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________________ देववत्त-वेवसेन (३) अकृत्रिम चैत्यालयों का गर्भगृह । यह आठ योजन लम्बा दो। योजन चौड़ा, चार योजन ऊंचा और एक कोस गहरा है। इसमें स्वर्ण और रत्नों से निर्मित पाँच सौ धनुष ऊँची एक सौ आठ जिन प्रतिमाएं विद्यमान है । हपु० ५.३५४, ३६०-३६५ देवदत्त-(१) हरिवंश में हुए राजा अमर का पुत्र । हपु० १७.३३ (२) कृष्ण का पुत्र । हपु० ४८.७१ (३) अर्जुन का शंख । हपु० ५१.२०, पापु० २१.१२७ (४) जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३६ (५) वसुदेव और देवकी का पुत्र। यह युगल रूप में उत्पन्न हुआ था। इसने अन्त में मुनि-दीक्षा ग्रहण कर ली थी। मपु० ७१.२९५ दे० देवकी (६) विद्याधर कालसंवर को शिला के नीचे अंगों को हिलाता हुआ प्राप्त एक शिशु (प्रद्युम्न)। विद्याधरी कांचनमाला के कहने पर विद्याधर ने इसे युवराज पद देकर उत्सव पूर्वक इस नाम से सम्बोधित किया था । मपु० ७२.५४-६० देवदत्ता-इस नाम की एक शिविका (पालकी)। तीर्थकर विमलनाथ इसी पर आरूढ़ होकर सहेतुक बन गये थे । मपु० ५९.४०-४१ देवदेव-(१) आगामी उत्सर्पिणी काल के छठे तीर्थकर । हपु० ६०.५५९ अपरनाम देवपुत्र । मपु० ७६.४७८ (२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. जैन पुराणकोश : १७१ निवासी वैश्य दमक की भार्या और देविला की जननी थी। मपु० ७१.३५९-३६१ हपु० ६०.४३ देवमातृक-वर्षा के जल से सींचे जानेवाले देश । मपु० १६.१५७ देवमाल-विदेहस्थ सोलहवां वक्षार पर्वत । मपु० ६३.२०१, २०४ देवरमण-सुमेरु पर्वत का एक वन । हपु० ५.३६० वैवरम्या-चक्रवर्ती को एक विभूति । भरत की चांदनी का नाम देव रम्या था। मपु० ३७.१५३ देवर्षि-एक नारद । यह ब्रह्मरुचि ब्राह्मण और ब्राह्मणी कूर्मी का पुत्र था। यह माता-पिता की तापस-अवस्था में गर्भ में आया था। निर्ग्रन्थ-मुनि द्वारा सम्बोधे जाने पर इसके पिता ने तो दिगम्बरदीक्षा ले ली थी किन्तु इसके गर्भ में होने से माता दीक्षित न हो सकी थी। उसने दसवें मास में इसे वन में जन्मा था। अन्त में इसे वन में छोड़कर वह आर्यिका हुई। जृम्भक देव ने इसे पाला और पढ़ाया था। विद्वान् होने पर इसने आकाशगामिनी-विद्या प्राप्त की थो। इसने अणुव्रत धारण किये । क्षुल्लक का चारित्र प्राप्त करके जटाओं को धारण करता हुआ यह न गृहस्थ रहा न मुनि किन्तु देवों द्वारा पालन-पोषण किये जाने से यह देवों के समान चेष्टावान् विद्याओं से प्रकाशमान और इस नाम से प्रसिद्ध हुआ। पपु० ११. ११७-१५८ वेववर-मनः शिल आदि अन्तिम सोलह द्वीपों में चौदहवां द्वीप । यह वववर-मनः शिल आदि आन्तम सालह वा देववर-सागर से घिरा हुआ है । हपु० ५.६२५-६२६ देवशर्मा-(१) भगवान् वृषभदेव के पांचवें गणधर । मपु० ४३.५४, हपु०१२.५५ (२) यादवों का पक्षधर एक नृप । हपु० ५०.८४ (३) कुरुदेश में स्थित पलाशकूट ग्राम के सोमशर्मा का साला । मपु० ७०.२००-२०१ (४) मगध देश में वत्सा-नगरी का एक ब्राह्मण । इसे इसी नंगर के निवासी अग्निमित्र को वैश्या रानी से उत्पन्न चित्रसेना की पुत्री विवाही गयी थी । मपु० ७५.७०-७३ देवधी-(१) पुष्कलावती देश में धान्यकमाल-चन के निकट स्थित शोभानगर के राजा प्रजापाल की रानी । मपु० ४६.९४, ९५ (२) विदेहक्षेत्र की पुण्डरीकिणी-नगरी के निवासी सेठ सर्वदयित की बुआ । इसका विवाह सागरसेन से हुआ था । इसके दो पुत्र थेसागरदत्त और समुद्रदत्त तथा एक पुत्री थी-सागरदत्ता। मपु० ४७. देवनन्द-(१) राजा गंगदेव का पुत्र । हपु० ३३.१६३ (२) बलदेव का पुत्र । हपु० ४८.६७ देवपाल-(१) आगामी उत्सर्पिणी काल के तेईसवें तीर्थकर । अपरनाम दिव्यपाद । मपु० ७६.४८०, हपु० ६०.५६१ (२) वसुदेव और देवकी का द्वितीय पुत्र । मपु० ७१.२९५, हपु० ३३.१७० (३) जम्बूद्वीप के मंगलादेश में भद्रिलपुर नगर के सेठ धनदत्त और सेठानी नन्दयशा का पुत्र । इसके आठ भाई थे। मपु० ७०. १८५ हपु० १८.११४ तीसरे पूर्वभव में यह मथुरा नगरी के निवासी भानु सेठ का भानुकीति नामक पुत्र था। दूसरे पूर्वभव में विजया को दक्षिणश्रेणी में नित्यालोक नगर के राजा चित्रचूल विद्याधर का सेनकान्त नाम का पुत्र हुआ। प्रथम पूर्वभव में हस्तिनापुर नगर के राजा गंगदेव का गंगदत्त नाम का पुत्र हुआ। हपु० ३३.९६-९७, १३१-१३२, १४२-१४३, अपने पिता और आठों भाइयों के साथ इसने तीर्थकर नेमिनाथ के समवसरण में दीक्षा ली और गिरिनार पर्वत से मोक्ष प्राप्त किया । हपु० ५९.११५, १२६, ६५.१६ देवपुत्र-आगामी छठे तीर्थकर, अपरनाम देवदेव । मपु० ७६.४७८, हपु० ६०.५५९ देवभाव-वृषभदेव का गणधर । मपु० ४३.५४ देधमति----कृष्ण की पटरानी जाम्बवती के पूर्वभव की जननी। यह जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश के वीतशोक नगर के देवसंगीत-ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर स्वर्गों का दूसरा इन्द्रक-विमान । हपु० देवसत्य-वृषभदेव के गणधर । मपु० ४३.६० देवसेन-(१) राजा भोजकवृष्णि और पद्मावती रानी का कनिष्ठ पुत्र, उग्रसेन और महासेन का अनुज । हपु० १८.१६ (२) राजा सत्यंधर के सेनापति विजयमति और उसकी रानी जयावती का पुत्र । मपु० ७५.२५६-२५९ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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