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________________ १३८ : जैन पुराणकोश जयद्रथ-जयमित्र र के राजा मपु० ६३ डद्वीप में (२) विजयाध की दक्षिणश्रेणी में स्थित मन्दारनगर के राजा शंख की रानी, पृथिवीतिलका की जननी । मपु० ६३.१७० जयवथ-(१) धातकीखण्ड द्वीप में स्थित पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा जयन्धर और उसकी रानी जयवती का पुत्र । यह जीवन्धर के तीसरे पूर्वभव का जीव था। इसने कौतुकवश एक हंस के बच्चे को पकड़ लिया था किन्तु अपनी माता के कुपित होने पर सोलहवें दिन इसने उसे छोड़ भी दिया था। जीवन्धर की पर्याय में इसी कारण सोलह वर्ष तक भाई-बन्धुओं से इसका वियोग हुआ था। मपु० ७५.५३३-५४८ (२) जरासन्ध का एक योद्धा । जयार्द्रकुमार इसका दूसरा नाम था। इसने कौरवों की ओर से पाण्डवों के साथ युद्ध किया था । इसके रथ के घोड़े लाल रंग के थे। ध्वजाएं शूकरों से अंकित थीं। द्रोणाचार्य के यह कहने पर कि अभिमन्यु को सब वीर मिलकर मारें इसने न्याय क्रम का उल्लंघन कर अभिमन्यु का वध किया था। पुत्रवध से दुःखी होकर अर्जुन ने शासन देवी से धनुष बाण प्राप्त किये तथा युद्ध में उनसे इसका मस्तक काट कर वन में तप कर रहे इसके पिता के हाथ की अंजलि में फेंक दिया था। मपु० ७१.७८, पापु० १९.५३, १७६, २०.३०-३१,१७३-१७५ जयधाम-भोगपुर नगर का निवासी एक विद्याधर। यह सेठ सर्वदयित का मित्र था। इसने समुद्रदत्त के पुत्र का लालन-पालन किया था तथा उसका नाम जितशत्रु रखा। मपु० ४७.२०३-२११ जयन्त-(१) जम्बूद्वीप में पश्चिम विदेहक्षेत्र के गन्धमालिनी देश की वीतशोका नगरी के राजा वैजयन्त और उसकी रानी सर्वश्री का पुत्र । यह संजयन्त का अनुज था। इसने पिता और भाई के साथ स्वयंभू तीर्थकर से दीक्षा ले ली थी। पिता को केवलज्ञान होने पर उसकी वन्दना के लिए आये धरणेन्द्र को देखकर मुनि अवस्था में ही इसने धरणेन्द्र होने का निदान किया जिससे मरकर यह धरणेन्द्र हुआ। यह अपने भाई संजयन्त के उपसर्गकारी विद्यु दंष्ट्र को समुद्र में गिराना चाहता था किन्तु आदित्याभ देव के समझाने से यह ऐसा नहीं कर सका था । मपु० ५९.१०९-११५, १३१-१४३, हपु० २७.५-९ (२) दुर्जय नामक वन से युक्त एक गिरि । प्रद्युम्न को यहाँ ही विद्याधर वायु की पुत्री रति प्राप्त हुई थी । हपु० ४७.४३ (३) एक अनुत्तर विमान । यह नव ग्रैवेयकों के ऊपर वर्तमान है। मपु० ७०.५९, पपु० १०५.१७०-१७१, हपु० ६.६५, ३४.१५० । (४) तीर्थकर मल्लिनाथ द्वारा दीक्षा के समय व्यवहृत यान । मपु० ६६.४६-४७ (५) आकाशस्फटिक मणि से बने समवसरण भूमि के तीसरे कोट में पश्चिमी द्वार के आठ नामों में प्रथम नाम । हपु० ५७.५९ (६) विजया की उत्तरोणी का पन्द्रहवां नगर । हपु० २२.८७ (७) जम्बूद्वीप की जगतो के चार द्वारों में एक द्वार । हपु० ५. (९) पुण्डरीकिणी नगरी के राजा वज्रसेन और उसकी रानी श्रीकान्ता का पुत्र, वचनाभि का सहोदर। मपु० १०.९-१० (१०) जयकुमार का अनुज । इसने जयकुमार के साथ ही दीक्षा ली थी। मपु० ४७.२८०-२८३ (११) धातकीखण्ड के ऐरावत क्षेत्र में तिलकनगर के राजा अभयघोष और रानी स्वर्ण तिलका का पुत्र । यह विजय का अनुज था। मपु० ६३.१६८-१६९ जयन्तपुर-भरतक्षेत्र का एक नगर । मपु० ७१.४५२, हपु० ८०.११७ जयन्ती-(१) एक मन्त्र परिष्कृत विद्या। धरणेन्द्र ने यह विद्या नमि और विनमि को दी थी। पु० २२.७०-७३ (२) राजा चरम द्वारा रेवा नदी के तट पर बसायी गयी एक नगरी । हपु० १७.२७ (३) विजया को दक्षिणश्रेणी की इकतीसवीं नगरी। मपु० १९. ५०, ५३ (४) मथुरा नगरी के राजा मधु को महादेको । पपु० ८९.५०-५१ (५) नन्दीश्वर द्वीप के दक्षिण दिशा सम्बन्धी अंजनगिरि की पश्चिम दिशा में स्थित वापी । हपु० ५.६६० (६) रुचकवरगिरि के सर्वरल कूट की निवासिनी देवी। हपु० ५.७२६ (७) रुचकवरगिरि के कनककूट की निवासिनी एक दिक्कुमारी देवी । हपु० ५.७०५ (८) विदेहक्षेत्र के महावप्र देश की मुख्य नगरी । मपु० ६३.२११, २१६, हपु० ५.२५१, २६३ जयन्धर-धातकीखण्ड द्वीप के पूर्वमेरु सम्बन्धी पूर्व विदेह क्षेत्रस्थ पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी का राजा। इसकी रानी का नाम जयवती और पुत्र का नाक जयद्रथ था । मपु० ७५.५३३-५३४ जयपाल–महावीर के निर्वाण के तीन सौ पैतालीस वर्ष पश्चात् दो सौ बीस वर्ष के अन्तराल में हुए ग्यारह अंगधारी पांच मुनीश्वरों में दूसरे मुनि । मपु० २.१४६, ७६.५२०-५२५, वोवच० १.४१-४९ जयपुर-शालगुहा और भद्रिलपुर के मध्य में स्थित एक नगर । वसुदेव ने यहाँ के राजा की पुत्री को विवाहा था। हपु० २४.३० जयप्रभ-लक्ष्मण का जीव । यह स्वर्ग से चयकर विजयावती के राजा ___ कुमारकीर्ति और उसकी रानी लक्ष्मी का पुत्र होगा। पपु० १२३. ११२, ११९ जयभद्र-भगवान् महावीर के निर्वाण के पांच सौ पैंसठ वर्ष बाद एक सौ अठारह वर्ष के काल में हुए आचारांग के धारी प्रसिद्ध चार मुनियों में दूसरे मुनि । हपु० ६६.२४ जयभामा-भोगपुर निवासी विद्याधर जयधाम को स्त्रो। इस दम्पति ने समुद्रदत्त के पुत्र और सर्वदयित के भानजे का पालन किया था तथा उसका जितशत्रु नाम रखा था। मपु० ४७.२१०-२११ जयमित्र-(१) विद्याधरों का एक राजा । यह सिंहरथारोही होकर राम की ओर से रावण से लड़ा था । पपु० ५८.३-७ (२) प्रभापुर नगर के राजा श्रीनन्दन और उसकी रानी धरणी का (८) इन्द्र विद्याधर का पुत्र । इसने भयंकर युद्ध में श्रीमाली का वध किया था। पपु० १२.२२४-२४२ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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