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________________ १४८ : जैन पुराणकोश अनित्य, दोनों अपेक्षाओं से उत्पाद-व्यय और ध्रोव्य रूप, असंख्यात प्रदेशी और वर्ण आदि बीस गुणों से युक्त है। मपु० २४.९२-११०, हपु०५८.३०-३१, पापु० २२.६७, वीवच० १६.११३ यह दर्शन और ज्ञान उपयोग मय है। वह अनादिकाल से कर्म बद्ध और चारों गतियों में भ्रमणशील है । इसे सुख-दुःख आदि का संवेदन होता है। मपु०७१.१९४-१९७, हपु० ५८.२३, २७ निश्चय नय से यह चेतना लक्षण, कर्म, नोकर्म बन्ध आदि का अकर्ता, अमूर्त और सिद्ध है। व्यवहार नय से राग आदि भाव का कर्ता, भोक्ता, अपने आत्मज्ञान से बहिर्भूत, ज्ञानावरण आदि कर्म और नोकर्मों का कर्ता है । वीवच० १६.१०३-१०८ इसे गति, इन्द्रिय, छ: काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, सम्यकक्त्व, लेश्या, दर्शन, संज्ञित्व, भव्यत्व और आहार इन चौदह मार्गणाओं से तथा मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानों से, सत, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, भाव, अन्तर और अल्पबहुत्व, इन आठ अनुयोगों से और प्रमाण नय तथा निक्षेपों से खोजा या जाना जाता है। इसकी दो अवस्थाएँ होती है-संसारी और मुक्त । इसके भव्य अभव्य और मुक्त ये तीन भेद भी होते हैं। यह अपनी स्थिति के अनुसार बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा भी होता है । इसके औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारणामिक ये पाँच भाव होते हैं। मपु० २.११८, २४.८८-१३०. पपु० २.१५५-१५७, हपु० ५८.३६-३८, वीवच० १६.३३, ६६ जीवद्यशा-राजगृह नगर के राजा जरासन्ध और उसकी रानी कलिन्दसेना की पुत्री । इसके पिता ने घोषणा की थी कि जो पोदनपुर के राजा सिंहरथ को बाँधकर लायेगा उसके साथ इसका विवाह होगा। इसका विवाह कंस के साथ हुआ था। इसने उपहास में अपनी ननद देवको का रजोवस्त्र अतिमुक्तक मुनि को दिखाया था। इस पर मुनि ने उसे बताया था कि देवकी का पुत्र ही उसके पति और पुत्र दोनों को मारेगा । यह भविष्यवाणी सत्य हुई। कृष्ण के द्वारा कंस का वध होने पर यह पिता जरासन्ध के पास कृष्ण से उसका बदला लेने को कहने गयी थी। जरासन्ध क्षुभित हुआ और कृष्ण के साथ घोर संग्राम हुआ जिसमें वह मारा गया। मपु० ७०.३५२-३७३, ४९४, हपु० ३३.७-७३ पापु० ११.४४-४५ जीवविचय-धर्मध्यान के दस भेदों में तीसरा भेद। इस ध्यान में द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक नयों से जीव के स्वरूप का चिन्तन किया जाता है। पु० ५६.४२-४३ जीवभाव-जीव के निज तत्त्व । औपशमिक, औपशमिक,क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक ये पाँच भेद जीव के हैं। मपु० २४.९९ जीव-समास-स्थावर और त्रस जीवों के भेद-प्रभेद । हपु० २.१०७, पापु० २२.७३ जीवसिद्धि-समन्तभद्राचार्य द्वारा रचित एक ग्रन्थ । इसमें जीव की स्वतन्त्र स्थिति की सिद्धि की गयी है । हपु०१.२९ जीव-स्थान-जीवों के रहने के स्थान । इन्हें जीव-समास भी कहा जाता है। हपु० २.१०७ जीवधशा-नी जीवहिंसा–जीवों के प्राणों का उच्छेद करना। जीव-हिंसक को अनेक नारकीय दुःख भोगने पड़ते हैं । वीवच० ४.१६-१७ जीवाधिकरण-आस्रव का प्रथम भेद । यह संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ से होता है । इन तीनों में प्रत्येक कृत, कारित, अनुमोदना के भेद से तीनतीन तथा क्रोध, मान, माया, लोभ के भेद से चार-चार, इस प्रकार छत्तीस भेद होते हैं । मनोयोग, वचनयोग, काययोग के भेद से इनके तीन-तीन भेद और करने से इसके कुल एक सौ आठ भेद होते हैं । हपु० ५८.८४-८५ जीवाधिगमोपाय-सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, भाव, अन्तर और अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगों से जीव तत्व का ज्ञान होता है। मपु० २४.९७-९८ जीविताशंसा–सल्लेखना के पाँच अतिचारों में प्रथम अतिचार। यह सल्लेखना ले लेने के बाद अधिक समय तक जीवित रहने की आकांक्षा से होती है । हपु० ५८.१८४ जम्भक-(१) इस जाति का एक देव । पूर्वभव के स्नेहवश इसने नारद का वैताढ्य पर्वत की मणिकांचन गुहा में दिव्य आहार से पालन किया था। पपु० ११.१५१-१५८, हपु० ४२.१६-१८ (२) देवों की एक जाति । इस जाति के देव बलदेव के पुत्रों तथा अन्य चरमशरोरियों को जिनेन्द्र के पास ले गये थे। हपु० ६१.९२ जम्भण-एक भयंकर विद्यास्त्र । वसुदेव ने शल्य को इसी अस्त्र से बाँधा था। हपु० २५.४८, ३१.९८ जुम्मा-ऐरावत क्षेत्रवासिनी जिनशासन की सेविका एक देवी। पपु० ३०.१६४ जम्भिक-अजुकूला नदी के तट पर स्थित एक ग्राम । यहाँ महावीर को केवलज्ञान हुआ था । मपु०७४.३४८-३४९, हपु० २.५७-५९, पापु० १.९४-९५, वीवच० १३.१००-१०१ जम्भिणी-एक विद्या । यह भानुकर्ण को प्राप्त हुई थी। पपु० ७.३३३ बेता-(१) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०६ (२) भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४० जैत्री-समवसरण के सप्तपर्ण वन की छ: वापियों में एक बापी। हपु० ५७.३३ जैनवीक्षा-निर्ग्रन्थदीक्षा । यह किसी मुनि से ली जाती है। इसे लेने के पूर्व केशलुंचन किया जाता है। मपु० ५.१४७, ७.२२, १७. २००-२०१ जैनधर्म-आत्म धर्म । यह कुमतिभेदी, पुण्य का साधक, दुःख मोचक सुखविस्तारक और स्वर्ग तथा मोक्ष सुख का प्रदाता जिनेन्द्र प्रणीत धर्म है। मपु० ५.१४५, २९६, ६.२२, १०.१०६-१०९, पपु० ८८. १३-१४, हपु० १.१ जनश्रुति-जिनवाणी । यह निर्दोष है और इसका प्रसार आचार्य परम्परा से हुआ है। मपु० २६.१३७ जैनी-राजगृह नगर के राजा विश्वभूति की रानी। यह विश्वनन्दी की जननी थी। मपु० ५७.७२, वीवच० ३.१-७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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