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________________ देव-द्रव्यसूत्र जैन पुराणकोश : १७३ योजन प्रमाण, त्रीन्द्रिय जीवों में कानखजूरा की तीन कोस प्रमाण, चतु- रिन्द्रिय जीवों में भ्रमर की एक योजन (चार कोस) प्रमाण तथा पंचेन्द्रिय जीवों में सबसे बड़ी स्वयंभू-रमण-समुद्रके राघव-मच्छ की एक हजार योजन प्रमाण होती है । पंचेन्द्रियों में सूक्ष्म अवगाहना सिवर्षक मच्छ की है । सम्मूर्च्छन जन्म से उत्पन्न अपर्याप्तक जलचर, थलचर और नभचर तिर्यचों की जघन्य अवगाहना एक वितस्ति प्रमाण होती है। मनुष्य और तिर्यंच की अवगाहना तीन कोस प्रमाण, नारकी की उत्कृष्ट अवगाहना पाँच सौ धनुष और देवों की पच्चीस धनुष होती है । हपु० १८.७२-८२ देव-(१) पूर्व पर्याय में कृत शुभाशुभ कर्म । पपु० ९६.९ (२) सौधर्मेन्द्रा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८७ बोलागृह-झूलने का स्थान । इसमें वास्तुकला का महत्त्वपूर्ण प्रदर्शन होता था। मपु० ७.१२५ दोस्तदिका-दक्षिण का एक नगर । यह नगर सौराष्ट्र के वर्द्धमानपुर से गिरिनार को जानेवाले मार्ग पर स्थित है। हरिवंशपुराण की रचना इसी नगरी के शान्तिनाथ जिनालय में पूर्ण हुई थी। हपु० ६६.५३ अति-(१) मथुरा नगरी के सेठ भानु और उनकी स्त्री यमुना के छठे पुत्र शूरदत्त की भार्या । हपु० ३३.९६-९९ (२) अनेक शास्त्रों के पारगामी एक आचार्य । ये राम के वनवास के समय अयोध्या में ही ससंघ स्थित थे। इनके सम्मुख भरत ने प्रतिज्ञा की थी कि राम के वन से लौटते ही वह दीक्षित हो जायगा । इन्होंने उसे सम्बोधित किया और धर्माचरण के अभ्यास का परामर्श दिया । सीता के बनवास से दुखी अयोध्या का नगर-सेठ वजांक भी इन्हीं के पास दीक्षित हुआ था। वे स्वयं परम तपस्वी थे। आयु के अन्त में ये ऊर्ध्व वेयक में अहमिन्द्र हुए । पपु० ३२.१३९-१४०, १२३.८६-९२ (३) व्याघ्रनगर के राजा सुकान्त का पुत्र । पपु० ८०.१७७ (४) साकेत के मुनिसुव्रत-जिनालय में विद्यमान सप्तर्षियों का अर्चक एक भट्टारक । इसके शिष्य इसे सप्तर्षियों को नमन करते देखकर असंतुष्ट हो गये थे। बाद में उसकी निर्मलता ज्ञात कर वे अपने अज्ञान की निन्दा करते हुए पुनः उसके भक्त हो गये थे । पपु० ९२. २२-२७ छ तिलक-(१) विजयाध-पर्वत पर स्थित ६० सौन्दर्य और वैभव से सम्पन्न नगरों में एक नगर । मपु० १९.८३, वीवच० ३.७३ (२) अम्बरतिलक-पर्वत का दूसरा नाम । मपु० ७.९९ घुम्नाभ-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.२०० चत-सात व्यसनों में पहला व्यसन-जुआ। यह यश और धन की हानि करनेवाला, सब अनर्थों का कारण तथा इहलोक और परलोक दोनों में अनेक दुःखों का दाता है । युधिष्ठिर इसी से दुःख में पड़ा था। वह न केवल धन दौलत अपितु सम्पूर्ण स्त्रियों और भाइयों को भी हार गया था । इस कारण उसे अपने भाइयों और द्रौपदी के साथ बारह वर्ष तक वनवास तथा एक वर्ष का गुप्तवास भी करना पड़ा था। पापु० १६.१०९-११८, १२३-१२५ घोति-रत्नप्रभा के खरभाग का आठवाँ पठल । हपु० ४.५३ दे० खरभाग ब्रढीयान्-सौधर्मेन्द्र देव द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८२ द्रव्य-यह सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्प बहुत्व इन आठ अनुयोग द्वारों तथा नाम स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों से ज्ञेय होता है । हपु० १.१, २.१०८, १७.१३५ जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश ये पांचों बहुप्रदेशी होने से आस्तिकाय हैं, काल एक प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है परन्तु द्रव्य है । वे छहों गुण और पर्याय से युक्त होते हैं। इनमें जीव को छोड़ कर शेष द्रव्य अजीव हैं। इनका परिणमन अपने-अपने गुण और पर्याय के अनुरूप होता है । ये सब स्वतन्त्र हैं । मपु० ३.५-९ वीवच० १६.१३७-१३८ द्रव्यपरिवर्तन-जीव के पाँच प्रकार के परावर्तनों में प्रथम परावर्तन । इसमें जीव परमाणुओं का अनन्त बार शरीर और कर्म रूप से ग्रहण तथा विसर्जन करता है । वीवच० ११.२८ द्रव्य-पल्य-एक योजन लम्बे चौड़े तथा गहरे गर्त को तत्काल उत्पन्न भेड़ के बालों के अविभाज्य अग्रभाग से ठोक-ठोक कर भरे हुए गड्ढे में से प्रति सौवें वर्ष एक-एक बाल निकाला जाय और जब यह गर्त बालहीन हो जाय तो इसमें जितना समय लगता है वह समय पल्य कहलाता है । पपु० २०.७४-७६ द्रव्यप्राण-पाँच इन्द्रियाँ, मन, वचन और काय (तीन बल) आयु तथा श्वासोच्छवास ये दस प्राण । संजी-पंचेन्द्रिय के ये सभी होते हैं। असंज्ञी-पंचेन्द्रिय के मन न होने से नौ, चतुरिन्द्रिय के कर्णेन्द्रिय और मन न होने से आठ, श्रीन्द्रिय के मन, कर्ण और नेत्र न होने से सात, द्वीन्द्रिय के मन, कर्ण, चक्षु और नासिका का अभाव होने से छः और एकेन्द्रिय के रसना, नासिका, चक्षु, श्रोत्र, मन और वचन का अभाव होने से चार प्राण होते हैं । वीवच० १६.९९-१०२ द्रव्यबन्ध-भावबन्ध के निमित्त से जीव और कर्म का परस्पर संलिष्ट होना । यह बन्ध चार प्रकार का होता है-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश । वीवच० १६.१४४-१४५ द्रव्यमोक्ष-शक्लध्यान द्वारा सब कर्मों का आत्मा से सम्बन्ध-विच्छेद होना । वीवच० १६.१७३ यलिंगी-निर्ग्रन्थ भावों के बिना ही निर्ग्रन्थ मुद्रा के धारक मुनि । ___मपु० १७.२१३-२१४ द्रव्यलेश्या-शारीरिक वर्ण। यह छः प्रकार की होती है-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल । मपु० १०.९६ द्रव्यसंवर-महाव्रत आदि के पालन और उत्तम ध्यान द्वारा कस्स्रिव का निरोध करना । वीवच० १६.१६८ द्रव्यसूत्र-तीन धागों से निर्मित (तीन लड़ों का) यज्ञोपवीत। यह सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीन भावों का प्रतीक होता है । मपु० ३९.९५ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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