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________________ ११४ : जैन पुराणकोश गुरुवक्षिणा-गोतम गुरुदक्षिणा–शिक्षा-समाप्ति के पश्चात् शिष्य के द्वारा गुरु की आज्ञा- नुसार दी जातेवाली दक्षिणा । यह दक्षिणा शिष्य के पास धरोहर के रूप में भी रहती थी और आवश्यकता होने पर शिष्य से ले ली जाती थी। हपु० १७.७९-८१ गुरुपूजोपलम्भन-गर्भान्वय को वपन क्रियाओं में इकतालीसवीं क्रिया। इस क्रिया में तीर्थकर शिष्यभाव के बिना ही अनौपचारिक रूप से शिक्षा ग्रहण करते हैं । मपु० ३८.६१, २२९-२३० गुरुभर-बिद्याधर जाति का एक वानर कुमार । बहुरूपिणी विद्या की साधना करते हुए रावण को कुपित करने की भावना से यह अनेक वानरकुमारों के साथ लंका गया था। पपु० ७०.३, १४-१६ गुरुस्थानाभ्युपगमक्रिया-गर्भान्वय की अपन क्रियाओं में सत्ताईसवीं क्रिया-सर्वविद्यावान् और जितेन्द्रिय साधु का गुरु के अनुग्रह से गुरु का स्थान ग्रहण करना। ऐसा वही साधु कर सकता है, जो ज्ञानविज्ञान से सम्पन्न हो, गुरु को इष्ट हो और विनयवान् तथा धर्मात्मा हो । मपु० ३८.५८, १६३-१६७ गुल्म-सेना का एक भेद । यह तीन सेनामुखों से बनता है। इसमें २७ रथ, २७ हाथी, १२५ पयादे और १३५ अश्व होते हैं। पपु० ५६. २-७ गुल्मखेट-एक नगर । यह तीर्थंकर पाश्वनाथ की प्रथम पारणास्थली __ था। मपु० ७३.१३२-१३३ गुहा-वास्तुकला का एक महत्त्वपूर्ण अंग । मपु० ४७.१०३, १६१ गुह्य-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४९ गुह्यक—देवों की एक जाति । बे देव तीर्थंकरों के कल्याणकों तथा विहार के समय रलवृष्टि और पुष्पवृष्टि करते हैं। मपु० ५६.२५, ३८, २२१, १७.१०१, हपु० ५९.४३ गूढगोचर-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५. गृहशोमा-कन्वय-क्रियाओं में पारिव्राज्य-क्रिया के लक्षणरूप सत्ताईस सूत्रपदों में एक सूत्रपद । गृह-शोभा का परित्याग करने से तपस्वी के सामने श्रीमण्डप की शोभा स्वयमेव आती है। मपु० ३९.१८६ गृहस्थ-ब्रह्मचर्य के बाद का आश्रम। इस आश्रम में विवाह के पश्चात् गृहस्थ समाज सेवा के कार्यों में प्रवृत्त होता है। मपु० १५.६१-७६, ३८.१२४-१२७ गृहस्थधर्म-पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का पालन करना । यह धर्म, शील. तप, दान, और शुभ भावना के भेद से चार प्रकार का होता है । पपु० ४.४६, पापु० १.१२३-१५७ गृहाङ्ग-एक प्रकार के कल्पवृक्ष । ये भोगभूमि में आवश्यकतानुसार राजमहल, मण्डप, सभागृह, चित्रमाला, नृत्यशीला आदि अनेक प्रकार के भवनों का निर्माण करते हैं। मपु० ३.३९-४०, ९.३५-३६, ४४, हपु० ७.८०, वीवच० १८, ९१-९२ गृहिमूलगुणाष्टक-गृहस्थ के आठ मूलगुण-मद्य, मांस वौर मधु का त्याग तथा पाँच अणुव्रतों का पालन । मपु० ४६.२६९ गृहोतागृहीतेत्वरिकागमन-स्वदारसन्तोषव्रत के पाँच अतिचारों में एक अतिचार । हपु० ५८.१७४-१७५ गृहोशिता-गर्भान्वय की अपन क्रियाओं में बीसवीं तथा दीक्षान्वय की अड़तालीस क्रियाओं में पन्द्रहवीं क्रिया । इस क्रिया में शास्त्रज्ञान और चारित्र से सम्पन्न व्यक्ति गृहस्थाचार्य बनता है और स्वकल्याण करते हुए सामाजिक कर्तव्यों का निर्वाह करता है । मपु० ३८.५७, १४४-१४७, ३९.७३-७४ गोकुल-मथुरा के पास का एक ग्राम । कृष्ण का लालन-पालन इसी स्थान पर हुआ था । हपु० १.९१, पापु० ११.५८ गोक्षीर-विजया पर्वत की उत्तरश्रेणी के स्वर्ग के समान साठ नगरों __में एक नगर । मपु० १९.८५, ८७ गोचरी-निर्ग्रन्थ मुनियों की आहार-चर्या । इसके लिए मुनि भिक्षा के लिए नियत समय में निकलते है, वे गृहपंक्ति का उल्लंघन नहीं करते, निःस्पृह भाव से शरीर को स्थिति के लिए ठण्डा, गर्म, अलोना, सरस, नीरस जैसा प्राप्त होता है, खड़े होकर पाणि-पात्र से ग्रहण करते हैं । मपु० ३४.१९९-२०१, २०५ गोतम (१) सिन्धु-तट निवासी तपस्वी मृगायण और उसकी पत्नी विशाला का पुत्र । इसने पंचाग्नि तप किया था और तप के प्रभाव से मरकर सुदर्शन नाम का ज्योतिषी देव हुआ। मपु० ७०. १४२-१४३ (२) अन्धकवृष्टि के तीसरे पूर्वभव का जीव । यह जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्रस्थ कुरुजांगल देश में हस्तिनापुर नगर के राजा धनंजय के समकालीन कपिष्ठल ब्राह्मण और अनुन्धरी नाम की ब्राह्मणी का दरिद्र पुत्र था । इसने समुद्रसेन मुनिराज के पीछे-पीछे जाकर वैश्रवण सेठ के यहाँ भोजन किया था तथा इसे विशेष सन्तोष प्राप्त हुआ था । मुनिचर्या से प्रभावित होकर यह संयमी हुआ और एक वर्ष के बाद इसने ऋद्धियाँ प्राप्त कर ली थीं। आयु के अन्त में समाधिमरण गूढवत्त/गूढदन्त-आगामी बारह चक्रवतियों में चौथा चक्रवर्ती। मपु० ७६.४८२, हपु० ६०.५६४ गूढात्मा-सौधर्मेन्द्र देव द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. गृह-समाज के विभिन्न वर्गों के आवास । आदिपुराण में अनेक प्रकार __ के आवासों का वर्णन आया है । मपु० ४६.२४५, ३९७ गृहकूटक-भरतेश का अति उच्च वर्षाकालीन महल । मपु० ३७.१५० गृहक्षोभ-एक राक्षसवंशी राजा। यह मेघध्वान के पश्चात् लंका का राजा हुआ। पपु० ५.३९८-४०० गृहत्यागक्रिया-गर्भान्वय की पन क्रियाओं में बाईसवों तथा दीक्षान्वय को अड़तालीस क्रियाओं में सत्रहवीं क्रिया । इस क्रिया में सिद्ध भगवान् का पूजा के पश्चात् इष्ट जनों के समक्ष पुत्र को सब कुछ समर्पित करके गृहत्याग किया जाता है । मपु० ३८.५७, १५०-१५६, गृहपति-भरत चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में सजीन रत्न । मपु० ३७. ८३-८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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