघ - तीसरी बालुकाप्रभा पृथिवी के पंचम प्रस्तार का इन्द्रक बिल । हपु० ४.१२२ निदान - चार प्रकार के आत्तध्यान में तीसरे प्रकार का आत्तंध्यान । यह भोगों की आकांक्षा से होता है। दूसरे पुरुषों की भोगोपभोग की सामग्री देखने से संक्लिष्ट चित्तवाले जीव के यह ध्यान होता है । मपु० २१.३३ (२) सल्लेखना के पाँच अतिचारों में तीसरा अतिचार । इसमें आगामी भोगों की आकांक्षा होती है । हपु० ५८. १८४ निदानप्रत्यय - अनुपलब्ध इष्ट पदार्थ के चिन्तन से हुआ आर्त्तध्यान । मपु० २१.३४ नतानित्तक अग्रायणीपूर्व की पंचम वस्तु के सातों में कर्म प्रकृति नामक चतुर्थ प्राभूत के चौबीस योगद्वारों में बी योगद्वार हपु० १०.८१-८५ दे० अग्रायणीयपूर्व निधि - ( १ ) समवसरण के गोपुरों के बाहर विद्यमान शंख आदि नी निधियां । मपु० २२.१४६-१४७ (२) चक्रवर्ती की नौ निधियाँ -काल, महाकाल, नस्सर्प, पाण्डुक, पद्म, माणव, पिंग, शंख और सर्वरत्न पद । जो मुनि अपना घन छोड़कर निर्मम हो जाते हैं उनकी दूर से ये निधियाँ सेवा करती हैं। मपु० ३७.७३-७४, ३९.१८५, हपु० ११.११० १११, वीवच० ५. ४५, ५७-५८ निधीश्वर - नन्दीवर द्वीप का कुबेर नामक देव । मपु० ७२.३३ निगमति सिंहपुर नगर की रानी रामदत्ता की धाम इसे बीभूति पुरोहित के यहाँ से सुमित्रदत्त के रत्न लाने के लिए भेजा गया था । हपु० ० २७.२० ३८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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