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________________ चेर-छत्र जैन पुराणकोश : १३१ चेर-केरल का प्राचीन नाम । मपु० २९.७९ चेलिनी-वैशाली के राजा चेटक और उसकी भार्या सुभद्रा की पांचवीं पुत्री । चेटक राजा द्वारा बनवाये गये पुत्रियों के चित्रपट को देखकर राजा श्रेणिक इसमें तथा इसकी बहिन ज्येष्ठा में अनुरक्त हो गये थे। राजा श्रेणिक ने उनके लिए राजा चेटक से याचना भी की किन्तु अधिक उम्र देखकर राजा चेटक ने श्रेणिक का यह प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया । यह समाचार मन्त्रियों द्वारा श्रेणिक के पुत्र अभयकुमार से कहे जाने पर अभयकुमार ने राजा श्रेणिक का एक विलासपूर्ण चित्र बनाया । वह वोद्रक व्यापारी के रूप में इन दोनों कन्याओं के निकट पहुँचा । उसने राजा श्रेणिक का स्वनिर्मित चित्र दिखाकर उन्हें श्रेणिक में आकृष्ट कर लिया और सुरंग मार्ग से उन्हें श्रेणिक के पास लाने में सफल हुआ। चेलिनी नहीं चाहती थी कि ज्येष्ठा श्रेणिक की रानी बने । इसलिए उसने ज्येष्ठा को एक छोड़ा हुआ आभूषण लाने के बहाने लौटा दिया और स्वयं अभयकुमार के साथ श्रेणिक के पास आ गयी थी। राजा श्रेणिक भी इसे पाकर वहत प्रसन्न हआ और उसने इसे विवाह कर अपनी पटरानी बनाया। ठगी गयी ज्येष्ठाते विरक्त होकर दीक्षा ले ली । मपु०७५.३-३४,७६.४१, पपु० २.७१, पापु० १.१३० दे० चेटक चेल्लकेतन-बंकापुर नगर के राजा लोकादित्य का पिता । मपु० प्रशस्ति चैत्यालय-जिन-मन्दिर । इनके ऊपर आवागमन रूप अविनय करने से विद्याघरों के विमान रुक जाते हैं। पाण्डुक वन के जिनालयों की चारों दिखाशों में चार द्वार होते हैं । दशों दिशाओं में एक सहस्र अस्सी ध्वजाएं लहराती है। इसके आगे एक विशाल सभा मण्डप, उसके आगे प्रेक्षागृह, स्तूप, चैत्यवृक्ष और पर्यकासन प्रतिमा होती है। इसकी पूर्व दिशा में जलचर जीवों से रहित एक सरोवर रहता है। ये धार्मिक और सामाजिक संस्कृति के केन्द्र रहे हैं । पपु० ५.३३, हपु० ४.६१, ५.३६६-३७२ महापुराण में इसे जिनालय कहा है । मपु० ६.१७९-१९३, ७.२७२-२९० चैत्रवन-मिथिला के पास का एक उद्यान । यहाँ तीर्थकर नेमिनाथ दीक्षित हुए थे। मपु० ६९.५४ चोच-कुरुजांगल देश का एक प्रसिद्ध वृक्ष । इस वृक्ष की जड़ बहुत गहरी होती है। यह बड़े-बड़े फल देता है । इसके पत्ते बहुत सुन्दर होते हैं । मपु० ६३.३४४ चोरशास्त्र-चौरकर्म का ग्रन्थ । इसमें ऐसे तन्त्रों और मन्त्रों का उल्लेख है जिनको सिद्ध करने से चोरों को अपने चौरकार्य में सफलता मिलती है। प्रसिद्ध विद्य च्चोर ने इसका अध्ययन किया था। मपु० ७६. चेल्लध्वज-बंकापुर नगर के राजा लोकादित्य का अग्रज । मपु० प्रशस्ति चोरी–बिना दिये दूसरे का धन लेना। इसके दो भेद हैं नैसर्गिक और निमित्त । नैसर्गिक चोरी करोड़ों की सम्पदा होने पर भी लोभ कषाय के कारण की जाती है। स्वाभाविक चोर चोरी किये बिना . नहीं रह सकता। धन के अभाव के कारण स्त्री-पुत्र आदि के लिए की गयी चोरी निमित्तज होती है। दोनों ही प्रकार की चोरी बन्ध का कारण है । मपु० ५९.१७८-१८६ चोल-(१) मध्य आर्यखण्ड का एक देश । मपु० १६.१५४, २९.७९, चैतन्य-पंचभूतों से भिन्न, ज्ञान-दर्शन स्वरूप-चेतना । मपु० ५.५० चैत्य-अकृत्रिम जिन-प्रतिमा । इन प्रतिमाओं के दर्शन का चिन्तन करने से वेला के उपवास का, दर्शन का प्रयल की अभिलाषा करने से तेला उपवास का, जाने का आरम्भ करने से चौला उपवास का, जो जाने लगता है वह पांच उपवास का, जो कुछ दूर पहुँच जाता है वह बारह उपवास का, जो बीच में पहुँच जाता है वह पन्द्रह उपवास का, जो मन्दिर के दर्शन करता है वह मासोपवास का, जो मन्दिर के प्रांगण में प्रवेश करता है वह छः मास के उपवास का, जो द्वार में प्रवेश करता है वह एक वर्ष के उपवास का, जो प्रदक्षिणा देता है वह सौ वर्ष के डपवास का, जो जिनेन्द्र का दर्शन करता है वह हजार वर्ष के उपवास का फल प्राप्त करता है। इन प्रतिमाओं के समीप झारी, कलश, दर्पण, पात्री, शंख, सुप्रतिष्ठक, ध्वजा, धूपनी, दीप, कूर्च, पाटलिका, झांझ, मजीरे आदि अष्ट मंगलद्रव्य और एक सौ आठ अन्य उपकरण रहते हैं। मपु० ५.१९१, पपु० ६.१३, ३२.१७८- १८२, हपु० ५.३६३-३६५ चैत्यगृह-जिनालय । मपु० ५.१८५ चैत्यपावप–चैत्यवृक्ष । ये समवसरण के चारों वनों में [अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक कौर आम्र) होते हैं। ये बहुत ऊँचे, तीन छत्रों सहित, घंटा, अष्ट मंगल-द्रव्य और चारों दिशाओं में जिन-प्रतिमाओं से युक्त होते हैं । प्रकाशवान् इन वृक्षों में सुगन्धित पुष्प होते हैं । इन्द्र इनकी पूजा करता है । मपु०६.२४, २२.१८८-२०३, वीवच० १४.११२-११४ (२) रावण का एक योद्धा । पपु० ५७.५८, १०१.७७ चोलिक–चोल देशवासी । मपु० २९.९४ चौल-एक संस्कार-मुण्डन कर्म। यह अन्नप्राशन संस्कार के पश्चात् सम्पन्न होता है । मपु० १५.१६४ इस समय निम्न मंत्र बोले जाते है-उपनयनमुण्डभागीभव, निर्ग्रन्थमुण्डभागी भव, निष्कान्तिमुण्डभागी भव, परमनिस्तारककेशभागी भव, परमेन्द्रकेशभागी भव, परमराज्यकेशभागी भव, आर्हन्त्यकेशभागी भव, । मपु० ४०.१४७-१५१ छत्र-(१) अर्हन्त के अष्ट प्रातिहार्यों में एक प्रातिहार्य । भगवान् की छत्र-(१) अहंन्त क अष्ट प्राातहाया म एक मूर्ति पर तीन छत्र लगाये जाते हैं । वे उनके तीनों लोकों के स्वामित्व को सूचित करते हैं । ये उनकी रत्नत्रय की प्राप्ति के भो सूचक है । मपु० २३.४२-४७, २४.४६, ५०, पपु० ४.२९, वीवच० १५.६-७ (२) चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में एक अजीव रत्न । यह वर्षा आदि बाधाओं का निवारक होता है। मपु० ३२.३१, ३७.८३-८५, हपु० ११.३५ (३) पारिवाज्य सम्बन्धी एक सूत्रपद । ऐसे उपकरणों का त्यागी Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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