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________________ जयराज-जयसेन जैन पुराणकोश : १३९ पुत्र । यह सप्तर्षियों में सातवाँ ऋषि था। मथुरा में चमरेन्द्र द्वारा फैलायी गयी महामारी इसी के प्रभाव से शान्त हुई थी। पपु० ९२.१-१४ जयराज-कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर का एक कुरुवंशी राजा । यह महाराज के पश्चात् राजा हुआ था। हपु० ४५.१५ जयरामा-जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित काकन्दा नगरी के राजा सुग्रीव की भार्या । यह तीर्थंकर पुष्पदन्त की जननी थी। मपु० ५५. २३-२८ जयवती-(१) सुरम्य देश में श्रीपुर नगर के राजा श्रीधर और उसकी रानी श्रीमती की पुत्री । इसका विवाह श्रीपाल से हुआ था। इसका पुत्र गुणपाल था जिसका निवाह जयवर्मा नामक इसी के भाई की पुत्री जयसेना के साथ हुआ था । मपु० ४७.१७०-१७६ (२) पुण्डरीकिणी नगरी के राजा जयन्धर को रानी । यह जयद्रथ की जननी थी। मपु० ७५.५३३-५३४ दे० जयद्रथ (३) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र सम्बन्धी द्वारवती नगरी के राजा सोमप्रभ की रानो, बलभद्र सुप्रभ की जननी। मपु०६०.४९,६३ जयवराह-पश्चिम के सौराष्ट्र देश का राजा। इसी के राज्यकाल में संवत् सात सौ पाँच में श्री जिनसेनाचार्य ने हरिवंशपुराण लिखना आरम्भ किया था । हपु० ६६.५२-५३ जयवर्मा-(१) विदेहस्थ गन्धिल देश के सिंहपुर नगर के राजा श्रीषेण का ज्येष्ठ पुत्र । पिता के द्वारा छोटे भाई को राज्य दिये जाने के कारण विरक्त होकर इसने स्वयंप्रभ गुरु से दीक्षा ले ली थी। आकाश से महीधर नामक विद्याधर को जाते देखकर इसने विद्याधरों के भोगों की प्राप्ति का निदान किया था और उसी समय सर्पदंश के निमित्त से मरकर पूर्वकृत निदानवश महाबल नाम का विद्याधर हुआ था। मपु० ५.२०४-२११ (२) अयोध्या नगर का राजा। यह रानी सुप्रभा का पति और अजितंजय का पिता था । इसने अभिनन्दन नामक मुनि से दीक्षा ली थी तथा आचाम्लवर्धन नामक तप से कर्मबन्धन से मुक्त होकर अविनाशी परमपद प्राप्त किया था। मपु० ४४.१०६-१०७ (३) राजा जयकुमार के पक्ष का एक मुकुटबद्ध भूपाल । यह श्रीपाल की पत्नी जयावती का भाई और जयसेना का पिता था । इसने जयकुमार की ससैन्य सहायता की थी। मपु० ४७.१७४, ४४. १०६-१०७, पापु० ३.९४-९५ जयवान-सप्तर्षियों में पांचवें ऋषि । पपु० ९२.१-१४ दे० जयमित्र जयबाह-भगवान् महावीर के निर्वाण के पाँच सौ पैंसठ वर्ष बाद एक सौ अठारह वर्ष के काल में हुए आचारांग धारी चार मुनियों में तीसरे मुनि, अपरनाम यशोबाहु । हपु० ६६.२४, वीवच० १.४१-५० जयश्यामा-(१) काम्पिल्यपुरी के राजा कृतवर्मा की महादेवी। यह तीर्थकर विमलनाथ की जननी थी । मपु० ५९.१४-१५, २१ (२) अयोध्या नगरी के इक्ष्वाकुवंशी-काश्यपगोत्री राजा सिंहसेन की रानी। यह तीर्थकर अनन्तनाथ की जननी थी। मपु० ६०. २१-२२ जयसेन-(१) वीरसेन भट्टारक के बाद महापुराण के कर्ता जिनसेना चार्य के पूर्व हुए एक आचार्य । ये तपस्वी और शास्त्रज्ञ थे । इन्होंने समस्त पुराण का संग्रह किया था। मपु० १.५७-५९ (२) हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेन के पूर्व तथा शान्तिसेन आचार्य के पश्चात् हुए एक आचार्य । ये अखण्ड मर्यादा के धारक, षट्खण्डागम के ज्ञाता, इन्द्रियजयी तथा कर्मप्रकृति और श्रुत के धारक थे । हपु०६६.२९-३० (३) राजा समुद्रविजय का पुत्र । हपु० ४८.४३ (४) साकेत का स्वामी । भगवान् पार्श्वनाथ के कुमारकाल के तीस वर्ष बीत जाने पर इसने भगली देश में उत्पन्न घोड़े भेंट में देने के लिए एक दून पाश्र्वनाथ के पास भेजा था। साकेत से आये दूत से पार्श्वनाथ ने वृषभदेव का वर्णन सुनकर अपने पूर्वभव जान लिये थे । हपु० ७३.११९-१२४ (५) मगधदेश के सुप्रतिष्ठनगर का राजा। मपु० ७६.२१७ (६) जम्बद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में स्थित वत्सकावती देश में पृथिवीनगर का राजा । यह जयसेना का पति तथा रतिषण और धृतिषण का पिता था। अपने प्रिय पुत्र रतिषण की मृत्यु से दुःखी होते हुए संसार से विरक्त होकर इसने धृतिषण को राज्य दे दिया और अनेक राजाओं तथा महारुत नामक माले के साथ यशोधर गुरु से यह दीक्षित हो गया। आयु के अन्त में मंन्यासमरण कर अच्युत स्वर्ग में महाबल नामक देव हुआ। मपु० ४८.५८-६८ (७) मध्यलोक के धातकीखण्ड महाद्वीप के पूर्व मरु से पश्चिम दिशा की ओर स्थित विदेहक्षेत्र के गन्धिल देश में पाटलि ग्राम के निवासी नागदत्त वैश्य और उसकी स्त्री सुमति का कनिष्ठ पुत्र । नन्द, नन्दिमित्र, नन्दिषेण, वरसेन इसके बड़े भाई और मदनकान्ता तथा श्रीकान्ता बहिनें थीं। विदेहक्षेत्र में पुण्डरीकिणी नगरी के राजा वज्रदन्त की पुत्री श्रीमती पूर्वभव में इसी की निर्नामा नाम की छोटी पुत्री हुई थी। मपु० ६.५८-६०, १२६-१३० (८) घातकोखण्ड द्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में स्थित वत्सकावती देश की प्रभाकरी नगरी के राजा महासेन और रानी वसुन्धरा का पुत्र । अनुक्रम से यह चक्रवर्ती हुआ तथा चिरकाल तक प्रजानन्दक शासन करने के बाद भोगों से विरक्त होकर इसने जिनदीक्षा धारण कर ली । निर्दोष तपश्चरण करते हुए आयु के अन्त में मरकर यह आठवें प्रैवेयक में अहमिन्द्र हुआ । मपु० ७.४८-८९ (९) पूर्व विदेहक्षेत्र के मंगलावती देश में रत्नसंचयपुर के राजा महीघर तथा उसकी रानी सुन्दरी का पुत्र । जिस समय इसका विवाह हो रहा था उसी समय श्रीधर देव ने आकर इसे विषयासक्ति के दोष बताये जिससे विरक्त होकर इसने मुनि से दीक्षा ले ली। श्रीधर देव ने फिर एक बार नरक वेदनाओं का स्मरण कराया जिससे यह कठिन तपश्चरण करने लगा। आयु के अन्त में समाधिपूर्वक प्राण छोड़कर यह ब्रह्म स्वर्ग में इन्द्र हुआ। इस जन्म से पूर्व यह नरक में था जहाँ श्रीधर देव के द्वारा समझाये जाने पर इसने सम्यग्दर्शन धारण कर लिया था। मपु० १०.११३-११८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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