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________________ १७४ : जैन पुराणकोश द्रव्यानुयोग-ौपदी द्रव्यानुयोग-श्रुतस्कन्ध का चतुर्थ अनुयोग । इसमें प्रमाण, नय, निक्षेप तथा सत् संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व, निर्देश स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान के द्वारा द्रव्यों के गुण, पर्याय और भेदों का तात्त्विक वर्णन रहता है । मपु० २.१०१ अव्यापिक-नय-वस्तु के किसी एक निश्चित स्वरूप का बोध करानेवाले नय के दो भेदों में प्रथम भेद । नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन इसके प्रभेद है । हपु० ५८.३९-४२ द्रव्यानव-जीव में मिथ्यात्व आदि कारणों से पुद्गलों का कर्म रूप से आगमन । वीवच० १६.१४१ हुत-गायन-सम्बन्धी विविध वृत्तियों में प्रथम वृत्ति । लय भी तीन प्रकार की होती है । इसमें द्रुतलय एक लय है । पपु० १७.२७८, २४.९ Q पब-(१) कम्पिला नगरी का राजा । यह दृढ़रथा का पति और द्रौपदी का पिता था । यह कृष्ण का पक्षधर था। मपु० ७१.७३-७७, ७२. १९८ हरिवंश और पाण्डव-पुराणकारों ने इसे माकन्दी-नगरी का राजा बताकर इसकी रानी का नाम भोगवती कहा है । हपु० ४५. १२०-१२२, ५०.८१, पापु० १५.३७, ४१-४४ (२) जरासन्ध-कृष्ण युद्ध में कृष्ण का पक्षधर एक समरथ राजा। हपु० ५०.८१ ब्रुम-राजा जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३० छमषेण-एक अवधिज्ञानी मुनि। इन्होंने शंख को निर्नामिक के पूर्वभव बताये थे । मपु० ७०.२०६-२०७ हपु० ३३.१४९ ब्रुमसेन-(१) जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३० (२) सिंहलद्वीप के राजा श्लक्ष्णरोम का सेनापति । कृष्ण ने इसे युद्ध में मारा और राजा की कन्या लक्ष्मणा को द्वारिका लाकर विधिपूर्वक विवाहा । हपु० ४४.२०-२४ (३) महावीर के निर्वाण के तीन सौ पैंतालीस वर्ष बाद दो सौ बीस वर्ष के अन्तराल में हुए ग्यारह अंगधारी पाँच मुनीश्वरों में एक मुनि । मपु० ७६.५२५. धीवच० १.४१-४९ (४) नवें नारायण कृष्ण के पूर्वभव के गुरु । पपु० २०.२१६ (५) लक्ष्मण के पूर्वभव के जीव पुनर्वसु के दीक्षागुरु । पपु० ६४.९३-९५ द्रोण-(१) द्रोणाचार्य। यह ऋषि भार्गव की वंश-परम्परा में हुए विद्रावण का पुत्र था। अश्विनी इसकी स्त्री और इससे उत्पन्न अश्वत्थामा इसका पुत्र था । इसने पाण्डवों और कौरवों को धनुर्विद्या सिखायी थी। कौरवों द्वारा पाण्डवों का लाक्षागृह में जलाया जाना सुनकर यह बहुत दुःखी हुआ था। इसने कौरवों से कहा था कि इस प्रकार कुल-परम्परा का विनाश करना उचित नहीं है । एक भील ने इसे गुरु बनाकर शब्दवेधिनी विद्या प्राप्त की थी। अर्जुन के कहने पर प्राणियों के वध से रोकने के लिए इसने भील से उसके दाहिने हाथ का अंगूठा माँगा था । भील ने अपना अंगूठा तत्काल ही सहर्ष दे दिया था । कृष्ण-जरासन्ध युद्ध में अर्जुन को इससे युद्ध करना पड़ा था । अर्जुन इसे ब्राह्मण और गुरु समझकर छोड़ता रहा । एक बार अर्जुन ने इसे ब्रह्मास्त्र से बाँध लिया और गुरु समझकर मुक्त भी कर दिया। इसी समय मालवदेश के राजा का अश्वत्थामा नामक हाथी युद्ध में मारा गया । युधिष्ठिर के यह कहते ही कि "अश्वत्थामा रण में मारा गया" इसने हथियार डाल दिये थे। यह रुदन करने लगा तो युधिष्ठिर ने कहा कि हाथी मरा है उसका पुत्र नहीं । इससे यह शान्त हुआ ही था कि धृष्टार्जुन ने असि-प्रहार से इसका मस्तक काट डाला। हपु० ४५.४१-४८, पापु० ८.२१०-२१४, १०.२१५२१६, २६२-२६७, १२.१९७-१९९, २०.१८७, २०१-२०२, २२२-२३३ (२) नदी और समुद्र की मर्यादाओं से युक्त ग्राम । पापु० २.१६० व्रोणमुख-नदी के तटवर्ती चार सौ ग्रामों का समूह । यह व्यवसायों का केन्द्र होता है। यहाँ सभी जातियाँ रहती है ।। मपु० १६.१७३, १७५, हपु० २.३ द्रोणमेष-एक राजा, विशल्या का पिता । लक्ष्मण को लगी शक्ति इसी राजा की पुत्री विशल्या के प्रभाव से दूर हुई थी। पपु० ६४.३७, ४३, ६५.३७-३८ । प्रोणामुख-जलयानों का ठहरने का स्थान (बन्दरगाह)। मपु० ३७.६२ द्रौपदी-भरतक्षेत्र की माकन्दी-नगरी (महापुराण के अनुसार कम्पिला नगरी) के राजा द्रुपद और रानी भोगवती (महापुराण के अनुसार दृढ़रथा) की पुत्री। इसने स्वयंवर में गाण्डीव-धनुष से घूमती हुई राधा की नासिका के नथ के मोती बाण से वेध कर नीचे गिरानेवाले अर्जुन का वरण किया था। अर्जुन के इस कार्य से दुर्योधन आदि कुपित हुए और वे राजा द्रुपद से युद्ध करने निकले । अपनी रक्षा के लिए यह अर्जुन के पास आयी। भय से कांपती हुई उसे देखकर भीमसेन ने इसे धैर्य बंधाया। भीम ने कौरव-दल से युद्ध किया और अर्जुन ने कर्ण को हराया । इस युद्ध के पश्चात् द्रुपद ने विजयी अर्जुन के साथ द्रौपदी का विवाह किया । द्रौपदी को लेकर पाण्डव हस्तिनापुर आये । दुर्योधन ने युधिष्ठिर के साथ कपटपूर्वक धत खेलकर उसकी समस्त सम्पत्ति और राज्य-भाग जीत लिया । जब युधिष्ठिर ने अपनी पत्नियों तथा सपत्नीक भाइयों को दांव पर लगाया तो भीम ने विरोध किया । उसने द्यूत-क्रीड़ा के दोष बताये तब धर्मराज ने बारह वर्ष के लिए राज्य को हारकर द्य त-क्रीड़ा को समाप्त किया। इसी बीच दुर्योधन की आज्ञा से दुशासन द्रौपदी को चोटी पकड़कर घसीटता हुआ यू त-सभा में लाने लगा। भीष्म ने यह देखकर दुःशासन को डाँटा और द्रौपदी को उसके कर-पाश से मुक्त कराया। पापु० १८. १०९-१२९ चूत की समाप्ति पर दुर्योधन ने दूत के द्वारा युधिष्ठिर से द्य त के हारे हुए दाव के अनुसार बारह वर्ष के वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास के लिए कहलाया । युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ वनवास तथा अज्ञातवास के लिए हस्तिनापुर से निकल आया । वह द्रौपदी और माता कुन्ती को इस काल में अपने चाचा विदुर के घर छोड़ देना चाहता था पर द्रौपदी ने पाण्डवों के साथ ही प्रवास करना उचित समझा। पाण्डव सहायवन में थे। दुर्योधन यह सूचना पाकर उन्हें मारने को सेना सहित वहाँ के लिए रवाना हुआ। नारद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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