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________________ १७२ : जैन पुराणकोश (३) मृगावती देश में दशार्ण-नगर का नृप, देवकी का पिता । मपु० ७१.२९२ पापु० ११.५५ बेबलेना — भरतक्षेत्र में पालियाम नगर के गृहपति यक्षि की भार्या, यक्षदेवी की जननी । मपु० ७१.३९०, हपु० ६०.६२-६३ देवस्व — देव द्रव्य | इसका विनाश करने से नरक-वेदना प्राप्त होती है । हपु० १८.१०२ देवाग्नि - तीर्थंकर ऋषभदेव के बारहवें गणधर । मपु० ४३.५५, हपु० १२.५७ देवाधिदेव - भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २४.३० देवानन्द - ( १ ) जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३५ (२) कृष्ण का पक्षधर एक नृप । हपु० ५०.१२५ देवारण्य - सीता और सीतोदा नदियों के नट पर पूर्व-पश्चिम विदेह पर्यन्त लम्बे तथा समुद्र तट से मिले हुए चार वन- प्रदेश । हपु० ५.२८१ देवावतार - पूर्व मालव देश का एक तीर्थ । जरासन्ध से सन्धि करने के लिए समुद्रविजय द्वारा ससैन्य प्रेषित कुमार लोहजंच ने तिलकानन्द और नन्दन मुनियों को यहीं आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे। तभी से यह स्थान इस नाम से प्रख्यात हो गया । हपु० ५०.५६-६० - (१) जम्बूद्वीप के पुष्कलावती देश की वीतशोका-नगरी का एक गृहस्थ । हपु० ६०.४३ (२) भरतक्षेत्र के शंख नगर का एक वैश्य । यह बन्धुश्री का पति और श्रीदत्ता का पिता था । मपु० ६२.४९४-४९५ देविलग्राम- पलालपर्वत-ग्राम का निवासी एक प्रधान पुरुष । मपु० ६.१३५ देविला - (१) भरतक्षेत्र के मगघ देश में शाल्मलिखण्ड ग्राम के निवासी जयदेव की पत्नी और पद्मदेवी की जननी । मपु० ७१.४४६ ४४७, हपु० ६०.१०८-१०९ (२) कृष्ण की पटरानी जाम्बवती के छठे पूर्वभव का नाम । उस भव में यह जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती देश के वीतशोक नगर के वैश्य दमक और उसकी स्त्री देवमति की पुत्री थी । यह वसुमित्र से विवाहित हुई थी। कुछ ही समय में यह विधवा हो जाने से विरक्त होकर व्रती हुई तथा आयु के अन्त में मरकर मेरुपर्वत के नन्दन-वन में व्यन्तरी हुई । मपु० ७१.३६०-३६२ (३) पोदनपुर के राजा चन्द्रदत्त की रानी, इन्द्रवर्मा की जननी । मपु० ७२.२०४ - २०५ देशना— तीर्थंकर द्वारा कृत और गणधर द्वारा निबद्ध धर्मोपदेश । मपु० २.९४ देशानालय — धर्मोपदेश की प्राप्ति यह सम्यग्दर्शन की लब्धि है। मपु० ९.११६ देशमा — वितरित (बालिस्त) नामक मान यह मेय, देश, तुला और काल इन चार प्रकार के मानों में दूसरे प्रकार का मान हैं । पपु० २४.६०-६१ Jain Education International देवसना - बेहमान वैशव्रत - दूसरा गुणव्रत। इस व्रत में जीवनपर्यन्त के लिए किये हुए बृहत् परिणाम में ग्राम-नगर आदि प्रदेश की अवधि निश्चित कर उसके बाहर जाने का निषेध होता है। इसके पाँच अतिचार हैंप्रेष्य-प्रयोग मर्यादा के बाहर सेवक को भेजना, आनयन-मर्यादा का अतिक्रमण कर बाहर से वस्तु मंगवाना, पुद्गल क्षेप-मर्यादा के बाहर कंकड़ पत्थर फेंककर संकेत करना, शब्दानुपात -मर्यादा के बाहर अपना शब्द भेजना और रूपानुपात —-खांसी आदि के द्वारा अपना रूप दिखाकर मर्यादा के बाहर काम करनेवालों को अपनी ओर आकृष्ट करना । ये पांच इसके अतिचार हैं । हपु० ५८.१४५, १७८ देशभूषण सिद्धार्थ नगर के राजा क्षेमंकर और उसको रानी विमला का पुत्र, कुलभूषण का अग्रज । इन दोनों भाइयों ने सागरसेन विद्वान् से शिक्षा प्राप्त की थी। इन्होंने झरोखे में बैठी एक कन्या देखकर उसका समागम प्राप्त करने के लिए परस्पर में एक दूसरे का वध करने का निश्चय कर लिया था किन्तु बन्दी के मुख से उन कन्या को अपनी बहिन जानकर पश्चात्ताप पूर्वक ये दोनों भाई दीक्षित हो गये थे । इनके वियोग से राजा क्षेमंकर शोकाग्नि से दग्ध हो गया और समस्त आहार छोड़कर मृत्यु को प्राप्त हुआ। इधर इन्होंने आकाशगामिनी ऋद्धि प्राप्त करके नाना तीर्थक्षेत्रों में विहार किया । तप में लीन होने पर सर्प और बड़ओं को राम ने इनके शरीर से हटाया था तथा निर्झर जल से पैर धोकर सीता ने फूलों से इनकी पादअर्चा की थी। राम ने ही अग्निप्रभ द्वारा किये गये उपद्रवों को शान्त किया था । उपसर्ग के दूर होते हो इन्हें केवलज्ञान हुआ और देवों ने इनकी पूजा की । भरत इन्हीं से अपने भवान्तर ज्ञातकर दीक्षित हुए थे । पपु० ३९.३९-४५, ७३-७९, १५८-१७५, ६१.१६-१८, ८६.१-९ देश सत्य - दस प्रकार के सत्यों में एक सत्य । इस सत्य में गाँव और नगर की रीति, राजा की नीति तथा गण और आश्रमों का उपदेश करनेवाला वचन समाहित होता है । हपु० १० १०५ देशसन्धि — दो देशों की सीमाभूमि । मपु० ३५.२७ देशाख्यान — लोक के किसी एक भाग के देश, पर्वत, द्वीप तथा समुद्र आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन करना । मपु० ४.५ देशावकाशिक - प्रथम शिक्षाव्रत दिग्वत की सीमा के अन्तर्गत दैनिक गमनागमन में घर, बाज़ार, गली, मोहल्ला आदि की सीमा निश्चित करके उसका अतिक्रमण नहीं करना देशावकाशिक शिक्षाव्रत है। वीवच ० - १८.५४ देशावधिज्ञान – अवधिज्ञान का प्रथम भेद । इसका विषय पुद्गल द्रव्य है । यह अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होता है । मपु०४८. २२०] १०.१५२ बेहश्य — औदारिक, तैजस और कार्माण ये तीन शरीर मपु० ४८.५२ बेहमान — जीवों की शारीरिक अवगाहना का प्रमाण । सूक्ष्म निगोदिया लब्धपर्याप्तक जीव का शरीर अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है । एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय जीव इससे छोटे नहीं होते । एकेन्द्रिय-जीव कमल के देह का उत्कृष्ट प्रमाण एक हजार योजन तथा एक कोस होता है । द्वीन्द्रिय जीवों में सबसे बड़ी अवनाहना शंख की बारह For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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