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________________ जीमूतशिखर-जीव जैन पुराणकोश : १४७ जोमूतशिखर-विद्याधरों का एक नगर । लक्ष्मण ने यहाँ के विद्याधरों भी आठ विवाह हुए । विवाही गयी कन्याओं में एक विद्याधर कन्या को युद्ध में परास्त करके राम का सेवक बनाया था। पपु० ९४.१-५ और शेष भुमिगोचरियों को कन्याएँ थीं। विद्याधर कन्या का नाम जीवंधर-हेमांगद देश में राजपुर नगर के राजा सत्यंधर और रानी गन्धर्वदत्ता था। इसकी अन्य पत्नियां थीं-सुरमंजरी, पद्मोत्तमा, विजया का पुत्र । इसकी गर्भावस्था में ही मंत्री काष्ठांगारिक ने क्षेमसुन्दरी, हेमाभा, विमला, गुणमाला और रत्नवती। गन्धर्वदत्ता अपने पुत्र कालांगारिक के सहयोग से राजा सत्यंधर को मारकर से विवाह करने के पश्चात् जीवन्धर राजपुर से बाहर चुपचाप चला राज्य प्राप्त कर लिया था । गर्भिणी अवस्था में ही सत्यंधर ने अपनी गया था। उसके इस तरह नगर से चले जाने के कारण उसके मित्र रानी बिजया को उसके स्वप्न का फल बताते हुए कहा था कि उसके उसे ढूंढते हुए दण्डकवन पहुँचे। यहाँ एक तपस्वियों के आश्रम में मरने के बाद उसका पुत्र महान् राजा होगा और उसे आठ लाभ इनकी विजया माता से भेंट हुई। इन्होंने विजया को बताया कि होंगे । सत्यंधर का नगर सेठ गन्धोत्कट था। उसके पुत्र होते ही मर जीवन्धर कहीं चला गया है। ये वहाँ से हेमाभनगर आये । यहाँ जाते थे। इससे वह दुखी था। एक दिन वहाँ आये हुए मुनि शील- इनकी जीवन्धर से भेंट हई। ये सब जीवन्धर के साथ दण्डकवन में गुप्त से धर्म का श्रवण करने के पश्चात् गन्धोत्कट ने अपने दीर्घायु जीवन्धर की माता विजया से मिले। विजया ने इसे इसके पिता पुत्र होने के विषय में प्रश्न किया। मुनि ने बताया कि अबकी बार राजा सत्यंधर के मारे जाने की कथा बतायी और उससे कहा कि जब वह उसके मृत पुत्र को श्मशान में ले जायगा तो उसे वहाँ एक वह अपने खोये हुए राज्य को काष्ठांगारिक से पुनः प्राप्त करे । माता शिशु की प्राप्ति होगी। वह शिशु बड़ा होकर महान् राजा होगा को आश्वस्त कर जीवन्धर राजपुर आ गया। अपना परिचय देकर और वैराग्य से मुनि बनकर संसार से मुक्त होगा। वहाँ एक यक्षी इसने सामंतों को अपने पक्ष में कर लिया। सेना तैयार को और इस बात को सुन रही थी। उसे विजया का उपकार करने का निदान काष्ठांगारिक को चक्र से मार डाला । हर्षित होकर उपस्थित हुआ। उसने गरुड्यन्त्र का रूप बनाया और वह राजा सत्यंधर के राजाओं ने इसका राज्याभिषेक किया। इसी समय इसने गन्धर्वदत्ता पास पहुंची। सत्यंधर को काष्ठांगारिक के षड्यन्त्र का पता चल गया को महारानी बनाया। इसके भाई नन्दाढ्य के साथ इसकी माता था इसलिए उसने विजया को गरुड्यन्त्र पर बैठाकर वहां से अन्यत्र विजयादेवी और हेमाभा आदि रानियाँ भी आ गयीं । परिवार के सभी भेज दिया। गरुड्यन्त्र रूपिणी यक्षी उसे श्मसान में ले गयो । वहीं जन सुख से रहने लगे। मपु० ७५.१८८-६७३ एक दिन यह दो बन्दरों विजया के पुत्र हुआ। उसी समय गन्धोत्कट अपने मृत पुत्र को लेकर को परस्पर लड़ते हुए देखकर संसार से विरक्त हो गया और गन्धर्वदत्ता श्मसान में वहीं आ गया। यक्षी के कहने से विजया ने गन्धोत्कट को के पुत्र वसुन्धरा को राज्य सौंप कर नन्दाढ्य मधुर आदि भाइयों के सथा अपना पुत्र यह कहते हुए दे दिया कि वह उसका पालन गुप्तरूप से संयमी हो गया। इसकी आठों रानियों तथा उनकी माताओं ने रानी करे । मुनि को भविष्यवाणी को फलवतो हुई समझकर उसने वह पुत्र विजया के साथ चन्दना आर्यिका के समीप उत्कृष्ट संयम धारण कर ले लिया और उसे अपने घर ले गया । अपनी पत्नी सुनन्दा को उसे लिया। घातिया कर्म नष्ट कर वह केवली हुआ तथा महावीर के निर्वाण देते हुए सेठ ने कहा कि उसका पुत्र मृत नहीं, जीवित था। यह के पश्चात् यह भी विपुलाचल से ही मोक्ष को प्राप्त हुआ। मपु० ७५. सुनकर सुनन्दा बहुत प्रसन्न हुई और अपने इस पुत्र का लालन-पोषण ६७६-६८७ दूसरे पूर्वभव में पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी बड़े स्नेह से करने लगी। सेठ ने इस पुत्र का नाम जीवन्धर रखा। के राजा जयन्धर का जयद्रथ नामक पुत्र था । इसने एक हंस के बच्चे जीवन्धर की प्राप्ति के पश्चात् गन्धोत्कट के एक पुत्र का जन्म हुआ। . को पकड़ लिया था तथा इसके किसी साथी ने हंस-शिशु को मार उसका नाम नन्दाढ्य रखा गया। डाला था । उसी के फलस्वरूप सहस्रार स्वर्ग में देव को पर्याय से इस सत्यंधर को विजया रानी से छोटी दो रानियाँ थीं-भामारति भव में जन्मते ही इसके पिता का मरण हुआ और १६ वर्ष तक इसे और अनंगपताका। इनमें भामारति के पुत्र का नाम मधुर और माता से पृथक् रहना पड़ा। मपु० ७५.५३४-५४४ अनंगपताका के पुत्र का नाम बकुल था। इन रानियों के व्रत धारण ___ जोव-सात तत्त्वों में प्रथम तत्त्व । जो प्राणों से जीता था, जोता है और कर लेने से इसके दोनों भाइयों का लालन-पालन भी गन्धोत्कट सेठ जियेगा वह जीव है। सिद्ध पूर्व पर्यायों में प्राणों से युक्त थे अतः को ही करना पड़ा। देवसेन, बुद्धिषेण, वरदत्त और मधुमुख क्रमशः उन्हें भी जीव कहा गया है । जीव का पाँच इन्द्रिय, तीन, बल, आयु सेनापति, पुरोहित श्रेष्ठी और मंत्री के पुत्र थे । इसका बाल्यकाल इन्हीं और श्वासोच्छ्वास इन दस प्राणोंवाला होने से प्राणी, जन्म धारण सातों के साथ बीता। सिंहपुर के राजा आर्यवर्मा संयमी हो गया था करने से जन्तु, निज स्वरूप का ज्ञाता होने से क्षेत्रज्ञ, अच्छे-अच्छे पर जठराग्नि के कारण यह संयम से च्युत होकर सापस के वेष में भोगों में प्रवृत्ति होने से पुरुष, स्वयं को पवित्र करने से पुमान् , नरक भ्रमण करते हुए गन्धोत्कट के यहाँ आया। वहाँ क्रीड़ा करते हुए नारकादि पर्यायों में निरन्तर गमन करने से आत्मा, ज्ञानावरण आदि जीवन्धर के चातुर्य से प्रभावित हुआ। उसने गन्धोत्कट से इसे आठ कर्मों के अन्तर्वर्ती होने से अन्तरात्मा, ज्ञान गुण से सहित होने शिक्षित करने के लिए माँगा। गन्धोत्कट भी सिंहवर्मा से प्रभावित से यह ज्ञ कहा गया है । वह अनादि निधन, ज्ञाता-द्रष्टा, कर्ता-भोक्ता, था। उसने जीवन्धर को उसे दे दिया। अपने चातुर्य से इसने शरीर के प्रमाण रूप, कर्मों का नाशक, ऊर्ध्वगमन स्वभावी, संकोचगोपेन्द्र की कन्या गोदावरी का विवाह नन्दाढ्य से कराया था। इसके विस्तार गुण से युक्त, सामान्य रूप से नित्य और पर्यायों की अपेक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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