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________________ द्रौपदी-द्वापुरी जैन पुराणकोश : १७५ के संकेत पर अर्जुन के शिष्य चित्रांग ने मार्ग में ही दुर्योधन की सेना अपने आपको पदमनाभ के यहाँ पाया। वह बड़ी दुःखी हुई । पद्मनाभ को रोक लिया । युद्ध हुआ। चित्रांग ने दुर्योधन को नागपाश में बाँध ने उसे शील से विचलित करने के अनेक प्रयत्न किये। वह सफल लिया और उसे अपने साथ ले जाने लगा । दुर्योधन की पत्नी भानुमती नहीं हो सका। द्रौपदी ने उससे एक मास की अवधि चाही । उसने को जब यह पता चला तो वह भीष्म के पास गयी। भीष्म ने उसे - इसे स्वीकार किया। प्रातःकाल होने पर पाण्डव द्रौपदी को वहाँ न युधिष्ठिर के पास भेज दिया। उसने युधिष्ठिर से अपने पति को देखकर दुःखी हुए । बहुत ढूंढ़ा उसे न पा सके । नारद अपने कार्य से मुक्त करने की विनती की। युधिष्ठिर ने अर्जुन को भेजकर चित्रांग बहुत दुखी हुआ। उसने कृष्ण को द्रौपदी के अमरकंकापुरी में होने के नागपाश से दुर्योधन को मुक्त कराया । वह हस्तिनापुर तो लौट का समाचार दे दिया । कृष्ण ने स्वस्तिक-देव को सिद्ध किया । उसने गया पर अर्जुन द्वारा किये गये उपकार से अत्यन्त खिन्न हुआ। उसने जल में चलनेवाले छः रथ दिये । उनमें बैठकर कृष्ण और पाण्डवों ने लवणसमुद्र को पार किया और धातकीखण्ड में अमरकंकापुरी पहुँचे । घोषणा की कि जो पाण्डवों को मारेगा उसे वह अपना आधा राज्य युद्ध में उन्होंने पद्मनाभ को जीता। वह बड़ा लज्जित हुआ । उसने देगा । राजा कनकध्वज ने उसे आश्वस्त किया कि वह सात दिन की उन सबसे क्षमा माँगी और द्रौपदी के शील की प्रशंसा करते हुए उसे अवधि में उन्हें मार देगा। उसने कृत्या-विद्या सिद्ध की । युधिष्ठिर लौटा दिया। वे द्रौपदी को वापस ले आये । इस समस्त घटना-चक्र को भी यह समाचार मिल गया। उसने धर्मध्यान किया । धर्मदेव में फंसी हुई द्रौपदी को संसार से विरक्ति हुई। उसने कुन्ती और का आसन कम्पित हुआ। वह पाण्डवों की सहायता के लिए एक भील के वेष में आया। पहले तो उसने द्रौपदी का हरण किया और उसे सुभद्रा के साथ राजीमती आर्यिका के पास दीक्षा ली। उन्होंने सम्यक्त्व के साथ चारित्र का पालन किया। आयु के अन्त में अपने विद्याबल से अदृश्य कर दिया। फिर उसे छुड़ाने के लिए पीछा राजीमती, कुन्ती, द्रौपदी और सुभद्रा ने स्त्री-पर्याय को छोड़ा और वे करते हुए पाण्डवों को एक-एक करके माया-निर्मित एक विषमय अच्युत स्वर्ग में सामानिक देव हुई। दूरवर्ती पूर्वभवों में द्रौपदी अग्निसरोवर का जल पीने के लिए विवश किया। इससे वे पाँचों भाई भूति की नागश्री नामक पुत्री थी। इसने इस पर्याय में धर्मरुचि मुनि मच्छित हो गये । सातवें दिन कृत्या आयी। मूच्छित पाण्डवों को मृत को विषमिश्रित आहार दिया था जिससे यह नगर से निकाली गयी । समझकर वह भील के कहने से वापस लौटी और उसने कनकध्वज इसे कुष्ट रोग हुआ और मरकर यह पांचवें धूमप्रभा नगर में नारकी को ही मार दिया । धर्मदेव ने पाण्डवों की मूर्छा दूर की, युधिष्ठिर हुई। नरक से निकलकर यह दृष्टिविष जाति का सपं हुई। इस के उत्तम चरित्र की प्रशंसा की, सारी कथा सुनायी और अदृश्य द्रौपदी नरक से निकलकर अनेक त्रस और स्थावर योनियों में दो सागर को दृश्य करके अर्जुन को सादर सौंप दी। धर्मदेव अपने स्थान को 'काल तक यह भ्रमण करती रही। इसके पश्चात् यह चम्पापुरी में चला गया। द्रौपदी समेत पाण्डव आगे बढ़े । मपु० ७२.१९८-२११, मातंगी नाम की स्त्री हुई। इस पर्याय में इसने अणुव्रत धारण किये हपु० ४५.१२०-१३५, ४६.५-७, पापु० १५.३७-४२, १०५-१६२, और मद्य, मांस तथा मधु का त्याग किया। अगले जन्म में यह दुर्गन्धा २१७-२२५, १६.१४०-१४१, १७.१०२-१६३, १८.१०९-१२९ हुई । माता-पिता ने इसका नाम सुकुमारी रखा । इसने उग्र तप किया पाण्डव रामगिरि होते हुए विराट नगर में आये । अज्ञातवास का वर्ष और देह त्यागने के पश्चात् यह अच्युत स्वर्ग में देवी हुई। वहाँ से था। उन्होंने अपना वेष बदला । द्रौपदी ने मालिन का वेष धारण चयकर राजा द्रुपद की पुत्री हुई। मपु० ७२.२४३-२६४, हपु० किया। वे विराट के राजा के यहाँ रहने लगे। उसी समय ४६.२६-३६, ५४.४-७, पापु० १७.२३०-२९५, २१.८-१०, ३२चूलिकापुरी के राजा चूलिक का पुत्र कीचक वहाँ आया। वह राजा ३४, ५१-५९, ९४-१०२, ११४-१४३, २४.२-११, ७२-७८, २५, विराट् का साला था। द्रौपदी को देखकर वह उस पर आसक्त हुआ १४१-१४४ और उससे छेड़छाड़ करने लगा। भीम को द्रौपदी ने यह बताया तब द्वादश-गण-द्वादश सभा-तीर्थंकर के समवसरण में उनकी गन्धकुटी को उसने द्रौपदी का वेष बनाकर अपने पास आते ही उसे पाद-प्रहार से चारों ओर से घेरे हुए बारह सभा-कोष्ठ । इनमें क्रमशः गणधर आदि मार डाला । कृष्ण-जरासन्ध युद्ध हुआ। इसमें पाण्डवों ने कौरव-पक्ष मुनि, कल्पवासिनी-देवियाँ, आर्यिकाएँ और स्त्रियाँ, भवनवासिनीका संहार किया । युद्ध की समाप्ति होने पर पाण्डव हस्तिनापुर रहने देवियाँ, व्यन्तरिणी-देवियाँ, ज्योतिष्क देवियाँ, भवनवासी-देव, लगे । एक दिन नारद आया । पाण्डवों के साथ वह द्रौपदी के भवन व्यन्तरदेव, ज्योतिष्क-देव, कल्पवासी-देव, मनुष्य और तिर्यच बैठते में भी आया। श्रृंगार में निरत द्रौपदी उसे देख नहीं पायी। वह हैं । मपु० २३.१९३-१९४, ४८.४९, हपु० २.६६, ४२.४३ उसका आदर-सत्कार नहीं कर सकी। नारद क्रुद्ध हो गया। उसने द्वादशांग-श्रुत के बारह अंग-आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवाउसका सुन्दर चित्रपट तैयार करके उसे धातकीखण्ड द्वीप में स्थित यांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग, ज्ञातृधर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, दक्षिण-भरतक्षेत्र की अमरकंकापुरी के राजा पद्मनाभ को दिया और अन्तकृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग चित्र का परिचय देकर वह वहाँ से चला आया। चित्र को देखकर और दृष्टिप्रवादांग । मपु० ३४.१३३, हपु० १०.२६-४५ पद्मनाभ उस पर आसक्त हुआ। उसने संगमदेव को सिद्ध किया। द्वापर-अवसर्पिणी का चतुर्थ काल । पापु० २.२३ वह सोती हुई द्रौपदी को वहाँ ले आया। जब वह जागी तो उसने द्वापुरी-द्वितीय नारायण द्विपृष्ठ की जन्मभूमि । पपु० २०.२२१ Jain 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SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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