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________________ गुणवत-गुरु जैन पुराणकोश : ११३ गुणाकर-भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । गुणावरी-सौधर्मेन्द्र देव द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १३६ गुणाम्भोधि-सौधर्मेन्द्र देव द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३५ गुणोच्छेदी-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. आजीवन ब्रह्मचारी रहेगा। धीवर ने प्रसन्न होकर अपनी पुत्री का विवाह पाराशर के साथ कर दिया । गुणवती व्यास की जननी हुई। यही पाराशर के पश्चात् राजा हुआ । पापु० ७.८३-११५ (५) भरत की भाभी । पपु० ८३.९४ गुणवत-गृहस्थ के तीन व्रत-दिग्वत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत । मपु० १०.१६५, हपु० २.१३४, १८.४५-४६ पद्मपुराण के अनुसार दिग्वत, अनर्थदण्डवत तथा भोगोपभोग परिमाणवत ये तीन गणव्रत हैं । पपु० १४.१९८ गुणवान्-गुणवती का अनुज । पपु० १०६.१०-१४ दे० गुणवती गुणसागर-अयोध्यानगरी के राजा सुरेन्द्रमन्यु के पुत्र वज्रबाहु के दीक्षा - गुरु । पपु० २१.७५-७७, ११९-१२३ गुणसागरा-भरत की भाभी । पपु० ८३.९६ गुणसेन-वृषभदेव के एक गणधर । ये आठवें पूर्वभव में नागदत्त, सातवें में वानर, छठे में भोगभूमि में आर्य, पाँचवें में मनोहर देव, चौथे में चित्रांगद नाम के राजा, तीसरे में सामानिक देव, दूसरे में जयन्त और पहले में अहमिन्द्र थे । मपु० ४७.३७४-३७५ गुणस्थान-मोहनोय कर्मो के उदय, क्षय, उपशम और क्षयोपशम के निमित्त हुई जीव की विभिन्न स्थितियाँ । बे चौदह हैं-१. मिथ्यादृष्टि २. सासादन ३. सम्यग्मिथ्यात्व ४. असंयतसम्यग्दृष्टि ५. संयतासंयत ६. प्रमत्तसंयत ७. अप्रमत्तसंयत ८. अपूर्वकरण ९. अनिवृत्तिकरण १०. सूक्ष्मसांपराय ११. उपशान्तकषाय १२. क्षीण कषाय १३. सयोगकेवली और १४. अयोग केवली । मपु० २४.९४, हपु० ३.७९८३ वीवच० १६.५८-६१ जीव आरम्भिक चार गुणस्थानों में असंयत पाँचवें में संयतासंयत और शेष नौ गुणस्थानों में संयत होते हैं । इनमें बाह्य रूप से कोई भेद नहीं होता। सभी निर्ग्रन्थ होते हैं । आत्मविशुद्धता की अपेक्षा भेद अवश्य होता है । ये जैसे जैसे ऊपर बढ़ते जाते हैं, इनमें विशुद्धता बढ़ती जाती है । इनमें सर्वाधिक सुख क्षायिकलब्धियों के धारक सयोग और अयोग केवलियों को प्राप्त होता है । इनका सुख इन्द्रियविषयज नहीं होता आत्मोत्थ एवं शाश्वत होता है । अपूर्वकरण से लेकर क्षीणकषाय तक के जीवों के कषायों के उपशमन अथवा क्षय से उत्पन्न होनेवाला सुख परम सुख होता है । इसके बाद इनके क्रमशः एक निद्रा, पाँच इन्द्रियाँ, चार कषाय, चार विकथा और एक स्नेह इन पन्द्रह प्रमादों से रहित अप्रमत्त संयत जीवों के प्रशम रस रूप सुख होता है । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों से विरत प्रमत्त-संयत जीवों के शान्ति रूप सुख होता है। पाँच पापों से यथा-शक्ति एक देश निवृत्त संयतासंयत जीवों के महातृष्णा-विजय से उत्पन्न सुख होता है। अविरत सम्यग्दृ- ष्टि के तत्त्व-श्रद्धान से उत्पन्न सुख होता है। इसके पश्चात् परस्पर विरुद्ध सम्यक्त्त्व और मिथ्यात्व रूप परिणामों के धारी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सुख और दुःख दोनों से मिश्रित रहते हैं । सासादन, सम्यग्दृष्टि जीवों को सम्यक्त्व के छूट जाने से सुख तो नहीं सुख का कुछ आभास होता है । मोह की सात प्रकृतियों से मोहित मूढ़ मिथ्यादृष्टि जीव को सुख की प्राप्ति नहीं होती । हपु० ३.७८-७९ १५ गुण्य-सौधर्मेन्द्र देव द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३७ गुप्त-(१) वाराणसी नगरी के राजा अचल और उसकी रानी गिरिदेवी का कनिष्ठ-पुत्र । सुगुप्ति इसका बड़ा भाई था। त्रिगुप्त मुनि की भविष्यवाणी के अनुसार इनका जन्म होने के कारण माता-पिता ने इन दोनों भाइयों के ऐसे नाम रखे थे । पपु० ४१.१०७-११३ (२) वृषभदेव के चौरासी गणघरों में पचपनवें गणधर । हपु० १२.६४ (१) चारण ऋद्धिधारी एक मुनि । सुगप्ति मुनि के साथ इनको आहार देने से राम और सीता को पंचाश्चर्य प्राप्त हुए थे। पपु० ४१.१३-३१ गुप्त ऋषि-लोहाचार्य के बाद हुए एक आचार्य । ये गुप्तश्रुति के शिष्य ___ तथा शिवगुप्त मुनीश्वर के गुरु थे । हपु० ६६.२४-२५ गुप्तफल्गु-वृषभदेव के चौरासी गणधरों में छप्पनवें गणधर । मपु० ___४३.६२, हपु० १२.६४ गुप्तयज्ञ-वृषभदेव के एक गणधर । मपु० ४३.६१ गुप्तश्रुति-लोहाचार्य के बाद हुए एक आचार्य । ये विनयधर के शिष्य __ और गुप्तऋद्धि के गुरु थे। हपु० ६६.२४-२५ गुप्ति-वचन,मन और कायिक प्रवृत्ति का निग्रह । यह मुनि का एक धर्म है । इसके तीन भेद है-वचनगुप्ति, मनोगुप्ति और कायगुप्ति । इनमें वचन न बोलना वचनगुप्ति है, चिन्तन-स्मरण आदि न करना मनोगुप्ति और कायिक प्रवृत्ति का न करना कायगुप्ति है । मपु० २. ७७, ११.६५, ३६.३८, पपु० ४.४८, १४.१०९, हपु० २.१२७ पाँच समितियाँ और तीन गुप्तियाँ ये आठ प्रवचन मातृकाएं कहलाती हैं। मुनि इनका पालन करते हैं । मपु० ११.६५ गुप्तिभृत-सौधर्मेन्द्र देव द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १७८ गप्तिमान-तीर्थकर धर्मनाथ के पर्वभव के पिता गुप्तिमान् तीर्थकर धर्मनाथ के पूर्वभव के पिता । पपु० १०.२८ गुप्त्याविषट्क-गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह-जय और चारित्र ये छः संवर के हेतु हैं । मपु० ५२.५५ गुरु-निग्रन्थ साधु-पंचपरमेष्ठी। ये अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित होते हैं और आत्म-कल्याण में लीन रहते हैं। इनके उपदेश से सम्यक्त्व की उपलब्धि होती है-जीवन सन्मार्ग में प्रवृत्त होता है जिससे इहलौकिक और पारलौकिक कल्याण होता है । मपु० ५.२३०, ७.५३-५४, ९.१७२-१७७, हपु० १.२८, वीवच० ८.५२ (२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १६०, ३६.२०३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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