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________________ १७६ : जैन पुराणकोश बारवती-द्वीपार्षचक्रवाल द्वारवती-यादवों की महानगरी। नेमि की कुबेर द्वारा निर्मित यह नगरी बारह योजन लम्बी, नौ योजन चौड़ी, बज्रमयी कोट से आवृत तथा समुद्रमयी परिखा से युक्त थी। इसमें कृष्ण का अठारह खण्डों से युक्त सर्वतोभद्र नामक महल था। मपु० ७१.२४-२७, ६३; हपु० १.७२, ४१.१८-१९, २७ पाण्डव यहाँ आये थे। हपु० ४५. १,५०.२ अपरनाम द्वारिका । पापु० ११.७६-८१ इसका एक नाम द्वारावती भी था । बलभद्र-अचलस्तोक और नारायण-द्विपृष्ठ, बलभद्रधर्म और नारायण-स्वयंभू, बलभद्र-सुप्रभ और नारायण-पुरुषोत्तम की यह जन्मभूमि थी। मपु० ५८.८३-८४, ५९.७१, ८६, ६०.६३, ६६ द्वारिका-दे० द्वारवती। हपु० ४७.१२, ९२, १००-१०१, ६१.१८, पापु० ११.७६-८१ द्विकावलि-एक व्रत । यह अड़तालीस दिन में सम्पन्न होता है। इसमें अड़तालीस षष्ठोपवास (बेला) और इतनी ही पारणाएं की जाती है। हपु० ३४.६८ द्विचूर-विद्याधर-दृढ़रथ के वंशधर एकचूड-विद्याधर का पुत्र । यह त्रिचूड का पिता था। पपु० ५.५३ द्विज-इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप-इन छ: विशुद्ध वृत्तियों का धारक व्यक्ति । एक बार गर्भ से और दूसरी बार संस्कारों से जन्म होने के कारण ऐसे व्यक्ति द्विज कहलाते हैं। मपु० ३८.२४, ४२, ४७-४८, ४०.१४९ द्विजत्व के ज्ञान और विकास के लिए इनके दस कर्त्तव्य होते हैं-अतिबाल-विद्या, कुलावधि, वोत्तमत्व, पात्रत्व, सृष्ट्यधिकारिता, व्यवहारेशिता, अवध्यता, अदण्डयता, मानहिता और प्रजासम्बन्धान्तर । उपासकाध्ययन में इन्हीं दस कर्तव्यों को दस अधिकारों के रूप में वर्णित किया गया है। मपु० ४०.१७४-१७७ विजोत्तम-गाईपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि इन तीनों अग्नियों में मंत्रों के द्वारा भगवान की पूजा करनेवाला द्विज । मपु० ४०.८५ द्वितीय-व्रत-भावना-सत्यव्रत की पाँच भावनाएँ। ये क्रोध, लोभ, भय और हास्य का त्याग तथा शास्त्रानुकूल उपदेश रूप । मपु० २०.१६२ द्वितीय-शुक्लध्यान-एक त्ववितर्क-शुक्लध्यान । यह बारहवें गुणस्थान में __ होता है । मपु० ४७.२४७, ६१.१००। द्विपर्वा-दिति और अदिति द्वारा नमि और विनमि विद्याधरों की दी हुई सोलह निकायों की विद्याओं में एक विद्या । हपु० २२.६७ द्विपुष्ठ-(१) अवसर्पिणी के दुःषमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न एक शलाका पुरुष-द्वितीय नारायण । यह द्वारवती-नगरी के राजा ब्रह्म और उसकी दूसरी रानी उषा का पुत्र था। इसकी कुल आयु बहत्तर लाख वर्ष थी। उसमें इसके कुमारकाल में पच्चीस हजार वर्ष, मण्डलीक अवस्था में भी इतने ही वर्ष, सौ वर्ष दिग्विजय में, और राज्य में इकहत्तर लाख उनचास हजार नौ सौ वर्ष व्यतीत हुए थे। मपु० ५८.८४-८५, हपु० ६०.५१९-५२०, वीवच० १८.१०१,११२ यह भरतक्षेत्र के तीन खण्डों का स्वामी था। इसने कोटिशिला को अपने मस्तक तक ऊपर उठा लिया था। बलभद्र-अचलस्तोक इसका भाई था । भोगवर्धन-नगर के राजा श्रीधर का पुत्र तारक-प्रतिनारायण था। इसने द्विपृष्ठ से उसका गन्धहस्ती मांगा था। द्विपृष्ठ ने उसे नहीं दिया। इस पर दोनों में युद्ध हुआ। तारक ने द्विपृष्ठ पर अपना चक्र चलाया । चक्र द्विपृष्ठ के हाथ में आ गया । उसी चक्र से तारक मारा गया। सात रत्नों और तीन खण्ड पृथिवी का स्वामित्व प्राप्त कर चिरकाल तक भोग भोगते हुए द्विपृष्ठ मरकर सातवें नरक गया । मपु० ५८.९०-९१, १०२-१०४, ११४-११८, हपु० ५३.३६, ६०. २८८-२८९ तीसरे पूर्वभव में यह भरतक्षेत्र के कनकपुर-नगर में सुषेण नामक नृप था। दूसरे पूर्वभव में चौदहवें स्वर्ग में देव हुआ पश्चात् इस नाम का अर्धचक्री हुआ। मपु० ५८.१२२ (२) आगामी उत्सर्पिणी काल का नौवाँ नारायण । मपु० ७६. ४८९ हरिवंशपुराणकार ने इसे आगामी आठवाँ नारायण बताया है। हपु० ६०.५६७ द्विरद-तीर्थकर की माता द्वारा गर्भावस्था में देखे गये सोलह स्वप्नों में प्रथम स्वप्न-हाथी । मपु० २९.१३६, पपु० २१.१४ द्विरवदंष्ट-म्लेच्छों का एक राजा । यह वनमाला का पिता था । इसने अपनी पुत्री का विवाह धातकीखण्ड के एक राजा सुमित्र के साथ किया था । पपु० १२.२२-२८ द्विरवरथ-इक्ष्वाकुवंशी एक राजा । यह शरभरथ का पुत्र और सिंहदमन का पिता था । पपु० २२.१५७-१५९ द्विशतग्रीव-प्रतिनारायण बलि के वंश में उत्पन्न एक विद्याधर-राजा । यह पंचशतग्रीव का उत्तराधिकारी था। हपु० २५.३४, ३६ द्वीन्द्रिय-स्पर्शन और रसनेन्द्रिय से युक्त जीव । इनकी सात लाख कुल कोटियाँ, उत्कृष्ट आयु बारह वर्ष तथा सबसे बड़ी अवगाहना बारह योजन शंख की होती है । हपु० १८.६०, ६६, ७६ टीप-(१) करुवंशी एक राजा । हप०४५.३० (२) जल का मध्यमवर्ती भूखण्ड । मध्यलोक में अनन्त द्वीप है। इनमें आरम्भिक द्वीप सोलह हैं। इनके नाम हैं-जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड, पुष्करवर, वारुणीवर, क्षीरवर, धृतवर, इक्षुवर, नन्दीश्वर, अरुणीवर, अरुणाभास, कुण्डलवर, शंखवर, रुचकवर, भुजगवर, कुशवर और क्रौंचवर। इनमें जम्बूद्वीप तो लवणसमुद्र से घिरा हुआ है और शेष द्वीप उन द्वीपों के नाम के सागरों से घिरे हुए हैं। इन द्वीप सागरों के आगे असंख्य द्वीप हैं । पश्चात् ये सोलह द्वीप हैं-मनःशिल, हरिताल, सिन्दूर, श्यामक, अंजन, हिंगुलक, रूपवर, सुवर्णवर, वज्रवर, वैडूर्यवर, नागवर, भूतवर, यक्षविर, देववर, इन्दुवर और स्वयंभूरमण । ये द्वीप भी अपने-अपने नाम के सागरों से वेष्ठित हैं। हपु० ५.६१३-६२६ द्वीपकुमार-पाताल लोक के भवनवासी देव । हपु० ४.६३ द्वीपसागरप्रज्ञप्ति-दृष्टिवाद अंग के परिकर्म नामक भेद में कथित पांच प्रज्ञप्तियों में चतुर्थं प्रज्ञप्ति । इसमें द्वीप और सागरों का बावन लाख छत्तीस हजार पदों में वर्णन है । हपु० १०.६१-६२, ६६ द्वीपार्षचक्रवाल-मानुषोत्तर पर्वत । मपु० ५४.३५ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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