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________________ १३२ : जैन पुराणकोश छत्रच्छाय-जगत्कुसुम मुनि अगले भव में रत्नों से दैदीप्यमान तीन छत्रों से शोभित होता है । मपु० ३९.१८१ छत्रच्छाय-महापुर नगर का राजा। इसकी रानी श्रीदत्ता थी। इसी नगर के सेठ मेरु और सेठानी धारिणी के पुत्र पद्मरुचि [धनदत्त का जीव] द्वारा मरणकाल में पंचनमस्कार-मंत्र सुनकर एक बैल अगले जन्म में राजा का पुत्र हुआ । वृषभध्वज उसका नाम था । पपु० १०६. महावीर बारह वर्ष । हपु० १२.७९, १६. ६४, ६०.३३६-३४० छन्वकर्ता-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३९ छन्दोविचिति-छन्दशास्त्र । यह अनेक अध्यायों का ग्रन्थ है। इन अध्यायों में प्रस्तार, नष्ट, उद्दिष्ट, लघु, गुरू, यति और अध्वयोग का वर्णन है । वृषभदेव ने अपने पुत्रों को इसकी शिक्षा दी थी। मपु० १६.११३-११४ छन्दोविन्-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३९ छोविव-भरतेश द्वारा मनत पटेa Ta छिन्न-अष्टांग निमित्तों में सातवां निमित्त । वस्त्र तथा शस्त्र आदि में किये गये छिद्रों को देखकर निमित्त ज्ञानी फल आदि बताते हैं। यह छिन्न निमित्तज्ञान कहलाता है । मपु० ६२.१८१, १८९, हपु० १०. ३८-४८ ११७ छेद-(१) अहिंसाणुव्रत का एक अतिचार-कान आदि अवयवों का छेदना। हपु० ५८.१६४ (२) प्रायश्चित का एक भेद-दिन, मास आदि से मुनि की दीक्षा कम कर देना। इसका मुनियों की वरीयता पर प्रभाव पड़ता है। हपु० ६४.३६ छेबोपस्थापना-चारित्र का एक भेद-अपने प्रमाद द्वारा हुए अनर्थ को दूर करने के लिए की हुई समीचीन प्रतिक्रिया । इसके पाँच भेद होते है-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वोर्याचार । तीर्थकरों को छेदोपस्थापना को आवश्यकता नहीं होती। मपु० २०. १७२-१७३, हपु० ६४.१६ छत्रपुर-जम्बद्वीप में भरतक्षेत्र का रमणीक नगर। इस नगर का राजा प्रीतिभद्र था । मपु० ५९.२५४ छत्राकारपुर-जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र का एक नगर । यह तीर्थकर महावीर के पूर्वभव की राजधानी था। मपु० ७४.२४२, पपु० २०. १६, वीवच० ५.१३४ छमस्थ-अल्पज्ञ जीव । ये मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों प्रकार के होते हैं । सम्प्रग्दृष्टि सरागी भी होता है और वीतरागी भी। चौथे से दसवें गुणस्थान के जीव सरागी छद्मस्थ और ग्यारह तथा बारहवें गुणस्थान वाले वीतरागी छद्मस्थ होते है । मपु० २१.१०,हपु० १०. १०६, ६०.३३६ छमस्थकाल-संयम धारण करने के समय से केवलज्ञान उत्पन्न होने तक का काल । वर्तमान तीर्थंकरों का छद्मस्थ काल निम्न प्रकार हैवृषभनाथ एक हजार वर्ष अजितनाथ बारह वर्ष शम्भवनाथ चौदह वर्ष अभिनन्दन अठारह वर्ष सुमतिनाथ बीस वर्ष पद्मप्रभ छः मास सुपाश्वनाथ नौ वर्ष चन्द्रप्रभ तीन मास पुष्पदन्त चार मास शीतलनाथ तीन मास श्रेयांसनाथ दो मास वासुपूज्य एक मास विमलनाथ तीन मास 'अनन्तनाथ दो मास धर्मनाथ एक मास शान्तिनाथ सोलह वर्ष कुन्थुनाथ सोलह वर्ष अरनाथ सोलह वर्ष मल्लिनाथ छ:दिन मुनिसुव्रत ग्यारह मास नमिनाथ नौ वर्ष नेमिनाथ छप्पन दिन पार्श्वनाथ चार मास जंघाचारण-एक चारणऋद्धि । इस ऋद्धि से चरण उठाये बिना आकाश में चलना संभव हो जाता है । मपु० २.७३, पपु० १०.१३९ जगच्चूडामणि-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. जगज्ज्येष्ठ-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०३ जगज्ज्योति-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. ११४, २०७ जगती-जम्बूद्वीप को चारों ओर से घिरे दुए वज्रमय भित्ति । यह इस द्वीप का अन्तिम अवयव है। यह मूल में बारह योजन, मध्य में आठ योजन, और अग्र भाग में चार योजन चौड़ी है । इसकी ऊँचाई आठ योजन तथा आधा योजन गहरी है । इसका मूलभाग बज्नमय, मध्यभाग विविध रत्नमय और अग्रभाग वैडूर्य मणिमय है । हपु० ५.३७७-३७९ जगत्-(१) लोक । इसके तीन भेद होते हैं-ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अघोलोक । यह परिणमनशील और नित्यानित्यात्मक है । मपु० १.२, २.२०, ११९, ६.१७६, १७.१२, ६३.२९६ (२) सौधर्म युगल का उनतीसा इन्द्रक-पटल । हपु० ६.४७ जगत्कुसुम-रुचकवर पर्वत का पश्चिम दिशा सम्बन्धी एक कूट । हपु० ५.७१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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