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________________ जयकोर्तन-जयदेवी जैन पुराणकोश : १३७ जयकीर्तन-भरतक्षेत्र में पृथिवीपुर नगर के राजा यशोधर और रानी जया का पुत्र । आगामी दूसरे भव में यही सगर चक्रवर्ती हुआ। पपु० ५.१३८-१३९ जयकीर्तिआगामी दसर्वे तीर्थकर । मपु० ७६,४७८, हपु० ६०.५५९ जयकुमार-कुरुजांगल देश में हस्तिनापुर नगर के राजा सोमप्रभ और उसकी रानी लक्ष्मीवती का पुत्र । इसके तेरह भाई थे । कुरु इसका पुत्र था। मपु० ४३.७४-८०, हपु० ४५.६-८, ९.२१६, पापु० २.२०७-२०८, २१४ यह चक्री भरत का सेनापति था । भरतेश को दिग्विजय के समय इसने मेधेश्वर नाम के देवों को पराजित करके भरतेश से वीर तथा मेघेश्वर ये दो उपाधियाँ प्राप्त की थीं। मपु० ४३.५१,३१२-३१३, ४४.३४३, हपु० ११.३३, पापु० २.२४७ राज्य पाने के बाद इसने एक दिन वन में शीलगुप्त मुनि से धर्म का उपदेश सुना । उस समय एक नाग-युगल ने भी मुनि से धर्म श्रवण किया था। नाग-नागिन में नाग मरकर नागकुमार जाति का देव हआ। पति-विहीना सर्पिणी को काकोदर नामक विजातीय सर्प के साथ देखकर इसने उसे धिक्कारा और नील कमल से ताडित किया । वे दोनों भागे किन्तु सैनिकों ने उन्हें मिट्टी के ढेलों से मारा जिससे काकोदर मरकर गंगा नदी में काली नामक जल-देवता हुआ। पश्चाताप से युक्त सर्पिणी मरकर अपने पूर्व पति नागकुमार देव को देवी हुई। इसके कहने से नागदेव इसे काटना चाहता था किन्तु जयकुमार द्वारा अपनी स्त्री से कहे गये सर्पिणी के दुराचार को सुनकर नाग का मन बदल गया। उसने इसकी (जयकुमार की) पूजा की तथा आवश्यकता पड़ने पर स्मरण करने के लिए कहकर वह अपने स्थान पर चला गया। मपु० ४३.८७, ११८ राजा अकम्पन की पुत्री सुलोचना ने स्वयंवर में इसी का वरण किया था। सुलोचना के वरमाला के प्रसंग को लेकर भरत के पुत्र अर्ककीर्ति ने इससे युद्ध किया । इनने उसे नाग-पाश से बाँध लिया। इसकी इस विजय पर स्वर्ग से पुष्पवृष्टि हुई। मपु० ४३.३२६-३२९, ४४.७१-७२, ३४४-३४६ अकम्पन ने अपनी दूसरी पुत्री लक्ष्मीमती अर्ककीर्ति को देकर इसकी उससे सन्धि करा दो। म्लेच्छ राजाओं को जीतकर नाभि पर्वत पर भरतेश का कीर्तिमय नाम इसी ने स्थापित किया था। अपशकुन होने पर भी सुलोचना सहित यह अपना हाथी गंगा में ले गया। पूर्व वैर वश काली देवी ने इसके हाथी को मगर का रूप धरकर पकड़ लिया। सुलोचना ने इस उपसर्ग के निवारण होने तक आहार और शरीर-मोह का त्याग कर पच नमस्कार का स्मरण किया था। फलस्वरूप गंगा देवी ने आकर इसकी रक्षा की । मपु० ४५.११-३०, ५८, १३९-१५२ जयकुमार और सुलोचना दोनों साम्राज्य सुख का उपभोग करते हुए जीवन व्यतीत करने लगे। तभी उन्हें प्रज्ञप्ति आदि विद्याएँ भी प्राप्त हो गयीं। उन विद्याओं के प्राप्त होते ही उनके मन में देवों के योग्य देशों में विहार करने की इच्छा उत्पन्न हुई। जयकुमार ने अपने छोटे भाई विजय को राज्यकार्य में नियुक्त कर दिया । वे दोनों कुलाचलों के मनोहर वनों में विहार करते हुए कैलाश पर्वत के वन में पहुंचे। वहाँ जब किसी कारणवश यह सुलोचना से दूर हो गया तब उसके शील की परीक्षा लेने के लिए रविप्रभ देव के द्वारा भेजी गयी कांचना देवी ने उसे शील से डिगाने के अनेक प्रयत्न किये। पर वह सफल नहीं हो सकी। अपनी असफलता से क्रोध दिखाते हुए उसने राक्षसी का रूप धारण किया और उसे उठा ले जाना चाहा । उसी समय सुलोचना वहाँ आ गयी और उसके ललकारने से देवी तुरन्त अदृश्य हो गयी। रविप्रभ देव वहाँ आ गया और उसने सारा वृत्तान्त कहकर जयकुमार से क्षमा मांगी। जयकुमार सुलोचना के साथ वन विहार करते हुए अपने नगर में आ गया। मपु० ४७.२५६-२७३, पापु० ३.२६१२७१ सांसारिक भोग भोगते हुए जयकुमार के मन में वैराग्य भावना का उदय हुआ । अन्त में परमपद प्राप्त करने की कामना से इसने विजय, जयन्त और संजयन्त नामक अनुजों तथा रविकीर्ति, रिपुंजय, अरिन्दम, अरिंजय, सुजय, सुकान्त, अजितंजय, महाजय, अतिवीर्य, वीरंजय, रविवीर्य आदि पुत्रों के साथ वृषभदेव से दोक्षा ले ली। यह वृषभदेव का इकहत्तरवां गणधर हुआ। मपु० ४७.२७९-२८६, हपु० १२.४७, ४९, पापु० ३.२७३-२७६ इनके साथ एक सौ आठ राजाओं ने दीक्षा धारण को थी। हपु० १२.५० इसको पत्ली सुलोचना ने भी चक्रवर्ती भरत की पत्नी सुभद्रा के साथ ब्राह्मी आर्यिका के समीप दीक्षा ले लो तथा तपश्चरण कर अच्युत स्वर्ग के अनुत्तर विमान में देव हुई। पापु० ३.१७७-२७८ जयकुमार घाति कर्मों का विनाश कर केवलो हुआ और अघाति कर्म नष्ट करके मोक्ष को प्राप्त हुआ। पापु० ३.२८३ चौथे पूर्वभव में यह अशोक का पुत्र सुकान्त था और सुलोचना उसकी पत्नी रतिवेगा थो । तोसरे पूर्वभव में ये दोनों रतिवर और रतिषेणा नामक कबूतर और कबूतरो हुए। दूसरे पूर्वभव में यह हिरण्यवर्मा नामक विद्याधर और सुलोचना प्रभावती विद्याधरी हुई। पहले पूर्वभव में ये दोनों देव और देवी हुए। मपु० ४६.८८, १०६, १४५-१४६, २५०-२५२, ३६८ जयगिरि-जीवन्धरकुमार का गन्धगज । इस गज पर बैठकर जीवन्धर कुमार काष्ठांगारिक के पुत्र कालांगारिक से लड़ने गया था। मपु०७५.३४०-३४१ जयगुप्त-एक निमित्तज्ञानो। इसी से महाराज प्रजापति ने जान लिया था कि त्रिपृष्ठ ही स्वयंप्रभा का पति होगा। मपु० ६२.९८, २५३ जयचन्द्रा-सूर्योदय नगर के राजा शक्रधनु और उसकी रानी घो की पुत्री । यह हरिषेण से विवाहित हुई थी। पपु० ८.३६२-३६३,३७१ जयतरंग-जयकमार का अश्व । इसी अश्व पर चढकर जयकुमार ने अर्ककीति से युद्ध किया था और विजय प्राप्त को थी। मपु० ४४. १६४ जयवत्ता-धनंजय वणिक् को पुत्री। यह श्रेष्ठी सर्वदयित की दूसरी जयदेव-मगध देश के शाल्मलीखण्ड ग्राम का एक सेठ। इसकी पत्नी देविला और उससे उत्पन्न पुत्रो पद्मदेवी थो । हपु० ६०.१०८-१०९ जयवेवी-(१) शिवमन्दिर नगर के स्वामी कनकपुख की रानी, दमि तारि की जननी । मपु० ६२.४८८-४८९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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