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________________ मागवत्ता-नाट्यशीला जैन पुराणकोश : १९७ धन लुटवा दिया था और प्रीतिकर को अपनी पृथिवीसुन्दरी तथा (२) भरतक्षेत्र में अंगदेश की चम्पापुरी के निवासी ब्राह्मण अग्निअन्य बत्तीस कन्याएँ दी थीं। मपु० ७६.२१६-२१८, २३२-२३७, भूति और उसकी पत्नी अग्निला की छोटी पुत्री। यह धनश्री और २९५-३४७ मित्रश्री की छोटी बहिन थी। ये तीनों बहिनें क्रमशः अपने ही नगर नागदत्ता-(१) तीर्थकर धर्मनाथ को शिविका । वे इसमें बैठकर शालवन में फफेरे भाई सोमदत्त, सोमिल और सोमभूति से विबाही गयी थी। में गये थे और वहाँ उन्होंने दीक्षा ली थी। मपु० ६१.३८ सोमदत्त ने धर्मरुचि मुनि को पड़गाहकर इसे आहार कराने के लिए (२) कौमुदी नगर के राजा सुमुख की मदना नामक वेश्या की कहा था । कुपित होकर इसने मुनि को विष मिश्रित आहार दिया । पुत्री। इसकी माँ ने एक तपस्वी के ब्रह्मचर्य की परीक्षा के लिए उसके इस कृत्य से तीनों भाई बहुत दुखी हुए और संसार से विरक्त उसके पास इसे ही भेजा था। इसने तपसी का तप भंग करके राजा होकर वरुण गुरु के समीप दीक्षित हो गये । इसकी दोनों बहिनें भो के समक्ष उसका अभिमान भंग करने में माँ का सहयोग किया था। आर्यिका हो गयीं । पाप के कारण यह मरकर पाँचवें नरक में उत्पन्न पपु० ३९.१८०-२१२ हुई। इसके पश्चात् यह क्रमशः दृष्टिविष सर्प, चम्पापुरी में चाण्डालो, नागपुर-(१) भरतक्षेत्र का एक नगर-हस्तिनापुर । शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ सुकुमारी और अन्त में द्रौपदी हुई। मपु० ७२.२२७-२६३, हपु० और अरहनाथ तीर्थकरों तथा सनत्कुमार और महापद्म चक्रवतियों ६४.४-१३९, पापु० २३.८१-८६, १०३, २४.२-७८ की यह जन्मभूमि है। पपु० १७.१६२, २०.१२, ५२-५४, १५३, नागसुर-नागकुमार देव । यह जयकुमार का मित्र था। इसने जयकुमार को नागपाश और अर्द्धचक्र नामक दो बाण दिये थे । मपु० ४४.३३५, १६४-१७९ पापु० ३.११७ (२) धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व भरतक्षेत्र में सारसमुच्चय देश का नागसेन अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के पश्चात् एक सौ तेरासी वर्ष की एक नगर । मपु० ६८.३-४ नागप्रिय-मध्य भरतखण्ड के चेदि देश के पास का एक पर्वत । भरतेश अवधि में हुए ग्यारह अंग और दस पूर्व के धारी ग्यारह आचार्यों में ने इस पर्वत को लांघकर चेदि देश के हाथियों को अपने वश में किया पाँचवें आचार्य । मपु० २.१४१-१४५, ७६.५२१-५२४ था। मपु० २९.५७-५८ नागहस्ती-व्याघ्रहस्ती आचार्य के शिष्य तथा आचार्य जितदण्ड के गुरु । नागमाल-पश्चिम विदेह का वक्षारगिरि । हपु० ५.२३२ हपु० ६६.२७, ३१ नागमुख-म्लेच्छ राजाओं का कुलदेव । इसने भरतेश की सेना पर नागामर-नागकुमार जाति का देव। यह पूर्वभव में एक सर्प था। घनघोर वर्षा की थी । भरतेश ने अपनी शक्ति से इस वर्षा को विराम । ___ महामुनि शीलगुप्त से धर्म का श्रवण करके यह देव हुआ था। मपु० दिया था । मपु० ३२.५६-६७ .४३.९१ नागरमण-मेरु का एक वन । हपु० ५.३०७ । नागास्त्र-नागरूप एक अस्त्र । इसे नष्ट करने के लिए गरुड़ अस्त्र का नागवती-चम्पा-नगरी के राजा जनमेजय की रानी। यह काल-कल्प व्यवहार किया जाता है। पपु० १२.३३२, हपु० ५२.४८-४९ राजा की चम्पा नगरी को घेर लेने पर पूर्व निर्मित सुरंग से अपनी नागी-कृष्ण की सुसीमा नामक पटरानी के पूर्वभव का जीव-नागकुमारी। पुत्रो के साथ निकलकर शतमन्यु ऋषि के आश्रम में आ गयी थी। मपु० ७१.३९३ इसने अपनी कन्या का विवाह चक्रवर्ती हरिषेण के साथ किया था। नागेन्द्र-(१) संजयन्त केवली का भाई-धरणेन्द्र । मपु० ५९.१२८ पपु० ८.३०१-३०३, ३९२-३९३ (२) मरुभूति का जीव-वघोष हाथी । मपु० ७३.१२, २० नागवर-मध्यलोक के अन्तिम सोलह द्वीप सागरों में ग्यारहवाँ द्वीप दीप मागों में ग्यारहवां दीप नाग्न्य-अचेलकत्व । यह एक परीषह है। इसके द्वारा ब्रह्मचर्य व्रत का सागर । हपु० ५.६२४ उत्कृष्ट रूप पालन किया जाता है । मपु० ३६.११७ नागवसु-भरतक्षेत्र में मगध देश के वृद्ध नामक ग्राम के निवासी दुर्मर्षण नाट्यकोड़ा-प्राचीनकाल से प्रयोग में आता हुआ मनोरंजन का एक की भार्या । यह नागधी की जननी थी। मपु० ७६.१५२-१५६ उत्तम साधन । पहले किसी के द्वारा किये गये कार्य का कलापूर्ण नागवाहिनी-(१) लक्ष्मण की एक शय्या । मपु० ६८.६९२ अनुकरण नाट्य है। वृषभदेव के मनोरंजन के लिए देव नाट्यकीड़ा (२) एक विद्या। विद्याधरों के राजा ज्वलनजटी ने अपनी पुत्री किया करते थे। लोक में यह सर्वाधिक प्रिय रही है। मपु० स्वयंप्रभा के साथ यह विद्या त्रिपृष्ठ को दी थी। पापु० ४.५४ १४.९७ नागवृक्ष-चन्द्रप्रभ तीर्थकर का वैराग्य वृक्ष । इसी वक्ष के नीचे नाट्यमाल-एक देव । इसन भरतेश को विजया के काण्डक प्रपात | चन्द्रप्रभ को केवलज्ञान हुआ था। मपु० ५४.२१६, २२३, २२९, खण्डका प्रपात के समीप आभूषण और कुण्डल भेंट में दिये थे । मपु. पपु० २०.४४ ३२.१९१, हपु० ११.५३-५४ ।। नागवेलन्धर-वेलन्धर जाति के नागकुमार देव । हपु० ५.४६५ नाट्यमालिका-पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी के नाट्याचार्य नागधी-(१) दुर्मषंण की पुत्री, भवदेव की पत्नी । भवदेव उसे छोड़कर की पुत्री । यह नृत्य में रस और भाव का प्रदर्शन बड़े आकर्षक रूप अपने बड़े भाई भगदत्त मुनि के उपदेश से मुनि हो गया था। मपु० से करती थी। मपु० ४६.२९९ ७६.१५२-१५७ दे० नागवसु नाट्यशाला-देवांगनाओं के नुत्य करने का स्थान । समवसरण में दो Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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