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________________ जिनपाल-जीमूत चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन किया गया है। हपु० १०.१२५, १३० दे० अंगबाह्यश्रुत जिनालय-जिन-मन्दिर । ये दो प्रकार के होते है-कृत्रिम और अकृ. त्रिम । मनुष्यों द्वारा निर्मित मन्दिर कृत्रिम होते है । अकृत्रिम चैत्यालय अनादि निधन और सदैव प्रकाशित होते हैं। ये देवों से पूजित होते हैं। इनमें मानस्तम्भों को रचना भी होती है। अपरनाम जिनायतन । मपु० ५.१९०, हपु० १९.११५ जिनेन्द्र -(१) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १४६ : जैन पुराणकोश धरोहर को न लौटाने के अपराध में धनदेव की जीभ निकाली गयी थी। मपु० ४६.२७४-२७५ जिनपाल-धनदत्त और नन्दयशा का चतुर्थ पुत्र । मपु० ७०.१८२-१८६ ... दे० जिनदत्त जिनप्रेमा-राम का एक योद्धा। इसने रावण की सेना से युद्ध किया था । पपु० ५८२२ जिनमत-राम का एक योद्धा । इसने भी रावण की सेना से युद्ध किया था। पपु० ५८.२२ जिनमति–एक आर्यिका । इससे कौशाम्बी के सेठ सुभद्र की पुत्री धर्मवती ने जिनगुण तप लेकर उपवास किये थे। हपु०६०.१०१-१०२ अपर नाम जिनमतिक्षान्ति । मपु० ७१.४३७-४३८ जिनमतिक्षानित-दे० जिनमति । जिनमती-सुग्रीव की तेरहवीं पुत्री । यह राम के गणों पर मुग्ध होकर स्वयंवरण की इच्छा से राम के निकट गयी थी किन्तु राम ने उसे स्वीकार नहीं किया था। पपु० ४७.१३६-१४४ जिनमातृका - कुलाचलों की निवासिनी छः दिक्कुमारी देवियाँ । इनके नाम है-श्री, ह्री, धी, धृति, कीर्ति और लक्ष्मी। ये जिनमाता की सेवा करती हैं । मपु० ३८.२२६ जिनरूपता-गर्भान्वय क्रिया के अन्तर्गत गृहस्थ की श्रेपन क्रियाओं में चौबीसवीं किया और दीक्षान्वय से सम्बन्धित उन्नीसवी क्रिया । इसमें वस्त्र आदि सम्पूर्ण परिग्रह से रहित होकर किसी मुनि से दिगम्बर दीक्षा ली जाती है । मपु० ३८.५५-६३, १५९, ३९.७८ जिनशासन-जिनागम द्वारा निरूपित शासन । यह सम्यक्त्व का प्रतिपा दक है । नय और प्रमाण से सिद्ध होने से अजेय है और कर्मनाश के द्वारा मोक्ष का साधक है । मपु० १.३, हपु०६५.५१ जिनसंज्ञ-राम का एक योद्धा । पपु० ५८.२२ जिनसेन–(१) महावीर निर्वाण के एक सी बासठ वर्ष पश्चात् एक सौ तेरासी वर्ष के काल में हए दश पूर्व और ग्यारह अंग के धारी मुनि गवों में सातवें मुनि । मपु०७६.५२८, वीवच० १.४५-४७ (२) भीमसेन के बाद और शान्तिसेन के पूर्व हुए एक आचार्य । हपु० ६६.२९ (३) आचार्य गुणभद्र के गुरू। ये वीरसेन के शिष्य थे। मपु० प्रशस्ति ८-९, ४३.४० इन्होंने महापुराण की रचना की थी पर वे उसे पूरा नहीं कर पाये । आचार्य गुणभद्र ने उसे पूरा किया था। इन्होंने पार्वाभ्युदय तथा कसायपाहुड की जय धवला टीका की भी रचना की थी। ये हरिवंश पुराणकार जिनसेन के पूर्ववर्ती आचार्य थे। मपु० २.१५३, ५७.६७, ७४.७, हपु० १.४०, पापु० १.१८ (४) आचार्य कीर्तिषण के शिष्य. हरिवंशपराण के कर्ता। इन्होंने अपनी यह रचना शक संवत् सात सौ पाँच में वर्द्धमानपुर में नन्न राजा द्वारा निर्मापित पार्श्वनाथ मन्दिर में आरम्भ कर दोस्तटिका नगरी के शान्तिनाथ जिनालय में पूर्ण की थी। ये पुन्नाट संघ के आचार्य थे । हपु० ६६.३३, ५२-५४ जिनस्तव-अंगबाह्य श्रुत के चौदह प्रकीर्णकों में दूसरा प्रकीर्णक । इसमें (२) अर्हन्त । ये स्वयं केवलज्ञान के धारक होते हैं और समाज को रत्नत्रय का उपदेश देते हैं । जहाँ केवलज्ञान प्राप्त करते है वह स्थान तोर्थ हो जाता है । मपु० १, २, ४, हपु० १.६ जिनेन्द्र पूजा-जैनेश्वरी अर्चा । इसमें जिनेन्द्र का अभिषेक किया जाता है। अष्टद्रव्यों से जनकी पूजा की जाती है। इससे मानसिक शान्ति मिलती है और पुण्य का बन्ध होता है । मपु० ५.२७३, ७.२५६, ८. १३२, ११.१३५ जिनेन्द्रगुणसम्पत्ति-दे० जिनगुणसम्पत्ति । जिनेश्वर-(१) तीर्थकर, ये धर्मचक्र के प्रवर्तक होते हैं। इनको संख्या चौबीस रहती है। अवसर्पिणी काल में हुए चौबीस जिन ये हैऋषभ, अजित, शंभव, अभिनन्दन, सुमति, पद्म, सुपाव, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतल, श्रेयान्, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पाव और महावीर । पपु० ५.१८६, १९०, २०६, २१२-२१६ आगामी दुःषमा काल में होनेवाले चौबीस तीर्थकर ये है-महापद्म, सुरदेव, सुपार्श्व, स्वयंप्रभ, सर्वात्मभूत, देवदेव, प्रभादेय, उदंक, प्रश्नकीति, जयकीर्ति, सुव्रत, अर, पुण्यमूर्ति, निष्कषाय, विपुल, निर्मल, चित्रगुप्त, समाधिगुप्त, स्वयंभ, अनिवर्तक, जय, विमल, दिव्यपाद और अनन्तवीर्य । हपु० ६०.५६० . (२) सौधर्मेन्ट are तत वादेव का जिष्ण-(१) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. (२) भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३५ जिह्व-शर्कराप्रभा पृथिवी के सप्तम प्रस्तार का सातवाँ इन्द्रक बिल । इसकी चारों दिशाओं में एक सौ बीस और विदिशाओं में एक सौ सोलह श्रेणिबद्ध बिल होते हैं । हपु० ४.७८,१११ जिह्वक-वंशा नामक दूसरी पृथिवी के आठवें प्रस्तार से सम्बन्धित आठवां इन्द्रक बिल । इसको चारों दिशाओं में एक सौ सोलह और विदिशाओं में एक सौ बारह श्रेणिबद्ध बिल होते हैं। अपरनाम . जिबिक । हपु० ४.७८, ११२ जिह्विका-हिमवत् पर्वत के दक्षिणी तट पर स्थित एक प्रणाली। यह : योजन एक कोश चौड़ी, दो कोस लम्बी और वृषभाकार (गोमुखा) है। इसी प्रणाली द्वारा गंगा गोशृंग का आकार धारण करती हई श्रीदेवी के भवन के आगे गिरी है। हपु० ५.१४०-१४१ जीमूत-भरतेश का इस नाम का मज्जनागार (स्नानगृह)। मपु० ३७.१५२ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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