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________________ १९८ : जैन पुराणकोश नाड़ी-नारद नाट्यशालाओं की रचना होती है। ये तीन-तीन खण्ड की होती है। मपु० २२.१४८-१५५ नाड़ी-दो किष्कु-चार हाथ प्रमाण माप । अपरनाम दण्ड, धनुष । हपु० ७.४६ नाथता-पारिव्राज्य सम्बन्धी नवम सूत्रपद । इसमें मुनि इस लोक संबंधी स्वामित्व का परित्याग करके जगत के जीवों के सेव्य हो जाते हैं। मपु० ३९.१६३, १७७ नाथवंश-तीर्थकर आदिनाथ द्वारा स्थापित तथा भरतेश द्वारा वद्धित एवं पालित वंश । अकम्पन इस वंश का अग्रणी नृप था। महावीर के पिता राजा सिद्धार्थ इसी वंश के थे । मपु० १६.२६०, ४३.१४३, ४४, ३७, ४५.१३४, ७५.८, पापु० २.१६४ नानर्षि नारद । यह ऋषियों के समान संयमी तथा बालब्रह्मचारी होता है । पापु० १७.७५, ८०, ८२ नानकतत्त्वदृक्-सौधर्मेन्द्र देव द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८७ मान्ची-(१) छठा बलभद्र । हपु० ६०.२९० (२) नाटक के आदि में गेय एक मंगल गान । इसके पश्चात् ही नाटक के पात्र रंगभूमि में प्रवेश करते हैं । मपु० १४.१०७ ।। नान्वीबद्धना-रुचकपर्वत के अंजनकूट की निवासिनी दिक्कुमारी देवी । हपु० ५.७०६ नान्वीश्वरी-पूजा-आष्टाह्निक पूजा। यह कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ के अन्तिम आठ दिनों में की जाती है । मपु० ६३.२५८ नाभान्त-विजया की दक्षिणश्रेणी के पचास नगरों में चौबीसवाँ नगर । हप० २२.९६ नाभि-(१) वर्तमान कल्प के चौदहवें कुलकर । इनके समय में कल्पवृक्ष सर्वथा नष्ट हो गये थे । भोगभूमि की व्यवस्था समाप्त हो गयी थी। उत्पन्न होते ममय शिशु की नाभि में नाल दिखाई देने लगा था। उसे काटने का उपाय सुझाने और आज्ञा देने से ये इस नाम से विख्यात हए । इनकी आयु एक करोड़ पूर्व और शारीरिक ऊँचाई पाँच सौ पच्चीस धनुष थी । इनके समय में काल के प्रभाव से पुद्गल परमाणुओं में मेघ बनाने की सामर्थ्य उत्पन्न हो गयी थी। मेघ गम्भीर गर्जना के साथ पानी बरसाने लगे थे। कल्पवृक्षों का अभाव हो गया था । इन्होंने प्रजा को सम्बोधित करते हुए कहा था कि पके हुए फल भोग्य है । मसालों के प्रयोग से अन्न आदि को स्वादिष्ट बनाया जा सकता है। ईख का रस पेय है। इन्होंने मिट्टी के बर्तन बनाना सिखाया था । पूर्वभव में ये विदेह क्षेत्र में उच्च कुलीन महापुरुष थे। इन्होंने उस भव में पात्र दान, व्रताच रण आदि से सम्यग्दर्शन प्राप्त कर भोगभूमि की आयु का बन्ध किया था। क्षायिक सम्यग्दर्शन तथा श्रुतज्ञान को प्राप्ति होने से ये आयु के अन्त में मरकर भरतक्षेत्र में उत्पन्न हुए थे। ये प्रजा के जीवन का उपाय जानने से मनु, आर्यपुरुषों को कुल को भाँति इकट्ठा रहने का उपदेश देने से कुलकर, तथा वंश-संस्थापक होने से कुलधर और युग के आदि में होने से युगादिपुरुष कहे गये हैं । ये कुलकर प्रसेनजित् के पुत्र थे। इनके देह की कान्ति तपाये हुए स्वर्ण के समान थी। इन्होंने मरुदेवी के साथ विवाह किया था। अयोध्या की रचना इस दम्पति के निवास हेतु की गयी थी। वृषभदेव इनके पुत्र थे। मपु० ३.१५२-१५३, १६४१६७, १९०, २००-२१२ पपु० ३.८७, ८८, ९५, २१९, हपु. ७. १६९, १७५, पापु० २.१०३-१०८ (२) एक पर्वत । जयकुमार ने म्लेच्छ राजाओं को जीतकर इस पर्वत पर भरतेश की ध्वजा फहरायी थी। श्रद्धावान्, विजयावान्, पद्मवान् और गन्धवान् इन चार वतुलाकार विजयाध पर्वतों का अपरनाम नाभि-गिरि है । ये पर्वत मूल में एक हजार योजन, मध्य में सात सौ पचास योजन और मस्तक पर पांच सौ योजन चौड़े तथा एक हजार योजन ऊँचे है । मपु० ४५.५८, हपु० ५.१६१-१६३ नाभिज-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७१ नाभिनन्दन--सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १७० नाभिनाल-सन्तान की उत्पत्ति के समय नाभि से सम्बद्ध नाल । इसे शिशु के गर्भाशय से बाहर आने पर काट दिया जाता है । मपु० ३.१६४ नाभिराय-चौदहवें कुलकर । मपु० ३.१५२ दे० नाभि नाभेय-(१) नाभि के पुत्र तीर्थकर वृषभदेव । मपु० १.१५, १५.२२२ (२( सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७१ नाम--(१) जीवादि तत्त्वों के निरूपण के लिए अभिहित नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव रूप चतुर्विध निक्षेपों में प्रथम निक्षेप । हप० २. १०८, १७.१३५ (२) पदगत गान्धर्व की एक विधि । हपु० १९.१४९ नामकर्म-प्राणियों के आकारों का सृष्टिकर्ता कर्म । जीव इसीसे विविध नामों को प्राप्त करते हैं । जीवों के शारीरिक अंगों को रचना यही कर्म करता है। इसकी उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ा-कोड़ी सागर तथा जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त तक की होती है। मपु० १५.८७, हपु० ३.९७, ५८.२१७, वीवच० १६.१५२, १५७-१६० नामकर्मक्रिया-गृहस्थ की वपन क्रियाओं में सातवीं किया। इसमें जिनेन्द्र के एक हजार आठ नामों में शिशु का कोई एक अन्वयवृद्धिकारी नामकरण होता है । क्रिया शिशु के जन्म-दिन से बारह दिन के बाद जो दिन माता-पिता और पुत्र के अनुकूल हो उसी दिन की जाती है । इस क्रिया में अपने वैभव के अनुसार अर्हन्त देव और ऋषियों को पूजा की जातो है । मपु० ३८.५५, ८७-८९ नामसत्य-दस प्रकार के सत्य में प्रथम सत्य-व्यवहार चलाने के लिए इन्द्र आदि नाम रख लेना । हपु० १०.९८ । नारक-नरक के जीव । ये विकलांग, हुण्डक-संस्थानी, नपुसक, दुर्गन्धित, दुवर्ण, दुःस्वर, दुःस्पर्श, दुर्भग, कृष्ण और रूक्ष होते हैं । मपु० १०. ९५-९६ दे० नरक नारद-ये नारायणों के समय में होते हैं। ये अतिरुद्र होते हैं और दूसरों को रुलाया करते हैं। ये कलह और युद्ध के प्रेमी होते हैं । ये एक स्थान का सन्देश दूसरे स्थान तक पहुँचाने में सिद्धहस्त होते Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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